मानव सेक्शुऐलिटी और ख़ासतौर पर महिलाओं की सेक्शुऐलिटी को विकृत करने को लेकर मेडिकल साइंस का लंबा और विवादास्पद इतिहास रहा है. महिलाओं की सेक्शुअल समस्याओं को धार्मिकता और नैतिकता से भी जोड़ा जाता था. पर मॉडर्न साइंस ने हमें इन बातों में पूर्वाग्रहों से दूर रहना सिखाया. वीवॉक्स के संस्थापक संगीत सेबैस्टियन बता रहे हैं कि कैसे धीरे-धीरे निम्फ़मेनिया जैसी समस्याओं को मानसिक बीमारियों की श्रेणी से हटाया गया और यह भी कि हाइपरसेक्शुऐलिटी के बारे में एक्स्पर्ट्स का क्या कहना है.
इस बात के बारे में सोचिए. एक 24 वर्ष की मध्यमवर्गीय विवाहित महिला एक गायनाकोलॉजिस्ट के पास जा कर कहती है कि वो अपने पति के अलावा दूसरे पुरुषों के साथ ख़ुद को सेक्शुअल इंटरकोर्स में लिप्त होने की कल्पनाओं से परेशान है. और जब भी वह दूसरे पुरुषों से बात करती है, उसके दिमाग़ में सेक्स से जुड़े ख़्याल धमा-चौकड़ी करते रहते हैं.
आपको क्या लगता है? उसके डॉक्टर की सलाह क्या होगी? यदि उसके गायनाकोलॉजिस्ट डॉक्टर हॉरैशिओ आर स्टोरर होते, जो कि अमेरिकन मेडिकल असोसिएशन के वाइस प्रेसिडेंट थे, तो उन्होंने उसे निम्फ़मेनिया (महिलाओं में प्रबल कामेच्छा या सेक्शुअल लत) से ग्रस्त बता दिया होता.
उन्होंने यह सलाह भी दी होती कि उसकी क्लिटोरिस की शारीरिक जांच करनी होगी और यदि उस महिला ने अपनी इन इच्छाओं का इलाज न करवाया और इसे जारी रखा तो निश्चित रूप से वह पागलखाने पहुंच जाएगी.
इसे पढ़ रहे कई लोगों को तो यह भी लग रहा होगा कि आख़िर कोई महिला ऐसा महसूस करने पर किसी डॉक्टर के पास भला क्यों जाएगी? लेकिन बहुत पहले कई महिलाओं ने ऐसा किया और स्टोरर जैसे डॉक्टरों ने इन महिलाओं की ज़रूरत से ज़्यादा ‘‘अ-नारीपरक’’ इच्छाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दी. यही नहीं, उन लोगों ने इसके इलाज के लिए जो उपचार लिखे, उनमें क्लिटोरिस और ओवरीज़ को हटाना भी शामिल था, ताकि वे बेड रेस्ट पर ही रहें.
मानव सेक्शुऐलिटी और ख़ासतौर पर महिलाओं की सेक्शुऐलिटी को विकृत करने को लेकर मेडिकल साइंस का यूं भी लंबा और विवादास्पद इतिहास रहा है. निम्फ़मेनिया, मैस्टर्बेशन और होमोसेक्शुऐलिटी जैसे व्यवहार और इनकी ओर झुकाव, जिसे आधुनिक मेडिकल साइंस द्वारा हेल्दी और सामान्य माना जाता है, उन्हें पहले के समय में असामान्यता या किसी बीमारी के रूप में देखा जाता था और कई ‘‘सम्माननीय’’ डॉक्टर इनका इलाज करने लगते थे (कुछ तो आज भी ऐसा करते हैं!). हाल ही में 80’ के दशक में इन व्यवहारों को आधिकारिक रूप से डायग्नोस्टिक ऐंड स्टैटिस्टिक्स मैन्युअल ऑफ़ मेंटल डिस्ऑर्डर्स, से हटा दिया गया है. डायग्नोस्टिक ऐंड स्टेटिस्टिक्स मैन्युअल ऑफ़ मेंटल डिस्ऑर्डर्स पर दुनियाभर के साइकियाट्रिस्ट, जिनमें भारतीय साइकियाट्रिस्ट भी शामिल हैं, बीमारी के निदान के लिए भरोसा करते हैं.
