बच्चे और बड़े सभी आज के समय तनाव का शिकार होते हैं और छोटी-छोटी असफलताओं, समस्याओं के आगे भी हिम्मत हार बैठते हैं. तनाव, निराशा, हताशा और अवसाद तो जैसे हमारे रोज़मर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले शब्द बन गए हैं. भावना प्रकाश बता रही हैं कि कैसे गीता के व्यावहारिक ज्ञान को जीवन में उतार कर हम अपने सामने आई परेशानियों से केवल जूझ ही नहीं सकते, बल्कि जीवन को सुखद भी बना सकते हैं.
आज बच्चे कम उम्र में तनाव का शिकार हो रहे हैं. बच्चों द्वारा आशा के अनुरूप परीक्षाफल न आने पर आत्महत्या करने की घटनाएं आम हो गई हैं. किशोरों का प्रतियोगी परीक्षा में असफल रहने पर मनोरोग पाल लेना अभिभावकों की बड़ी समस्या बनता जा रहा है. ऐसे में यदि गीता के उपदेशों को बचपन से घर या विद्यालय में बच्चों के अंतःकरण में डाल दिया जाए तो वे विषाद के क्षणों में उनका संबल बन सकते हैं. वास्तव में गीता दर्शन नहीं व्यवहार है, मनश्चिकित्सकों के परामर्शों का संग्रह है. आइए, गीता-सार के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करें.
कर्म-फल: आज के ‘कट थ्रोट कॉम्पिटिशन’ के युग में संघर्षमय जीवन की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि हमें कठिनतम उद्देश्यों को लक्ष्य भी बनाना है, उनकी प्राप्ति के लिए प्राण-पण से संघर्ष भी करना है और प्राप्ति न होने पर स्वयं को अवसाद से भी बचाना है. इसके लिए सबसे बड़ी ज़रूरत है कि इंसान पहले अपने उद्देश्य को सुनिश्चित करे, उसके कठिन होने की चिंता अथवा विकल्पों के अवलोकन से मुक्त होकर स्वयं को एक लक्ष्य पर दृढ़ भी करे, लेकिन लक्ष्य पूरा न होने पर हिम्मत भी न हारे. वही तो श्रीकृष्ण ने कहा था कि कर्म मनुष्य के लिए अकाट्य सत्य है. परंतु अकर्म भी स्वयं एक प्रकार का कर्म ही है, मगर वो पलायन कहलाता है. और पलायनवादी लोग न तो इस लोक में शांति पाते हैं और ना ही ईश्वर उन्हें पसंद करता है. युद्ध (यहां हम इसे जीवन के संघर्ष के रूप में मान सकते हैं) अनिवार्य है. तुम इससे बच नहीं सकते. इसलिए विकल्पों को त्याग कर पूर्ण निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य के लिए तत्पर हो जाओ. युद्ध का परिणाम तुम्हारे वश में नहीं है इसलिए शेष चिंताएं ईश्वर पर छोड़ दो. वो वही करेगा जो समाज के लिए श्रेष्ठतम होगा.
अक्सर संघर्ष की स्थिति में हमारा मनोबल क्षीण भी होता है. असफलता मिलने पर हम गहन विषाद या अंतर्दंद्व की मानसिक स्थिति में होते हैं. ऐसे में हम किसके पास जाते हैं? मनश्चिकित्सक के पास. और वो हमें तनाव रहित व निर्द्वन्द्व होकर सकारात्मक सोच के साथ कर्म करने की ही तो सलाह देता है. वो कहता है कि सफलता के लिए केवल प्रतिभा और श्रम की नहीं संयोग की भी आवश्यकता होती है इसलिए किसी भी लक्ष्य को इतना महत्त्व न दो कि असफलता तुम्हें तोड़ दे. मतलब प्रतियोगिता पूर्ण समाज में कुंठा रहित सफल जीवन के लिए जो आदर्श मनःस्थिति है, वही वो निष्काम कर्म है जिसकी शिक्षा गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई थी.
