पिछले कुछ सालों से पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की मांग होती रही है. लोकसभा चुनावों के साथ ही राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव और स्थानीय निकाय चुनाव कराने से समय, पैसे और विभिन्न संसाधनों के बचत की बात की जाती है. यह भी तर्क दिया जाता है कि चुनावों के चलते बार-बार लागू होनेवाली आचार संहिता से विकास रुक जाता है, एक साथ चुनाव हो जाने से विकास को गति मिलेगी. पर यह एक रद्दी आइडिया साबित हो सकता है, इसे पिछले एक साल के चार घटनाक्रमों से समझने की कोशिश करते हैं.
#1 किसान आंदोलन
सितंबर 2020 में संसद में सरकार तीन कृषि क़ानून पास करती है. इन तीनों क़ानूनों को क्रांतिकारी बताते हुए कहती है कि इससे भारत में किसानी और किसान दोनों की ही स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन होगा. पर जल्द ही इस क़ानून के ख़िलाफ़ देशभर के किसानों में इसके कॉरपोरेट समर्थन क़ानून होने की सुगबुगहाट होने लगती है. किसान इन क़ानूनों का विरोध करते हैं. इन्हें तत्काल वापस लेने की मांग करते हैं. सरकार अपने स्तर पर किसानों को समझाने की कोशिश करती है, सरकार समर्थित मीडिया किसानों को इन क़ानूनों के फ़ायदे बताती है, पर बात नहीं बनती. सितंबर 2020 से ही देश के अलग-अलग हिस्सों में विरोध प्रदर्शन तेज़ होते हैं. क़ानून का विरोध कर रहे किसान संगठनों के प्रतिनिधियों और सरकार के मंत्रियों तथा अधिकारियों के बीच 14 अक्टूबर 2020 से 22 जनवरी 2021 के बीच 11 दौर की वार्ताएं होती हैं, पर किसान इन क़ानूनों को काला क़ानून बताते हुए उन्हें किसी भी क़ीमत पर वापस लेने की बात करते हैं. सरकार इन्हें क्रांतिकारी बताते हुए इन्हें लागू करने पर अड़ी रहती है. बातचीत का नतीजा तो नहीं निकलता, पर उस दरम्यान सरकार के कई मंत्री, सांसद, छोटे-बड़े कई नेता, सरकार समर्थक मीडिया इस आंदोलन को बदनाम करने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं. दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन के लिए डटे किसानों को पहले तो नज़रअंदाज़ करते हैं, फिर विरोध को केवल पंजाब और हरियाणा के समृद्ध किसानों का विरोध बताते हैं, फिर उन्हें खालिस्तानी आतंकवादी कहते हैं, कई नेता और मंत्री तो इन किसानों को किसान तक मानने से इनकार करते हैं.
छल-बल हर तरह से आंदोलन को ख़त्म न कर पाने के बाद सरकार विरोध कर रहे इन किसानों को उनके हाल पर छोड़ देती है. दोबारा इन्हें नज़रअंदाज़ करने लगती है. यह आंदोलन अभी भी चल रहा है, मेनस्ट्रीम मीडिया के दर्शकों को इसकी ख़बर लगती है, जब उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों को केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र ‘टेनी’ का बेटा आशीष मिश्र कथित रूप से अपनी महिंद्रा थार से कुचल देता है. इस मामले में पुलिस कार्रवाई में देरी और राज्य सरकार को कोर्ट की फटकार जैसी बातें आप जानते ही होंगे. लखीमपुर खीरी की घटना ने देश को यह संदेश दिया कि किसानों की मांगों के आगे सरकार अब भी अड़ी हुई है. लगातार दूसरी बार बहुमत से बनी मोदी सरकार एक अड़ियल सरकार है. सरकार की किसान विरोधी छवि पुख्ता होने लगती है.
