कोरोना से युद्ध को जीतने के लिए हम सभी संभावित विकल्पों को आज़मा रहे हैं. लॉकडाउन, वैक्सिनेशन, पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं बेशक अहम हैं. जाने-माने आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ अबरार मुल्तानी की मानें तो कोरोना से छिड़ी मानवता की इस जंग में मृतकों की ससम्मान अंत्येष्टि भी बेहद ज़रूरी है.
मरने वालों को यह बात यक़ीनन सांत्वना देती है कि उनके अंतिम संस्कार में हज़ारों की भीड़ जमा होगी. यह एक अनोखा मनोविज्ञान है. मरने वाले के परिजनों को भी यह बात कुछ शांति पहुंचाती है कि उनके अपने की अंतिम यात्रा में हज़ारों की भीड़ थी. उनके दुःख के हज़ारों साझा हैं. उन्हें यह बात वाक़ई शांति देती है. अंतिम यात्रा में हज़ारों या लाखों की संख्या परिजनों को दुःख की जगह गर्व का अनुभव करवाती है. मैं कई ऐसे लोगों से मिला हूं जिन्होंने मुझे अपने परिजनों की अंतिम यात्रा के बारे में बताया कि,‘उनके कितने चाहने वाले थे, देखो ना हज़ारों लोग उनकी अर्थी को कंधा देने के लिए आए थे.’ यह कहते हुए उनकी आंखों में अजब सी चमक होती थी. मैं देखता था कि उन्हें दुःख तो था लेकिन अपने परिजन पर गर्व भी था. गर्व का यह अनुभव उनके दुःख को बहुत कम कर देता था.
लेकिन दुनिया ने 180 डिग्री का मोड़ लिया. कोरोना आया. एक ऐसा वायरस जो बेहद संक्रामक है. इससे डरे हुए लोग और सरकारें संक्रमण से बचने के लिए लोगों को इकट्ठा करने से रोक रहे हैं. इसमें अंतिम यात्रा में लोगों के शामिल होने पर भी प्रतिबंध लगाया. अब केवल गिनती के कुछ लोग ही शामिल हो सकते हैं किसी भी व्यक्ति की अंतिम यात्रा में. चाहे अमीर हो या ग़रीब, चाहे महान हो या आम, चाहे नेता हो या कार्यकर्ता, चाहे आम हो या ख़ास… सबकी अंतिम यात्रा में बस कुछ लोग! यह नियम सबको पालन करना है.
लोगों में कोरोना से बेइंतहा डर की एक बड़ी वजह यह भी है कि यदि उन्हें दुर्भाग्य से इसका संक्रमण हो गया और मृत्यु हो गई तो उनका अंतिम संस्कार कैसे होगा? क्या उन्हें लावारिस पटक दिया जाएगा? क्या उनके शव से सब डरेंगे और दूर से ही क़ब्रों में लुढ़का देंगे? उनकी चिताओं को अग्नि कैसे दी जाएगी? उनके परिजन लेने आएंगे भी कि नहीं उनकी लाश को? उनके अच्छे कर्मों और संबंधों का क्या कोई याद रखेगा जब मेरी अंतिम यात्रा में ही लोग नहीं आएंगे तो? क्या मैं बहुत जल्दी भुला दिया जाऊंगा? क्या ये तय की गई संख्या के लोग भी इकट्ठा हो पाएंगे मेरी अंतिम यात्रा में? इस डर को मीडिया में आ रही ख़बरें हवा दे रही हैं कि नदियों में संक्रमितों के शव लावारिस फेंक दिए गए, या उनके लिए लकड़ियों का इंतज़ाम ही नहीं हो पाया, उनकी देह को लेने कोई परिजन नहीं आया, लाशों को जेसीबी से क़ब्रें खोदकर एक साथ दफ़ना दिया गया… आदि, आदि. ऐसी ख़बरें लोगों को दहशत में डालती हैं, इसलिए वे ख़ुद को संक्रमित घोषित नहीं करवाना चाहते. इसमें एक पेच और है और वह यह कि यदि गांव या मोहल्ले में एक व्यक्ति संक्रमण के लक्षण देखकर कोविड टेस्ट करवाता है और उसकी दुर्भाग्य से मृत्यु हो जाती है. उसका अंतिम संस्कार कोरोना प्रोटोकॉल के तहत होता है लेकिन वहीं दूसरे 10 व्यक्ति इसी रोग के लक्षणों के साथ मर जाते हैं लेकिन वे टेस्ट नहीं करवाते और उन्हें सामान्य तरीक़े और सम्मान के साथ अंत्येष्टि या कफ़न दफ़न कर दिया जाता है. अब आप मुझे बताइए गांव या मोहल्ले वालों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? जो बेचारा जागरूक था, सिस्टम का सहयोग कर रहा था उसकी ऐसी अंतिम यात्रा और जो सहयोग नहीं कर रहे उनकी अच्छी और ससम्मान अंतिम यात्रा! तो शासन क्या करे? शासन इस महामारी के काल में सबके अंतिम संस्कार (चाहे मृतक की मृत्यु का जो भी कारण हो) कोविड प्रोटोकॉल के तहत ही करवाए लेकिन सम्मान तथा उनके धार्मिक रीति रिवाजों के अनुसार करवाए. सबका अंतिम संस्कार जब एक समान होगा तो लोग सहयोग करने लगेंगे. इस मनोवैज्ञानिक पहलू को नज़रअंदाज नही किया जा सकता क्योंकि हम मनुष्य मन से ही संचालित होते हैं और मन को समझे बगैर हम न तो दूसरे मनुष्यों को नियंत्रित कर सकते हैं और न ही उनसे सहयोग पा सकते हैं.
यह अकाट्य सत्य है कि दुनिया में अब भी अधिकांश लोग मृत्यु के बाद होने वाली बातों से डरते हैं. उनकी मृत देह के साथ क्या सुलूक किया जाएगा इसकी उन्हें हमेशा फ़िक्र रहती है. मृत देह के साथ हुए बुरे बर्ताव ने इतिहास में कई युद्धों को जन्म दिया है और मृत देह को सम्मान देकर कई युद्ध ख़त्म हुए हैं. लोगों का यह डर ख़त्म कीजिए यह कोरोना से युद्ध जीतने में मदद करेगा वरना इसे जीतना मुश्क़िल है. प्रिय शासकों और प्रशासकों कृपया सबके साथ एक जैसा किंतु सम्मान वाला व्यवहार कीजिए.
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