दुनिया के अलग-अलग हिस्सों और संस्कृतियों में नाम के साथ उपनाम जोड़ने का चलन है. नाम और उपनाम दोनों मिलकर हमारी एक अलहदा पहचान बनाते हैं. आपने कभी ग़ौर किया है, अमूमन सभी जगह नाम के आगे पिता का ही उपनाम लगाया जाता है! क्या है इसका कारण? और क्या मांओं के उपनाम भी जोड़े जाने शुरू होंगे? बता रहे हैं डॉ अबरार मुल्तानी.
भाषा की खोज हुई और भाषा की खोज के बाद लोगों के नामकरण हुए. अब मनुष्य केवल अपनी शक्ल से नहीं अपने नाम से भी पहचाने जाते थे. नाम मनुष्यों द्वारा किया गया एक ऐसा आविष्कार है जो मनुष्य को सबसे प्रिय है. नाम के लिए वह कुछ भी कर सकता है. नाम के आविष्कार के बाद मनुष्य बदल गया, मनुष्य का स्वभाव बदल गया और फिर सारा संसार बदल गया. अपने आप को लोगों की स्मृतियों में सदा जीवित रखने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू नाम ही है. आप सोचिए यदि नाम की खोज नहीं हुई होती तो हम सिकंदर को कैसे याद करते, चाणक्य को और सम्राट चंद्रगुप्त को कैसे याद करते, न्यूटन को कैसे याद करते? क्या हम उन्हें केवल शक्लों से याद रख पाते? नहीं, वह हमारी स्मृतियों में कुछ महीनों से ज़्यादा नहीं रह पाते. उन्हें हमारी स्मृति में जीवित रखा है तो उनके नामों ने. अमरत्व की इस चाह ने मनुष्यों से कई खोज और कई पराक्रम करवाए हैं जो शायद नाम के बिना उसकी इन्हें करने में दिलचस्पी नहीं होती. हमें भी आने वाली पीढ़ियां याद रखेंगी तो केवल हमारे नाम से याद रखेंगी. दुनिया को हमारा नाम याद रहेगा उसके बाद ही हमारा काम याद रहेगा.
नाम के साथ उपनाम यानी सरनेम पिता का क्यों होता है?
नाम के साथ जो एक और शब्द जुड़ा होता है वह होता है हमारा सरनेम यानी हमारा उपनाम. और हमारा उपनाम होता है हमारे पिता का नाम या पिता का ही उपनाम. भाषाओं और नामों की खोज के हज़ारों साल बाद तक मनुष्य के ज्ञान में यह बात थी कि संतानों की उत्पत्ति में पिता ही मुख्य है. क्योंकि, वह अपने बीज को महिला के गर्भाशय में रोपित करता है और गर्भाशय में गर्भनाल द्वारा उसका पोषण होता है. फिर वह एक शिशु बनता है. दो शताब्दियों पूर्व तक यही माना जाता था कि मानव में शिशु का निर्माण इसी प्रकार होता है जिस तरह एक बीज अंकुरित होकर पौधा बनता है. पुरुष ने बीज डाला, स्त्री रूपी धरती ने उसे सींचा और पुरुष को फिर से लौटा दिया.
लेकिन 19वीं शताब्दी के शुरुआत में कार्ल अर्नस्ट द्वारा जब यह खोज कर ली गई की स्तनधारियों की मादाओं में भी अंडे होते हैं और शिशु जन्म के लिए इनका शुक्राणुओं से निषेचन होता है फिर गर्भाशय में गर्भ पलता है. तो यहां से मनुष्यों को यह पता चला की संतान की उत्पत्ति में पिता से ज़्यादा मां का योगदान होता है. क्योंकि, 46 में से 23 क्रोमोसोम पिता के शुक्राणु के हैं तो 23 मां के अंडाणु के भी हैं. और फिर मां तो उसे 9 महीने तक अपने ख़ून से सींचती भी है. यह पता चले हुए हमें 200 से ज़्यादा साल हो चुके हैं लेकिन सरनेम अभी पिता के ही चलते हैं.
कब मिलेगा मां के उपनाम को सम्मान?
अभी कुछ सालों पहले तक ही हमारे काग़ज़ों में मां का कहीं ज़िक्र नहीं होता था. अब किन्हीं किन्हीं काग़ज़ों में मां का नाम भी लिखना अनिवार्य हो गया है.
मनुष्य पिता का सरनेम लिखने का आदी हो चुका है और हज़ारों साल की उसकी यह आदत 200 साल में बदल जाए ऐसा नहीं हो सकता. क्योंकि, ऐसा हुआ भी नहीं है. आने वाले समय में क्या होगा कौन जानता है लेकिन अब मां को पिताओं के बराबर ही माना जाने लगेगा. सरनेम कब से बदलना शुरू होंगे और दुनिया कब से उसे स्वीकार करेगी यह तो भविष्य की अलबेली कोख में है. लेकिन इसके बारे में तो मां के बच्चों को ही मिलकर प्रभावी प्रयास करने होंगे. आशा है जो सम्मान और अधिकार हमारे परनाना-परदादा नहीं दे पाए अपनी मांओं को वह सम्मान और अधिकार हम और हमारे नाती-पोते उन्हें ज़रूर देंगे.
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