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Home ज़रूर पढ़ें

गीता को हम जीवन में उतार सकते हैं, क्योंकि यह दर्शन नहीं व्यवहार है

यहां जानिए कैसे गीता के उपदेश को आत्मसात किया जा सकता है

भावना प्रकाश by भावना प्रकाश
December 9, 2022
in ज़रूर पढ़ें, धर्म, लाइफ़स्टाइल
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shrimad-bhagwad-gita,
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बच्चे और बड़े सभी आज के समय तनाव का शिकार होते हैं और छोटी-छोटी असफलताओं, समस्याओं के आगे भी हिम्मत हार बैठते हैं. तनाव, निराशा, हताशा और अवसाद तो जैसे हमारे रोज़मर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले शब्द बन गए हैं. भावना प्रकाश बता रही हैं कि कैसे गीता के व्यावहारिक ज्ञान को जीवन में उतार कर हम अपने सामने आई परेशानियों से केवल जूझ ही नहीं सकते, बल्कि जीवन को सुखद भी बना सकते हैं.

 

आज बच्चे कम उम्र में तनाव का शिकार हो रहे हैं. बच्चों द्वारा आशा के अनुरूप परीक्षाफल न आने पर आत्महत्या करने की घटनाएं आम हो गई हैं. किशोरों का प्रतियोगी परीक्षा में असफल रहने पर मनोरोग पाल लेना अभिभावकों की बड़ी समस्या बनता जा रहा है. ऐसे में यदि गीता के उपदेशों को बचपन से घर या विद्यालय में बच्चों के अंतःकरण में डाल दिया जाए तो वे विषाद के क्षणों में उनका संबल बन सकते हैं. वास्तव में गीता दर्शन नहीं व्यवहार है, मनश्चिकित्सकों के परामर्शों का संग्रह है. आइए, गीता-सार के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करें.

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अक्सर संघर्ष की स्थिति में हमारा मनोबल क्षीण भी होता है. असफलता मिलने पर हम गहन विषाद या अंतर्दंद्व की मानसिक स्थिति में होते हैं. ऐसे में हम किसके पास जाते हैं? मनश्चिकित्सक के पास. और वो हमें तनाव रहित व निर्द्वन्द्व होकर सकारात्मक सोच के साथ कर्म करने की ही तो सलाह देता है. वो कहता है कि सफलता के लिए केवल प्रतिभा और श्रम की नहीं संयोग की भी आवश्यकता होती है इसलिए किसी भी लक्ष्य को इतना महत्त्व न दो कि असफलता तुम्हें तोड़ दे. मतलब प्रतियोगिता पूर्ण समाज में कुंठा रहित सफल जीवन के लिए जो आदर्श मनःस्थिति है, वही वो निष्काम कर्म है जिसकी शिक्षा गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई थी.

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आत्मा का अमरत्व: विश्व का सबसे बड़ा दुख किसी अपने को खो देना है. किसी भी परिवार के लिए या जानने वालों के सामने ऐसी घड़ी में जीवन का सबसे बड़ा धर्मसंकट उपस्थित हो जाता है, जब किसी आत्मीय को ऐसे दुख के लिए सांत्वना देनी पड़ती है. इसीलिए जब घर में कोई मृत्यु हो जाती है तो इस गहन पीड़ा पर आंशिक स्नेहलेप के लिए गीता का पाठ कराया जाता है. जीवन के अनिवार्य सत्य ‘मृत्यु’ से बड़ा विषाद कोई नहीं है. ऐसे में मृतक के परिजनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है कि कैसे उसके निकटस्थ आत्मीयों को उस विषाद से बाहर निकाल कर जीवन में आगे बढ़ने को प्रेरित किया जाए.
मनोविज्ञान के अनुसार यदि हम स्मृतियों के सुखद पहलू को जीवन का साथी बना पाएं तो आत्मीय स्वजन के बिछोह के अवसाद से निकलना सहज हो जाता है. इंसान ये मान ले कि आत्मा अमर है और मृत्यु के बाद वह उस परम तत्व में विलीन हो गई है, जो कण-कण में विद्यमान है तो थोड़ा सुकून मिलेगा. वही सुकून देने का प्रयास तो मनश्चिकित्सक ये कह कर करते हैं कि जो चला गया उसे एक सुखद एहसास बना कर मन में बसा लो. कृष्ण युद्ध की विभीषिका को जानते थे इसलिए यही उपदेश तो अर्जुन को देकर उन्होंने उसे नैतिक संबल देने का प्रयत्न किया था.