#2 बंगाल और तमिलनाडु में चुनाव
देश 2020 से ही कोरोना से जंग लड़ रहा है. मार्च 2020 में केंद्र सरकार ने देशव्यापी लॉकडाउन लगाकर 21 दिनों में कोरोना के ख़ात्मा की बात की. प्रधानमंत्री मोदी के आग्रह पर एक दिवसीय जनता कर्फ्यू लगाया गया. लोगों ने उत्साह के साथ सरकार का साथ दिया, तालियां और थालियां पीटी गईं. बकायदा ऐसा करने के वैज्ञानिक कारण बताए गए. फिर 21 दिनों का लॉकडाउन लगाया गया. बीच दोबारा वैज्ञानिक कारणों के साथ दिये जलाए गए. पर कोरोना की रफ़्तार कम होने के बजाय बढ़ती गई. उसके बाद कई बार लॉकडाउन की मियाद बढ़ाई गई. अक्टूबर-नवंबर में कोरोना की रफ़्तार कम हुई, सिचुएशन कंट्रोल में आया. जहां कोरोना के चलते देश में आर्थिक गतिविधियां बंद थीं, वहीं दिसंबर में बिहार के विधानसभा चुनाव कराए गए. कुछ हलकों में इसका विरोध हुआ, पर कोरोना कम था तो विरोध के स्वर दब गए. वहीं सरकार ने कोरोना पर विजय के दावे किए. प्रधानमंत्री को उनके कुशल नेतृत्व के लिए उनकी पार्टी के लोगों और समर्थकों ने जमकर धन्यवाद अर्पित किया.
देश में क्या खुला, क्या बंद रहा, इसपर देश के लोगों को लगातार कन्फ़्यूज़न बना रहा, पर प्रधानमंत्री की पार्टी का अगला लक्ष्य था अप्रैल 2021 में होनेवाला बंगाल चुनाव, जहां पहली बार बीजेपी ख़ुद को मज़बूत पिच पर पा रही थी. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि पहली बार बंगाल में बीजेपी की सरकार बनेगी. पर मार्च 2020 में कोरोना की दूसरी लहर की आशंका व्यक्त की जाने लगी. देश के अलग-अलग राज्य अपने-अपने स्तर पर लॉकडाउन घोषित करने लगे. ऐसे में यह कहा जाने लगा कि पश्चिम बंगाल, असम, केरल और तमिलनाडु जैसी घनी जनसंख्या वाले राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनावों को टाल देना चाहिए. पर पश्चिम बंगाल में पहली बार सरकार बनाने को लेकर उत्साहित बीजेपी ने अपनी ओर से चुनाव टालने की कोई मांग नहीं की. जब अप्रैल में देश कोरोना की दूसरी लहर के शिकंजे में फंसने जा रहा था, तब ऐसा लग रहा था कि पश्चिम बंगाल भारत का हिस्सा ही नहीं है. वहां बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां हो रही थीं. ख़ुद प्रधानमंत्री रैलियां कर रहे थे. टीवी पर सोशल डिस्टेंसिंग का मंत्र देनेवाले प्रधानमंत्री चुनावी रैलियों में लाखों की भीड़ देखकर गद्गद हो रहे थे.
पूरी ताक़त लगाने के बाद भी दो मई को घोषित चुनाव नतीजों में बीजेपी बंगाल में सौ का आंकड़ा तक पार नहीं कर पाई.
