अरे जा रे हट नटखट, न खोल मेरा घूंघट
पलट के दूंगी आज तुझे गाली रे, मुझे समझो न तुम भोली भाली रे
दिन तो दिवाली के हैं, पर मैं होली के शहर में खोई हुई हूं. यहां, जहां मैं अभी हूं, मौसम ही कुछ-कुछ वैसा ही हो रहा है. हल्की-सी ठंडक, रंग बदलते हुए पत्ते और सुबह-शाम गुलाबी आसमान… हालांकि मथुरा का मौसम अब कैसा होता होगा, कह नहीं सकती बरसों पहले जब गई थी तो गर्मियों में गई थी और मौसम बेहद गर्म था. पर मैं मथुरा को क्यों याद कर रही हूं? अरे भाई कान्हा की नगरी है, जब मन रम जाए तभी चंगा…
अब आपको बता ही देती हूं कि मथुरा को याद करने का एक बहुत बड़ा कारण है-रबड़ी. जी हां, हम सबकी प्यारी रबड़ी, हमारे गुलाब जामुन, मालपुआ, जलेबी और फ़ालूदा के स्वाद में चार चांद लगा देने वाली रबड़ी… पत्तों के हरे दोनों पर फैली हलके पीले रंग की आभा से चमकती रबड़ी…
मैं जब जब मथुरा को सोचती हूं तो लगता है जैसे हाथ में मुरली लिए कान्हा पीताम्बर धारण किए आगे-आगे भागे जा रहे हैं. कहीं से दोने में रबड़ी लेकर, कहीं से दही लेकरऔर खाते हुए, भागे चले जा रहे हैं…कल्पनाओं का कोई सबूत नहीं, पर इस बात का है कि रबड़ी मथुरा में जन्मी थी! आस्थाओं का कोई छोर नहीं, पर जहां कान्हा के पैर पड़े हों, वो जगह स्वर्ग है और उस स्वर्ग-सी जगह पर जिस भी चीज़ ने जन्म लिया वो तो वैसे ही अमृत समान है.
कहानी रबड़ी की: मलाई और रबड़ी दोनों का जन्म मथुरा में हुआ. कहते हैं बिहार के कुछ यादव यहां रहते थे, जिन्होंने दूध गरम करके रबड़ी और मलाई बनाना शुरू किया था. मलाई, जहां चौड़ी कड़ाही में बनाई जाती थी, वहीं रबड़ी गहरी कड़ाही में. मलाई अमीरों का व्यंजन मानी गई और रबड़ी यहां से पहुंची बनारस और थोड़ा-सा रूप बदलकर बन गई आम आदमी का व्यंजन. बनारस में रबड़ी ने अपनी अलग ही रंगत जमाई. भोले शंकर की नगरी में भांग लस्सी के पीने के बाद लोग इसे खाने लगे. रंगत में ज़रा सफ़ेद, थोड़े कम मेवों वाली ये रबड़ी बनारसियों की जान बन गई.
यूं तो बंगाल की रबड़ी भी बेहद फ़ेमस है और यह यहां भी ये मथुरा से ही आई. कहते हैं मथुरा के कुछ पंडित परिवार जब कोलकाता गए तो उन्होंने लोगों को रबड़ी का स्वाद चखाया. आपको जानकार आश्चर्य होगा कि बंगाल का एक गांव तो रबड़ी गांव है और यहां रहनेवाले सारे परिवार रबड़ी बनाकर बेचते हैं! क़िस्सा ये है कि बरसों पहले ये लोग ग्वाले थे, गाय-भैंस पालते थे और इतना दूध होता था कि वो बेकार फेंकना पड़ता था. तब यहां से एक आदमी कोलकाता गया और वहां एक मिठाई की दुकान पर काम करने लगा, जब वो वापस आया तो अपने साथ रबड़ी बनाने की कला भी लाया. और फिर उसने घर पर ही रबड़ी बनाना शुरू किया और उसे कोलकाता में बेचना शुरू किया. धीरे-धीरे पूरा गांव ही रबड़ी बनाने लगा. कोलकाता की कई छोटी-बड़ी दुकानों में इस गांव से आई रबड़ी खाने को मिल जाएगी.
रबड़ी के बदले रंग: बदलते समय के साथ तो न जाने कितने तरह की रबड़ी बनाई जाने लगी. मेंगो रबड़ी, सीताफल रबड़ी, गुलाब रबड़ी, इलायची रबड़ी जैसे कई फ़्लेवर खाए जाने लगे और यक़ीन मानिए ये सभी एक से बढ़कर एक बेहतरीन होती हैं. सभी को बनाने का तरीक़ा भी लगभग एक-सा होता है. दूध को लम्बे समय तक ख़ूब औटाया जाता है और जब ये बहुत गाढ़ा हो जाता है, तब इसमें शक्कर डालकर फिर औटाया जाता है. कुछ लोग इसमें गुड़ भी डालते हैं और अगर मेंगो या सीताफल की रबड़ी बन रही है तो शक्कर के पहले इन फलों का गूदा यानी पल्प मिलाया जाता है. कहीं लोग इसे गर्मागर्म खाना पसंद करते हैं, तो कहीं रबड़ी आइसक्रीम भी खाई जाती है. बंगाल हो या उत्तर प्रदेश, राजस्थान हो या मध्यप्रदेश और यहां तक कि हरियाणा और दिल्ली में भी कई जगह रबड़ी बड़े ही चाव से खाई जाती है.
यादों के झरोखे में रबड़ी : मेरे पास रबड़ी से जुडी अपनी कोई कहानी नहीं है. मैं मीठे की ख़ास शौक़ीन नहीं रही कभी, पर मेरे नाना घर में मीठे का बहुत बोलबाला हुआ करता था. नानाजी अपने साथ कहीं भी ले जाते तो मीठा ज़रूर खिलाते और उस मीठे में कभी रबड़ी, कभी रसगुल्ला, कभी गुलाब जामुन शामिल होता. अब तो मैं उन्हें याद कर कर के मीठा बनाती हूं. पिछली गर्मी में मैंगो रबड़ी बनाते हुए मैंने कई बार उन्हें याद किया. कुछ ही समय पहले जब इसी कॉलम में मैंने गुलाब जामुन के बारे में लिखा था तो नानाजी मेरे सपने में आकर गुलाब जामुन खिला गए थे. मुझे उम्मीद है कि इस बार नानाजी के साथ रबड़ी आएगी. नानाजी! रबड़ी के साथ समोसे भी ले आइएगा न प्लीज़, दोनों नाना-नातिन मिल-बांटकर खा लेंगे…
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फ़ोटो: पिन्टरेस्ट