क्राइम फ्री सोसायटी के लिए अक्सर दलील दी जाती है कि सख़्त नियम होने ज़रूरी हैं? आपको क्या लगता है सख़्त नियम-क़ानून एक बेहतर और अपराध मुक्त समाज की गैरेंटी दे सकते हैं? डॉ अबरार मुल्तानी का मानना है समाज अपराध मुक्त तभी हो सकेगा, एक सभ्य समाज तभी कहला सकेगा, जब नियम और क़ानून कैसे भी हों, लोगों को यह तसल्ली हो कि उन्हें न्याय ज़रूरी मिलेगा. आइए, उन्हीं से जानें, न्याय, अन्याय और सभ्य समाज की साइकोलॉजी.
न्याय, अन्याय और समाज
न्याय और अन्याय दोनों ही लोगों के भावी व्यवहार को प्रभावित करते हैं. लेकिन, इन दोनों का प्रभाव लोगों के व्यवहार पर एकदम विपरीत होगा. समाज का निर्माण मूलतः हमारे द्वारा किए गए न्याय और अन्याय पर ही निर्भर है. एक सभ्य समाज न्याय आधारित होता है और एक असभ्य समाज के लिए अन्याय ही अन्याय की ज़रूरत होती है.
दार्शनिक जॉन रॉल्स ने न्याय पूर्ण समाज बनाने के लिए एक कल्पना की थी. उन्होंने कल्पना की,‘एक सम्मानीय काउंसिल का गठन किया जाए. जिसका काम भविष्य के समाज के लिए क़ानून बनाना हो. वे इस बात के लिए बाध्य हो कि हर छोटे से छोटे विवरण पर पूरी तरह विचार करेंगे. और जैसे ही वे अंतिम सहमति पर पहुंचेंगे, हर एक सदस्य जैसे ही क़ानूनों पर दस्तखत कर देगा, वे सब मर जाएंगे. किंतु वे तुरंत ही उस समाज में फिर जी उठेंगे जिसके लिए उन्होंने क़ानून बनाए थे. ख़ास बात यह होगी कि उन्हें नहीं मालूम होगा कि समाज में वे क्या होंगे. स्त्री, पुरुष, बच्चा, शासक या फिर एक आमजन. ऐसे लोगों द्वारा बनाया गया क़ानून एक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करेगा.’
क्या धर्मग्रंथ न्याय की गैरेंटी दे सकते हैं?
दुनिया के कई लोगों का मानना है कि न्यायपूर्ण समाज की स्थापना ईश्वर के दिए गए क़ानून या उसकी किताब के अनुसार चलने पर ही संभव है. धर्म ही लोगों के बीच न्याय कर सकता है. लेकिन यह सब संभावनाएं तभी हैं जब मनुष्यों का समाज न्याय करना चाहे. अगर वह अन्याय पर ही उतारू है तो फिर अच्छे से अच्छा क़ानून या फिर दिव्य पुस्तकों में लिखे क़ानून भी न्याय नहीं कर सकते. न्याय के साथ समाज में शांति आती है और अन्याय के साथ अशांति. जो समाज चाहते हैं कि उनमें शांति बनी रहे उन्हें न्याय का दामन थाम लेना चाहिए और अन्याय से तोबा कर लेनी चाहिए. असभ्य या बर्बर समाज न्याय को कुचलकर अन्याय के दम पर आगे बढ़ना चाहते हैं. लोगों पर शासन करने के लिए उन्हें संगठित करने के साथ-साथ अनुशासित भी करना होता है. यदि संगठित लोग अनुशासित नहीं किए गए तो फिर वे भस्मासुर बन जाते हैं और अपने ही समाज को भस्म कर देते हैं. लोगों को अनुशासित न्याय की अवधारणा बनाती है. अगर संगठित लोगों के बीच यह धारणा बन जाए कि,‘न्याय होने का कोई भरोसा नहीं है’ तो वे स्वयं ही न्यायाधीश बन बैठते हैं. फिर शुरू हो जाता है बरबरियत का एक डरावना और विभत्स दौर. अनंत उदाहरण इतिहास की पोथियों में भरे पड़े हैं.
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