वहीं मई में भारत ने कोरोना की सूनामी का सामना किया. हर राज्य से ऑक्सीजन की कमी के चलते मची हाहाकार की ख़बरें पूरे देश ने देखी. जो टीवी नहीं देखते उन्होंने भी अपने अगल-बगल तबाही का मंजर देखा. लाशें जलाने के लिए शवदाह गृहों में लगी कतारें और गंगा में तैरती लाशें दूसरी लहर की भयावहता बयां कर रही थीं. प्रधानमंत्री पूरे सीने से ग़ायब थे. ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे देश में पहली बार प्रधानमंत्री से ज़्यादा मीडिया माइलेज सोनू सूद नामक एक अभिनेता को मिल रहा था. पीएम केयर में आए पैसों से ख़रीदे वेंटिलेटर्स में गड़बड़ियों की ख़बरें आ रही थीं. देश की टीकाकरण नीति पर सवाल उठने लगे थे. कोरोना के ख़तरे के बावजूद चुनाव कराने को लेकर हाईकोर्ट तक चुनाव आयोग को फटकार लगा रहे थे. जैसे ही मई के बाद कोरोना की रफ़्तार थमी, सरकार इसका श्रेय लेने और मीडिया प्रधानमंत्री मोदी को इसका हीरो बताने में लग गई. मोदी देश में सरकार के कुप्रबंधन और नाकामी के चलते हुईं लाखों मौतों से कन्नी काटते हुए इमोशनल एजेंडे पर काम करते हुए राम मंदिर का शिलान्यास करते दिखे. कई संगठनों और विपक्षी दलों के विरोध के बावूजद नए और विशाल संसद भवन का काम प्रगति पर रहा. पीएम केयर को ऑडिट के दायरे में न लाने पर सरकार अड़ी रही. आगे चलकर तो सरकार ने राज्यों की रिपोर्ट का हवाला देते हुए देश में ऑक्सीजन की कमी से एक भी मौत होने से इनकार कर दिया. गंगा में तैरती लाशों और शवदाव गृहों की भीड़ को विदेशी मीडिया द्वारा देश को बदनाम करने की साज़िश करार दिया. यह जनता के साथ सीधे-सीधे धोखा था. उस जनता के साथ, जिसने आप पर विश्वास किया था.
#3 पेट्रोल डीजल की कीमतें और महंगाई
प्रचंड बहुमत की इस सरकार के अब तक के कार्यकाल में बेरोज़गारी अपने चरम पर पहुंच गई है. नवंबर 2016 की नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा था, उससे देश उबर पाता कि कन्फ़्यूज़िंग जीएसटी ने रिकवरी की रफ़्तार सुस्त कर दी. फिर 2020 से कोरोना के चलते लागू लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था पूरी तरह लड़खड़ा गई. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल से ही पेट्रोल डीज़ल की अंतर्राष्ट्रीय क़ीमतों में अपने से पहले की यूपीए सरकार की तुलना में कमी आई, पर सरकार ने उसका फ़ायदा आम आदमी तक पहुंचाना गवारा नहीं समझा, बजाय इसके विभिन्न टैक्सेस और सेस लगाने से पेट्रोल और डीज़ल लगातार महंगे होते गए. देश के इतिहास में पहली बार पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतें 100 रुपए प्रति लीटर से अधिक हो गईं.
पेट्रोल-डीज़ल ही नहीं, घरेलू गैस की क़ीमतें भी आसमान छू रही हैं. जहां 2014 में सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर की क़ीमत 410 रुपए थी, वहीं मोदी सरकार ने धीरे-धीरे गैस पर मिलनेवाली सब्सिडी कम करते हुए, अब शहरी इलाक़ों में ख़त्म ही कर दी है. आज आपको रसोई गैस के एक सिलेंडर के लिए 900 से 925 रुपए चुकाने पड़ रहे हैं. सबसे बुरी बात यह रही कि पेट्रोल-डीज़ल और रसोई गैस की क़ीमतें तब बढ़ाई गईं, जब कोरोना के चलते देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं, आम आदमी के घर का बजट भी बुरी तरह हिला हुआ है. लाखों लोगों की नौकरियां गईं, उससे भी ज़्यादा लोगों को पे-कट का सामना करना पड़ा. और जिन भाग्यशाली लोगों ने इन दोनों स्थितियों का सामना नहीं किया, उनके वार्षिक इंक्रिमेंट्स नहीं हुए.
