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हीरो, विलन या विलन का पंटर अपनी कहानी में क्या हैं आप?

आंक लें, ताकि जब आंख खुले तो पछतावा न हो

शिल्पा शर्मा by शिल्पा शर्मा
August 9, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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हीरो, विलन या विलन का पंटर अपनी कहानी में क्या हैं आप?
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एक बार किसी एकांत में जाकर, आंखें बंद कर के ख़ुद से पूछिए आप जिस राह चल निकले हैं वह हीरो बनने की राह है या विलन या फिर विलन का पंटर बनने की? आपको सही जवाब मिल जाएगा, क्योंकि हमारा अंतर्मन हमें हमेशा सही राह दिखाता है. जो व्यक्ति अपने अपने काम को सही तरीक़े से करता है वही देश का सच्चा हीरो होता है, न कि उन्माद फैलाने वाला. आपके उस धर्म को, जो आपके जन्म के हज़ारों साल पहले से बचा हुआ है और आप रहें या न रहें यह आगे भी बचा रहेगा, उसके नाम पर आपको आपस में लड़ाने वालों का मोहरा बनकर विलन के पंटर न बनें.

जब हमारे देश को कम लोग पढ़े-लिखे हुआ करते थे, तब से भी क़िस्सागोई के ज़रिए हम सब तक कई तरह की कहानियां पहुंच ही जाती थीं. अब जबकि हमारे देश में शिक्षा का स्तर बढ़ा है, कहानियों की पहुंच और गहरी हुई है. फिर बात दादी-नानी की कहानियों की यानी बेड टाइम स्टोरीज़ की हो या किताबों की हो या फिर रील्स के ज़रिए. और टीवी सीरीयल्स, वेबसीरीज़ और फ़िल्में तो कहानियों की आमद का बड़ा ज़रिया हैं ही.

अच्छा, अधिकतर कहानियों का आप विश्लेषण करें तो पाएंगे कि कुछ उसमें एक हीरो होता है, कुछ उसके अपने लोग और समर्थक होते हैं. वहीं कहानी में एक विलन होता है और कुछ लोग उसके समर्थक होते हैं. अमूमन हीरो के समर्थक भले लोग और विलन के समर्थक बुरे लोग होते हैं. हम सभी जो लोग 70’ के दशक से लेकर वर्ष 2000 या उसके बाद की भी कुछ फ़िल्मों को देखकर बड़े हुए हैं या फिर वे युवा जिन्होंने ये फ़िल्में देखी हैं, वे हीरो और विलन के बेसिक, मेलो ड्रमेटिक कंसेप्ट से परिचित होंगे. वर्ष 2000 के बाद की फ़िल्मों की कहानियों की यदि चर्चा करें तो ज़्यादातर हीरो और विलन के बीच का यह फ़र्क़ बड़ा हल्का या मामूली सा रह गया. कई, बल्कि अधिकतर फ़िल्मों में असल ज़िंदगी के विलन को हीरो बनाकर पेश करने और उसका महिमामंडन करने की भी परंपरा चल पड़ी, जो कई बार ग़लत भी नहीं होती, क्योंकि वह हमें कहानी को दूसरे नज़रिए से देखना सिखाती है.

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अपनी बात मैं तब की फ़िल्मों के हवाले से अपनी बात कहना चाहूंगी, जब कहानियों में हीरो और विलन का या यूं कहें कि अच्छाई और बुराई अंतर बड़ा साफ़ दिखाया जाता था. तब लोग (दर्शक/पाठक) विलन या उसके साथी होने की बजाय, हीरो और उसके साथी की ओर रहना पसंद करते थे. यदि आपने उन फ़िल्मों में विलन के खेमे के पंटरों को देखा हो, जो अपने आका के कहने पर, बिना अक्ल लगाए किसी से भी मार-पीट को तैयार हो जाते थे और ख़ुद भी चोटिल हो जाते थे. उनका कोई पूछने वाला नहीं होता था. अगर मान लो बच-बचा के वे अपने बॉस तक यह सूचना देने पहुंच भी जाते थे तो उनका बॉस उन्हें मार देता था या मरवा देता था.

यूं तो कहानियां सुनने के बाद हर कोई अपने आपको उस कहानी के हीरो की जगह रखकर देखता है, उसका हीरो समझता है या वैसा बनना चाहता है. लेकिन फिर भी भला क्यों कई लोग विलन के पंटर बनकर ही रह जाना चाहते हैं? नहीं समझे आप? मेरा इशारा उन छुटभैया मोहल्ला नेताओं से है, जो चंद पैसों और अपने इलाक़े में हल्की-सी धौंस जमाने का रुतबा पाने के लिए स्थानीय स्तर के छोटे-मोटे दंगा फैलाने, बलवा करने वाले ग्रुप्स का हिस्सा बन जाते हैं. उन्हें लगता है या फिर उनके मन में यह बिठा दिया जाता है कि ऐसा करके वे अपने धर्म को बचा रहे हैं और इसे वे हीरो होना समझ लेते हैं. लेकिन जब उपद्रव के वीडियोज़ में उनके फ़ुटेज सामने आते हैं तो उन्हें हवालात में जाना पड़ता है और उनका परिवार उन्हें छुड़ाने की क़वायद में परेशान होता रहता है. तब इन ग्रुप्स के बड़े नेता इन्हें बचाने तक के प्रयास नहीं करते. तो विलन के खेमे में क्षणिक हीरो बनने का क्या फ़ायदा होता है इन्हें?