सत-रज-तम: गीता में मनुष्य के तीन गुणों का वर्णन है और श्रीकृष्ण ने उदाहरण दे कर इसे समझाया है कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यक्ति कार्य कर सकता है. हर व्यक्ति में कोई गुण अधिकता से होता है, कोई कम तथा कोई बहुत कम. जिस व्यक्ति में सतोगुण की अधिकता है, उसे सिखाने, अगर वो कोई ग़लती करता है तो उसे सुधारने और उससे कार्य करवाने के तरीक़े अलग हैं. रजोगुण की अधिकता वाले व्यक्ति के लिए अलग और तमोगुण की प्रकृति रखने वाले के लिए उपाय बिल्कुल भिन्न हो जाते हैं.
आज व्यक्तित्व विकास और व्यावसायिक दक्षता के पाठ्यक्रम इसी बात पर तो सबसे ज़्यादा ज़ोर देते हैं कि हम अपने व्यक्तित्व में पहले से स्थित प्रतिभाओं को अपनी प्रकृति के अनुसार ही तराश सकते हैं. काउंसलर्स द्वारा अपनी प्रकृति को समझकर उसके अनुसार जीविका चुनना सिखाया जाता है. पुलिस तथा अपराधियों से निपटने वाले व्यवसायों में इंसान की प्रकृति को समझना सिखाया जाता है. कंपनियों में मानव संसाधन विकास के पदों के लिए मनोविज्ञान की इतनी पढ़ाई आवश्यक मानी जाती है, ताकि वे लोग पर इंसानी प्रकृति को समझकर उसके अनुसार कर्मचारियों को समझ और समझा सकें. इंसानी प्रकृति को समझने और उसी के अनुसार उसे समझाने की सबसे ज़्यादा आवश्यकता शिक्षकों में समझी जाती है. मनश्चिकित्सक तो ख़ैर सबसे ज़्यादा इस पर ही निर्भर होते हैं.
आज विज्ञान के युग में नई पीढ़ी का एक बड़ा वर्ग ईश्वर में विश्वास नहीं रखता. तर्क का पक्षधर होने के कारण ईश्वर की अस्मिता पर संदेह करता है. उनके तर्क और विचारधाराएं अपनी जगह सही और आदरणीय हैं. लेकिन सभी लोग भावनात्मक रूप से इतने मज़बूत नहीं होते कि वे बिना किसी भावनात्मक संबल के अपना विकास कर सकें. गीता जैसा ग्रंथ उनके लिए भावनात्मक संबल है. नई पीढ़ी के तार्किक लोग मनोवैज्ञानिक की सलाह समझ कर गीता के उपदेशों को आत्मसात कर लें तो जीवन की आधे से ज़्यादा समस्याएं सुलझ जाएं. मन कुंठारहित तथा निर्द्वन्द्व हो जाए. प्राणों में सकारात्मक चिंतन तथा प्रेरक ऊर्जस्विता का संचार हो जाए.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

 

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भावना प्रकाश

भावना प्रकाश

भावना, हिंदी साहित्य में पोस्ट ग्रैजुएट हैं. उन्होंने 10 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया है. उन्हें बचपन से ही लेखन, थिएटर और नृत्य का शौक़ रहा है. उन्होंने कई नृत्यनाटिकाओं, नुक्कड़ नाटकों और नाटकों में न सिर्फ़ ख़ुद भाग लिया है, बल्कि अध्यापन के दौरान बच्चों को भी इनमें शामिल किया, प्रोत्साहित किया. उनकी कहानियां और आलेख नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में न सिर्फ़ प्रकाशित, बल्कि पुरस्कृत भी होते रहे हैं. लेखन और शिक्षा दोनों ही क्षेत्रों में प्राप्त कई पुरस्कारों में उनके दिल क़रीब है शिक्षा के क्षेत्र में नवीन प्रयोगों को लागू करने पर छात्रों में आए उल्लेखनीय सकारात्मक बदलावों के लिए मिला पुरस्कार. फ़िलहाल वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं और उन्होंने बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए अपना यूट्यूब चैनल भी बनाया है.

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