हम तेज़ी से धार्मिक कट्टरता के युग में प्रवेश कर रहे हैं. धार्मिक कट्टरता का अर्थ सिर्फ़ इतना नहीं रहा कि किसी को अपने धर्म से प्यार हो, उसपर गर्व हो. इसमें एक नया आयाम भी जुड़ गया है दूसरे धर्मों या पंथों से नफ़रत भी इसमें शामिल हो गया है. आख़िर क्या है, दूसरे धर्मों को नकारने या उन्हें नीचा दिखाने का विज्ञान बता रहे हैं हमारे अपने फ़िलॉसफ़र डॉ अबरार मुल्तानी.
बात नफ़रत हो या प्रेम की हम इसके लिए अपने दिल को ज़िम्मेदार मानते हैं, पर इन भावनाओं में दिल के बजाय दिमाग़ की भूमिका कहीं बड़ी होती है. हमारे दिमाग़ में 10 अरब मस्तिष्क कोशिकाएं होती हैं. सभी कोशिकाओं का एक विस्तृत इलेक्ट्रो केमिकल और एक शक्तिशाली डेटा प्रोसेसिंग सिस्टम होता है. जब भी कोई नया विचार या संदेश हमारे मस्तिष्क को दिया जाता है तो इन मस्तिष्क की कोशिकाओं में एक बायोकैमिकल इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रास्ता बन जाता है. इस मार्ग या रास्ते के मेमोरी पॉइंट या साइन बन जाते हैं. यह नया विचार अपना पहला मार्ग बड़ी मुश्क़िल से बनाता है, इसे ऐसे समझो जैसे कि हम किसी कच्चे और झाड़ियों वाले रास्ते पर पगडंडी बना रहे हैं. पहली बार की तुलना में दूसरी बार जाना आसान होगा और जब एक बार रास्ता बन जाएगा तो उस विचार के समर्थक विचार आसानी से मस्तिष्क गृहण कर लेगा. अब यदि हम कोई दूसरा विचार आने मस्तिष्क को परोसेंगे जो कि उस विचार का विपरीत या उल्टा होगा तो हमारा मस्तिष्क उसे गृहण नहीं करेगा या हो सकता है यह उसका विरोध करें या इसे दबाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाए.
क्या आप इससे समझ सकते हैं कि क्यों एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्मों की बातों को नहीं मानते (चाहे वह सत्य या व्यवहारिक ही क्यों न हो) या उसे सिरे से खारिज कर देते हैं, या उसके कर्मकांडों और प्रतीकों का उपहास उड़ाते हैं, या उनकी शिक्षाओं को स्वीकार नहीं करते तथा उनके द्वारा शिक्षा दिए जाने पर विरोध करते हैं या हिंसा पर उतारू हो जाते हैं. हां, वे सब इसलिए करते हैं क्योंकि उसके मस्तिष्क में उस धर्म की शिक्षाओं, कर्मकांडों और प्रतीकों की पगडंडी बन गई है अब उसके विपरीत विचारों के नए मार्ग को बनाने का मस्तिष्क विरोध कर रहा है. यह विचारों या मतों के मार्ग जितने विरोधी होंगे मस्तिष्क का प्रतिकार उतना ही ज़्यादा प्रबल होगा.
बचपन में मस्तिष्क में इन पथों या रास्तों को बनाना आसान है इसलिए सभी धर्मप्रचारकों या धर्मगुरुओं के सबसे प्रिय शिष्य बच्चे ही होते हैं. बचपन से पड़े इन संस्कारों को हटाने के लिए मस्तिष्क तीव्र विरोध करता है. इसलिए जब आपका मित्र आपसे धर्म या पंथ पर बहस करे और हार मानने को तैयार ही न हो तो समझ लीजिए उसके मस्तिष्क में उस विचार की पगडंडी बहुत स्पष्ट बन चुकी शायद कॉन्क्रीट के रोड जितनी स्पष्ट और सख्त…
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