अगले कुछ महीनों में देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. उन चुनावों की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. आदर्श रूप से तो सत्ता पक्ष को अपना रिपोर्ट कार्ड और विपक्ष को जनता की भलाई के लिए किए जानेवाले वादों की सूची के साथ अपना प्रचार करना चाहिए. पर हम सभी देख और समझ रहे हैं कि सभी पक्षों के नेता जनता को बांटने में लगे हैं. आख़िर क्यों ‘बांटो और राज करो’ की नीति लोकतंत्र की चाणक्य नीति बन गई है? हमारे नेता कब इस नीति का पालन बंद करेंगे? जैसे कुछ बेहद ज़रूरी सवालों के जवाब दे रहे हैं डॉ अबरार मुल्तानी.
एक चतुर व्यक्ति उसे कहा जाता है जो अपने लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर ले. यदि एक व्यक्ति किसी कार्य को करने में बहुत सी उर्जा, समय और संसाधन लगाए उसके बदले कोई दूसरा व्यक्ति उस कार्य को कम समय, कम ऊर्जा और कम संसाधनों से प्राप्त कर ले तो हम उसे चतुर, सयाना या बुद्धिमान व्यक्ति कहते हैं. ऊर्जा, समय और संसाधनों की बचत करने वालों को ही मूलतः बुद्धिमान और चतुर कहा जाता है.
नेता क्यों अपनाते हैं ‘बांटो और राज करो’ की नीति?
सभी नेताओं का लक्ष्य होता है चुनाव को जीतना और सत्ता को हासिल करना. सत्ता वह हासिल करता है जो ज़्यादा लोगों के वोट हासिल कर सके. ज़्यादा लोगों के वोट वह नेता पाता है जो अपनी तरफ़ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ला पाए और विरोधियों के पास कुछ गिने-चुने लोग ही रह जाएं. लोकतंत्र के चुनाव का यह एक नकारात्मक पक्ष है कि यह लोगों को बांटता है. परिपक्व हो चुके लोकतांत्रिक देशों में भी लोग आपस में बंटने लगे हैं. विचारों और विकास से आगे अब उन देशों में भी नस्ल और धर्मों के आधार पर लोगों को बांट कर सत्ता हासिल की जा रही है.
नेताओं को जीतने के लिए दूसरे नेताओं से ज़्यादा वोट चाहिए होते हैं. इसके लिए एक तरीक़ा तो यह है कि वह बहुत सारा होमवर्क करें, बुद्धि का इस्तेमाल करके योजनाएं बनाएं और फिर ईमानदारी से उनका क्रियान्वयन करवाए. फिर इस विकास के बदले वोट मांगें. लेकिन यह थोड़ा मुश्क़िल, ज़्यादा ऊर्जा, ज़्यादा वक्त और ज़्यादा संसाधनों को उपयोग करने वाला कार्य है. इसके विपरीत अगर कोई नेता लोगों के बीच जाकर भड़काऊ भाषण देता है, लोगों को ‘हम बनाम वे’ में बांट देता है, उनके बीच नफ़रत की स्पष्ट रेखा खींच देता है जिससे लोग दो धड़ों में बंट जाते हैं. अब जो समूह ज़्यादा बड़ा होता है वह अपनी तरफ़ का लगने वाले नेता को वोट देता है. नेता अपने लक्ष्य में क़ामयाब होकर सत्ता पर काबिज़ हो जाता है. यही तो उसका लक्ष्य है, यही तो उसका काम है. दूसरे वाले नेता ने कम समय, कम ऊर्जा और कम संसाधनों के साथ लक्ष्य हासिल कर लिया इसलिए वह दूसरे नेता से ज़्यादा चतुर-चालाक और क़ामयाब है. यहां पाठक मित्र यह बात ध्यान रखें कि ईमानदारी और नैतिकता एक अलग चीज़ है और राजनीति में सफलता एक अलग चीज़. राजनीति में सफलता बस राज करने में निहित है. मुझे तो लोकतंत्र में राजनीति शब्द के उपयोग से ही आपत्ति है. नेता हमारे प्रतिनिधि हैं न कि कोई राजा महाराजा, जो हमपर राज करने के लिए नीति बनाएं. ख़ैर, नेता भी सभी दूसरे मनुष्यों की तरह सफल होना चाहते हैं और उनकी सफलता ज़्यादा से ज़्यादा वोट पाने पर टिकी होती है. और एक चतुर-काइंया नेता जानता है कि ज़्यादा से ज़्यादा वोट आसानी से कैसे पाए जाते हैं.
क्या इस नीति को हमारे देश की राजनीति से बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है?
नेता लोगों को धर्म-जाति और नस्लों के आधार पर तोड़कर वोट पाना चाहते हैं, क्यों? क्योंकि, यह सबसे आसान काम होता है. भावनाओं और कहानियों के द्वारा संगठित लोगों के वोट पक्के होते हैं और वे एक भड़काऊ और भावुक भाषण से ही अपनी तरफ़ किए जा सकते हैं. इसके विपरीत नीतियों और सांख्यिकी आंकड़ों के आधार पर लोगों को अपनी तरफ़ करना दुरूह और बड़ा नीरस काम है और जनता इसमें कम ही दिलचस्पी लेती है. वह तो कहानियों में सोचती है, एक हीरो हो, एक विलेन हो और एंटरटेनमेंट-ऐक्शन से भरपूर मसाला उसे देखने को मिले. जनता जैसी होती है, नेता भी वैसा होता है. जनता जो चाहती है, नेता वो करता है. जनता चूंकि बंटने और परपीड़ा में आनंद लेती है इसलिए नेता उसके साथ वही करते हैं.
हम सब कहीं न कहीं मानते हैं कि लोगों को भावनात्मक आधार पर बांटकर जीत हासिल करना लोकतंत्र की मूल अवधारणा के विरुद्ध है. यह अलग बात है कि हम ख़ुद भी बड़ी आसानी से बंट जाते हैं. ऐसे में बांटने और बंटने से जुड़े कुछ सवाल और उनके संभावित जवाब पर चर्चा कर लेनी चाहिए.
सवाल: नेता लोगों को कब बांटना बंद करेंगे?
जवाब: जब लोग बंटना बंद हो जाएंगे.
सवाल: नेता कब नीतियों और विकास के नाम पर वोट मांगेंगे, धर्म और जातियों के नाम पर नहीं?
जवाब: जब लोग केवल इन आधारों पर वोट करने लगेंगे तब.
सवाल: क्या नेता सिर्फ़ धर्म के आधार पर ही लोगों को बांटते हैं?
जवाब: नहीं. जहां दो धर्मों के वोटर्स को बांटने से काम नहीं चलेगा या सत्ता नहीं मिलेगी तो वे लोगों को जातियों, क्षेत्रों और भाषाओं के आधार पर भी बांटने लगेंगे. उन्हें बस अपनी तरफ़ ज़्यादा वोट चाहिए जिसके आधार पर वे ध्रुवीकरण की नीतियां बनाते रहेंगे.
सवाल: नेता ऐसे क्यों हैं?
जवाब: क्योंकि हम ऐसे हैं.