पेट्रोलियम प्रॉडक्ट्स की क़ीमतें बढ़ने से महंगाई बढ़ी. जब विपक्ष ने सवाल उठाए तो मीडिया और सरकार ने दूसरे मुद्दों की ओर डायवर्ट करने की कोशिश की. जले पर नमक छिड़कने का काम किया सरकार के कई मंत्रियों, सांसदों, बीजेपी शासित राज्यों के मंत्री, विधायक, पार्टी के पदाधिकारियों द्वारा समय-समय पर पेट्रोल-डीज़ल के महंगे होने को जस्टिफ़ाय करने को लेकर दिए जानेवाले बयानों ने. कोरोना के मुफ़्त टीके का पैसा कहां से आएगा? जैसे काउंटर सवाल उल्टे महंगाई से परेशान जनता से पूछे गए. जबकि सच्चाई यह भी रही कि बड़ी संख्या में लोगों ने पेड टीके भी लगवाए हैं. कुछ नेताओं का यह भी कहना था, विकास के साथ महंगाई तो आएगी ही. कुल मिलाकर सत्ताधारी दल द्वारा जनता की समस्याओं को नज़रअंदाज़ करने, उनका मज़ाक बनाने, ऊलजलूल बयान देने का खेल चलता रहा.
#4 आप विपक्ष को तो हरा दोगे, पर जनता से कैसे जीतोगे?
केंद्र में नरेन्द्र मोदी के उभार के बाद से बीजेपी लगातार बतौर पार्टी बड़ी और शक्तिशाली होती जा रही है. उन भावनात्मक मुद्दों, जिनको बस उनका चुनावी नारा बताया जा रहा था, पर पार्टी आक्रामक ढंग से आगे बढ़ ही है. यही कारण है कि पार्टी का सपोर्ट बेस छोटी-मोटी समस्याओं और शिकायतों के बावजूद पार्टी के साथ लगातार बना रहा. इस बीच मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हालिया पश्चिम बंगाल के चुनाव में हार के अलावा पार्टी ने किसी बड़ी सियासी पराजय का सामना नहीं किया. महाराष्ट्र में ज़रूर अपनी गठबंधन सहयोगी शिवसेना के साथ मनमुटाव के चलते पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ा. पर मध्यप्रदेश और कर्नाटक में तोड़फोड़ के खुले खेल से पार्टी अपनी सरकारें बनाने में क़ामयाब रही. बावजूद इसके जनता या मीडिया ने पार्टी की नैतिकता पर कोई सवाल नहीं उठाया. विपक्ष की आवाज़ को मीडिया मज़ाक बना देती है. जनता को सबसे बड़ी पार्टी के समर्पित आईटी सेल द्वारा वॉट्सऐप ज्ञान दे दिया जाता है. तो बंगाल में हार के बावजूद बीजेपी को इतना तो गुमान था ही जनता उसके साथ है. जैसा कि प्रधानमंत्री अक्सर अपने कड़े फ़ैसलों को अच्छे दिनों के लिए कड़वी गोली कहते हैं, उनकी पार्टी को पूरा विश्वास था कि भारत की जनता पेट्रोल-डीज़ल और महंगाई की यह कड़वी गोली डॉक्टर मोदी के भरोसे खा लेगी.
ऋषिकेश मुखर्जी की मशहूर फ़िल्म आनंद में डॉ भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) ग़रीब मरीज़ों को देखते हैं और परेशान हो जाते हैं. उनका मानना है कि जिस मरीज़ को खाना खाने को नहीं मिल रहा है, उसकी बीमारी गोली गटककर नहीं मिटनेवाली है. तो हर तरफ़ से परेशान जनता ने कड़वी गोली नहीं खाते हुए नवंबर के पहले हफ़्ते में 14 राज्यों में हुए उपचुनाव में एक तरह से भारतीय जनता पार्टी को झटका दिया. पश्चिम बंगाल में टीएमसी की जीत आश्चर्यजनक तो नहीं कही जाएगी, पर जिस तरह पहाड़ी राज्य हिमाचलप्रदेश में पार्टी तीनों विधानसभा और एक लोकसभा सीट हार गई, उसे बड़ा झटका ज़रूर कहा जा सकता है. पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की अनुपस्थिति में हुए पहले चुनाव में बीजेपी को अपनी जीत केक वॉक की तरह आसान लग रही थी, पर जनता ने नेतृत्व विहीन विपक्षी दल कांग्रेस को सभी जगह से जिताकर बता दिया कि अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो अगली लड़ाई बीजेपी बनाम जनता की लड़ाई होगी. राजस्थान में अंतरकलह से जूझ रही कांग्रेस ने तक बीजेपी को धूल चटा दी. पार्टी यहां तीसरे नंबर पर रही. कर्नाटक में नए-नवेले मुख्यमंत्री के गृह ज़िले में पार्टी की हार हो गई. उपचुनावों की इस हार के बाद काफ़ी कुछ बदलनेवाला था, जिनमें पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतों में की गई कटौती और आज प्रधानमंत्री द्वारा तीनों कृषि क़ानूनों के वापस लिए जाने की घोषणा शामिल है.