कई लोग जो ग्रुप्स के बाहर से धर्म के नाम पर इनका ऊपरी समर्थन करते हैं, वक़्त पड़ने पर वो आपके किसी काम आना तो दूर, उनसे बचना शुरू कर देते हैं. एक बार यदि ये लोग सहज रूप से सोचें कि जो धर्म (सनातन हो या मुस्लिम) हज़ारों या सैकड़ों साल से चला आ रहा है, जब आप नहीं थे तब भी था और आपके बाद भी रहेगा ही, उसे बचाने की आख़िर क्या ज़रूरत है? वह तो बचा ही हुआ है, बचा ही रहेगा. बस, आप अमन-चैन से रहो.

हम सभी जानते हैं कि इन दिनों सोशल मीडिया ट्रोल आर्मी में युवाओं को महज़ कुछ पैसों के लिए भर्ती किया जा रहा है. इन युवाओं को रोज़गार की ज़रूरत है और देश में रोज़गार के अवसर आवश्यकता से बहुत कम हैं (और मौजूदा सरकार चाहती भी नहीं है कि वह रोज़गार पैदा करे, क्योंकि वह सत्ता पाने के लिए, वोटों के लिए अपनी जनता का धार्मिक ध्रुवीकरण चाहती है) तो वे इन छोटे-मोटे ग्रुप्स या बड़ी पार्टियों के मीडिया सेल एजेंट के रूप में काम करने लगते हैं. पर क्या इस तरह का उन्माद फैलाना या उसका हिस्सा होना हीरो होना है? या फिर वह किसी विलन के पंटर की तरह गुमनाम, दुत्कारे जाने वाले जीवन की ओर ले जाता है? यह सोचकर देखिए.

और एक बात ये कि विलन या विलन के पंटर बनने से कहीं आसान है हीरो बनना. किसी सच्चे हीरो को किसी दूसरे व्यक्ति से इस बात की आस नहीं होती कि दूसरे लोग उसे हीरो मानें. दरअसल, जब हम ख़ुद को हीरो मानते हैं, तभी हम सच्चे हीरो होते हैं और तभी हम सबसे ज़्यादा सशक्त होते हैं. और ख़ुद को हीरो मानना आसान नहीं होता. आपका कॉन्शस आपको ख़ुद को तब तक हीरो मानने देता, जब तक कि उसे भरोसा न हो जाए कि आप जहां हैं, वहां अपना बेहतरीन योगदान इस तरह दे रहे हैं, जिससे दूसरे लोगों का सचमुच भला हो रहा है. आज की बेरोज़गार युवा पीढ़ी, जो सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले ग्रुप्स से जुड़ रही है, उसके सदस्यों को मैं बताना चाहती हूं कि एक सामान्य नागरिक बनकर, जो अपना काम सही तरीक़े से करे आप अपने देश के सबसे बड़े हीरो बन सकते हैं.

जो व्यक्ति अपने देश को आगे ले जाने के लिए अपने काम को, भले ही वह काम कुछ भी हो, आपकी नौकरी, बिज़नेस, दुकान, ठेला वगैरह, सही तरीक़े से करता है वही इस देश का सच्चा हीरो होता है, न कि उन्माद फैलाने वाला. एक बार किसी एकांत में जाकर, आंखें बंद कर के ख़ुद से पूछिए आप जिस राह चल निकले हैं वह हीरो बनने की राह है या विलन या फिर विलन का पंटर बनने की? आपको सही जवाब मिल जाएगा, क्योंकि हमारा अंतर्मन हमें हमेशा सही राह दिखाता है. और यदि आपका मन कहता है कि आप विलन या उसके पंटर वाली राह पर चल निकले हैं तो याद रखिए- आप जहां भी हैं, वहीं से एक नई हीरोइक शुरुआत की जा सकती है और आप चाहेंगे तो ऐसा करने का रास्ता आपको मिल ही जाएगा.

फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट

 

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शिल्पा शर्मा

शिल्पा शर्मा

पत्रकारिता का लंबा, सघन अनुभव, जिसमें से अधिकांशत: महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कामकाज. उनके खाते में कविताओं से जुड़े पुरस्कार और कहानियों से जुड़ी पहचान भी शामिल है. ओए अफ़लातून की नींव का रखा जाना उनके विज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएशन, पत्रकारिता के अनुभव, दोस्तों के साथ और संवेदनशील मन का अमैल्गमेशन है.

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