जब बात सेक्स के विषय पर हो तो पिछले 50 वर्षों में साइंस और बेहतरीन रिसर्च के चलते ही हम शर्मिंदगी के परदे से परे इस मुद्दे पर सामाजिक, धार्मिक और नैतिक के उन पूर्वाग्रहों को समझ सके हैं, जो आम लोगों के साथ-साथ कई डॉक्टर्स में भी स्वाभाविक रूप से मौजूद थे. उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों में बीसवीं सदी तक भी निम्फ़मेनिया केवल एक चिकित्सकीय समस्या नहीं मानी जाती थी, बल्कि इसे नैतिकता से भी जोड़ा जाता था. महिलाओं की सेक्शुऐलिटी से जुड़े इलाज को क्रिश्चन धार्मिकता से जोड़ दिया जाता था, जहां ईव (हव्वा) को ऐसे प्रलोभन के रूप में देखा जाता है, जिसकी वजह से मनुष्य (पुरुष) का पतन हुआ. इसलिए क्लीनिकों में, डॉक्टर्स ने न केवल सेक्शुअल समस्याओं के लिए महिलाओं का इलाज किया, बल्कि उन व्यवहार लक्षणों की भी तलाश की, जो एक “प्रेमरहित” महिला के सांस्कृतिक आदर्श से सहमत हों.
इस सोच में बदलाव 60’ के दशक में आया जब सेक्स रिसर्चर्स विलियम मास्टर्स और वर्जिनिया ने इस बात की पुष्टि की कि महिलाओं के भीतर सेक्शुल गतिविधियों का आनंद उठाने की असीमित क्षमता होती है: और वे वास्तव में बहुत सारे ऑर्गैज़्म पा सकती हैं और वे सेक्शुअल फ्रीक नहीं हैं.
अब जबकि निम्फ़मेनिया को मेंटल डिस्ऑर्डर की श्रेणी से हटा दिया गया है, बावजूद इसके आज भी ऊपर हमने जिस 24 वर्षीय महिला का ज़िक्र किया है, बिल्कुल उसी की तरह बहुत सारी दूसरी महिलाएं भी सेक्स के बारे में अपने ‘‘तीव्र’’ विचारों और इच्छाओं से निजात पाने के लिए क्लीनिक्स का रुख़ करती हैं.
इसके बारे में और अधिक जानने के लिए हमने डॉक्टर शर्मिला मजूमदार से बात की, जो आइकन स्कूल ऑफ़ मेडिसिन, अमेरिका, से भारत की पहली बोर्ड सर्टिफ़ाइड महिला सेक्सोलॉजिस्ट हैं और साथ ही वीवॉक्स की फ़ाउंडर मेम्बर भी हैं.
डॉक्टर शर्मिला कहती हैं,‘‘महिलाओं को निम्फ़मैनिएक्स बताने और उनका डरावने तरीक़े से इलाज करने के पीछे निश्चित रूप से लैंगिक पूर्वाग्रह शामिल था. कोई भी व्यक्ति फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष यदि हाइपरसेक्शुअल है और जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाता या फिर अपने व्यवहार के चलते ख़ुद नकारात्मक, निराश महसूस नहीं करता, उसे नैतिक मूल्यांकनों से मुक्त ही रखा जाना चाहिए.
‘‘हमारा समाज आज भी महिलाओं के सेक्स के बारे में मुखर होने को हतोत्साहित करता है. आंकड़ों की बात करें तो महिलाएं किसी समस्याग्रस्त सेक्शुअल व्यवहार के लिए पुरुषों की तुलना में मदद मांगने में हिचकिचाती हैं और उनके मदद मांगने की संभावना बहुत कम होती है. यह सामाजिक मान्यताओं और सेक्शुअल मुद्दों से जुड़ी शर्मिंदगी के चलते होता है. इसके बावजूद मैं बताना चाहती हूं कि मेरी प्रैक्टिस के दौरान मैं कई ऐसी महिलाओं के संपर्क में आई हूं, जो ख़ुद को सेक्स एडिक्ट यानी सेक्स की लत का शिकार समझती हैं, क्योंकि उनकी सेक्शुअल इच्छाएं ‘‘ज़्यादा’’ हैं. एक अनुमान के मुताबिक़, दुनियाभर में ‘‘सेक्शुअल ऐडिक्शन’’ का इलाज लेने वाले लोगों में महिलाओं की संख्या आठ से बारह प्रतिशत के बीच है.’’
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