…इसलिए एक देश, एक चुनाव रद्दी आइडिया है!
अब लौटते हैं उस विषय पर, जहां से हमने शुरुआत की थी. ज़रा सोचिए अगर एक देश और एक चुनाव की थियरी को स्वीकार कर लिया जाता और लोकसभा चुनावों के साथ ही सारे चुनाव होते तो क्या उपचुनावों में हार के बाद सरकार तत्काल इतने बड़े-बड़े जनहितैषी फ़ैसले लेती? आपने पिछले कुछ सालों में ग़ौर किया होगा राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक कुछ महीने पहले पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतें स्थिर हो जाती हैं. चुनाव ख़त्म होते ही उनका बढ़ना शुरू हो जाता है. अगर चुनावों के लिए हमें पांच साल का इंतज़ार करना पड़ेगा तो चाहे जिस भी पार्टी की सरकार होगी, चाहे जो भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा होगा, वह पौने पांच साल तक कड़वी दवाइयों की सप्लाई करता रहेगा.
लोकतंत्र में चुनाव चेक ऐंड बैलेंस करने का काम करते हैं. बहुमत के घमंड में चूर सरकारों को भी पता होता है कि उसे पांच सालों के बीच कहीं न कहीं जनता का सामना करना पड़ता रहेगा. विपक्ष की आवाज़ को समर्थित मीडिया द्वारा दबाया जा सकता है, पर जनता की आवाज़ को ख़ारिज करने से काम नहीं चलेगा. हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के चुनावों में केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी की हार विपक्षी दलों को भले ही अपनी जीत लगे, पर सही मायने में यह जनता की जीत है. लोकतंत्र की जीत है. उन किसानों की जीत है, जो एक साल से कृषि क़ानूनों को वापस लेने के लिए शांतिपूर्ण सत्याग्रह कर रहे थे. ख़ुद के नज़रअंदाज़ किए जाने, गरियाए जाने के बावजूद उन्होंने ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया, जिससे लोकतंत्र के माथे पर कलंक लगे. उस आम जनता की जीत है, जिसने यूपीए 2 के भ्रष्ट और दिशाहीन शासन से त्रस्त होकर नरेन्द्र मोदी पर भरोसा जताते हुए, दशकों बाद किसी अकेली पार्टी को बहुमत से जिताया था. उस देश के लोकतांत्रिक संस्कारों की जीत है, जिसने कोरोना की दूसरी लहर के मिस मैनेजमेंट, सरकारी जुमलेबाज़ी, महंगाई और बेरोज़गारी की मार सहते हुए भी जवाब देने के लिए शांतिपूर्वक चुनावों का इंतज़ार किया. भला हो उत्तरप्रदेश के आगामी चुनावों का. हम आनेवाले कुछ महीनों में और राहत की उम्मीद कर सकते हैं. इसलिए देश में हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहने चाहिए. एक देश, एक चुनाव का आइडिया रद्दी की टोकरी में फेंक देना चाहिए. कभी ऐसा कोई प्रस्ताव कोई भी सरकार लाए तो उसका किसान आंदोलन की तरह शांति और धैर्यपूर्वक विरोध करना चाहिए.