आत्मा का अमरत्व: विश्व का सबसे बड़ा दुख किसी अपने को खो देना है. किसी भी परिवार के लिए या जानने वालों के सामने ऐसी घड़ी में जीवन का सबसे बड़ा धर्मसंकट उपस्थित हो जाता है, जब किसी आत्मीय को ऐसे दुख के लिए सांत्वना देनी पड़ती है. इसीलिए जब घर में कोई मृत्यु हो जाती है तो इस गहन पीड़ा पर आंशिक स्नेहलेप के लिए गीता का पाठ कराया जाता है. जीवन के अनिवार्य सत्य ‘मृत्यु’ से बड़ा विषाद कोई नहीं है. ऐसे में मृतक के परिजनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है कि कैसे उसके निकटस्थ आत्मीयों को उस विषाद से बाहर निकाल कर जीवन में आगे बढ़ने को प्रेरित किया जाए.
मनोविज्ञान के अनुसार यदि हम स्मृतियों के सुखद पहलू को जीवन का साथी बना पाएं तो आत्मीय स्वजन के बिछोह के अवसाद से निकलना सहज हो जाता है. इंसान ये मान ले कि आत्मा अमर है और मृत्यु के बाद वह उस परम तत्व में विलीन हो गई है, जो कण-कण में विद्यमान है तो थोड़ा सुकून मिलेगा. वही सुकून देने का प्रयास तो मनश्चिकित्सक ये कह कर करते हैं कि जो चला गया उसे एक सुखद एहसास बना कर मन में बसा लो. कृष्ण युद्ध की विभीषिका को जानते थे इसलिए यही उपदेश तो अर्जुन को देकर उन्होंने उसे नैतिक संबल देने का प्रयत्न किया था.
सत-रज-तम: गीता में मनुष्य के तीन गुणों का वर्णन है और श्रीकृष्ण ने उदाहरण दे कर इसे समझाया है कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यक्ति कार्य कर सकता है. हर व्यक्ति में कोई गुण अधिकता से होता है, कोई कम तथा कोई बहुत कम. जिस व्यक्ति में सतोगुण की अधिकता है, उसे सिखाने, अगर वो कोई ग़लती करता है तो उसे सुधारने और उससे कार्य करवाने के तरीक़े अलग हैं. रजोगुण की अधिकता वाले व्यक्ति के लिए अलग और तमोगुण की प्रकृति रखने वाले के लिए उपाय बिल्कुल भिन्न हो जाते हैं.
आज व्यक्तित्व विकास और व्यावसायिक दक्षता के पाठ्यक्रम इसी बात पर तो सबसे ज़्यादा ज़ोर देते हैं कि हम अपने व्यक्तित्व में पहले से स्थित प्रतिभाओं को अपनी प्रकृति के अनुसार ही तराश सकते हैं. काउंसलर्स द्वारा अपनी प्रकृति को समझकर उसके अनुसार जीविका चुनना सिखाया जाता है. पुलिस तथा अपराधियों से निपटने वाले व्यवसायों में इंसान की प्रकृति को समझना सिखाया जाता है. कंपनियों में मानव संसाधन विकास के पदों के लिए मनोविज्ञान की इतनी पढ़ाई आवश्यक मानी जाती है, ताकि वे लोग पर इंसानी प्रकृति को समझकर उसके अनुसार कर्मचारियों को समझ और समझा सकें. इंसानी प्रकृति को समझने और उसी के अनुसार उसे समझाने की सबसे ज़्यादा आवश्यकता शिक्षकों में समझी जाती है. मनश्चिकित्सक तो ख़ैर सबसे ज़्यादा इस पर ही निर्भर होते हैं.
आज विज्ञान के युग में नई पीढ़ी का एक बड़ा वर्ग ईश्वर में विश्वास नहीं रखता. तर्क का पक्षधर होने के कारण ईश्वर की अस्मिता पर संदेह करता है. उनके तर्क और विचारधाराएं अपनी जगह सही और आदरणीय हैं. लेकिन सभी लोग भावनात्मक रूप से इतने मज़बूत नहीं होते कि वे बिना किसी भावनात्मक संबल के अपना विकास कर सकें. गीता जैसा ग्रंथ उनके लिए भावनात्मक संबल है. नई पीढ़ी के तार्किक लोग मनोवैज्ञानिक की सलाह समझ कर गीता के उपदेशों को आत्मसात कर लें तो जीवन की आधे से ज़्यादा समस्याएं सुलझ जाएं. मन कुंठारहित तथा निर्द्वन्द्व हो जाए. प्राणों में सकारात्मक चिंतन तथा प्रेरक ऊर्जस्विता का संचार हो जाए.
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