जब हमें जीतना हो तो सबसे पहली शर्त होती है कि अपने संघर्षों को बेहद ध्यान से चुना जाए, ताकि बेजा बातों में उलझ कर अपनी उस ऊर्जा का ह्रास न कर बैठें, जो असल बदलाव लाने में इस्तेमाल की जा सकती थी. हाल ही में मराठी अभिनेत्री सोनाली कुलकर्णी के बचकाने बयान पर ध्यान न दे कर हम सब बतौर प्रगतिशील समाज उनकी रुग्ण सोच को आसानी से खारिज कर सकते थे. यदि हम ऐसा करते तो हमारे समाज की ओर से एक संदेश जाता कि हम वाक़ई कितने सशक्त हो चुके हैं कि ऐसे बचकाने बयानों पर कान भी नहीं देते.
अमूमन सोशल मीडिया पर जारी स्त्री-विमर्श की बातें और तर्क इतने उथले होते हैं, जो एक महिला होने के बावजूद, जब मेरे कान पर पड़ते हैं, दिमाग़ तक पहुंच कर प्रोसेस होते ही रिफ़्लेक्ट हो कर ऑटोमेटिक उसी कान से बाहर निकल जाते हैं. उन बातों को जिन पर कान तक देने की ज़रूरत नहीं, न जाने कैसे स्त्रियां और पुरुष भी अपने सोशल मीडिया की वॉल भरने के लायक़ मान लेते हैं?
हाल ही में मराठी अभिनेत्री सोनाली कुलकर्णी का यह कहना कि महिलाएं आलसी होती हैं और वे अपने लिए अच्छी नौकरी वाला पति चाहती हैं, जिस पर सोशल मीडिया में हाहाकार सा मच गया, कुछ इसी तरह का मुद्दा था, जिसे सुन कर, उस पर ध्यान न दे कर हम सब बतौर प्रगतिशील समाज आसानी से खारिज कर सकते थे. यदि हम ऐसा करते तो हमारे समाज की ओर से एक संदेश जाता कि हम वाक़ई कितने सशक्त हो चुके हैं कि ऐसे बचकाने बयानों और रुग्ण सोच पर कान भी नहीं देते. हम (महिलाएं) जो हैं, जैसे हैं उसके लिए किसी को एक्स्प्लेनेशन देने की क्या ज़रूरत है? किसी का वैलिडेशन पाने की क्या ज़रूरत है? यदि हमें यह ज़रूरत पड़ती है तो हम आत्मविश्वासी या सशक्त कहां हुए या कहां हो पाए?
यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है, वो अपनी सोच के आधार पर बात करता है. हम सब का मुंह बंद नहीं कर सकते और उन सब की बात पर कान दे कर अपना समय ज़ाया नहीं कर सकते, क्योंकि आगे जाने के लिए हमें (महिलाओं को) बहुत ऊर्जा की ज़रूरत है, उसे ऐसे लोगों पर क्यों बर्बाद किया जाए? यदि किसी की कोई बात आपको अच्छी नहीं लगी तो उस पर ध्यान मत दीजिए, तवज्जो मत दीजिए और बात अपने आप दब जाएगी. खाद-पानी नहीं मिलेगा तो कुंठित सोच ज़्यादा लोगों तक पहुंचेगी ही नहीं, आगे पनपेगी ही नहीं. यह मेरा निजी मत है कि इस दौर में ऐसी बातों को इग्नोर करना ज़्यादा फ़ायदेमंद है, जिन्हें हवा देने पर वे बातें स्त्री के आगे बढ़ने के पक्ष में न जा कर लंबे समय में उसकी आगे बढ़ने की ऊर्जा को कम करने का ही काम करती हों.
वर्ष 1960-80 के बीच स्त्रीवादी आंदोलन का दूसरा चरण, वह समय था जब महिलाएं ग़ुस्से में थीं, अपने अधिकारों की मांग को ले कर व्यंग्य और कटाक्ष का इस्तेमाल कर रही थीं. वे संगठित हो रही थीं, कार्यकर्ता, लेखक, अकादमिक जगत, पत्रकारिता से स्त्रियां एक होकर स्त्रीवादी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग ले रही थीं. इसी दौरान कुछ स्त्रीवादियों ने मिलकर एक पत्रिका मिस (Ms.) शुरु की. इस पत्रिका के पहले ही इशू में एक व्यंग्य था- मुझे एक पत्नी चाहिए (I Want a Wife), जूडी ब्रैडी का लिखा हुआ, जिसे सुजाता चोखेरबाली ने अपनी किताब ‘दुनिया में औरत’ के एक लेख में अनुवाद करके शामिल किया है. सुजाता की किताब और उसमें शामिल इस अनुवाद को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए. यह पूरी तरह बता देता है कि एक पत्नी की भूमिका आते ही क्या कुछ बिन कहे ही उसकी ज़िम्मेदारियों में शामिल हो जाता है या शामिल मान लिया जाता है और जिसकी किसी तरह के काम में कोई गिनती ही नहीं होती. यह तो सीधे-सीधे महिलाओं का शोषण है!
जूडी ब्रैडी ने बहुत ही तीखा कटाक्ष किया है, जो आज के संदर्भ में भी बिल्कुल सही है. तो कुल मिला कर बात ये कि वर्ष 1960 से आज तक भी महिलाओं के लिए स्थितियां बहुत नहीं बदली हैं. होममेकर महिलाओं के काम को तो कोई तरजीह ही नहीं जाती, बावजूद इसके कि उनका काम चौबीसों घंटे चलता है और इसके लिए कोई वेतन भी नहीं मिलता और कामकाजी, विवाहित महिलाओं पर दोहरी, तिहरी जिम्मेदारियां होती हैं, वे काम के बोझ से बेहाल रहती हैं. महिलाएं शारीरिक और मानसिक संत्रास झेलती हैं और उनकी स्थिति को समझे और सुधारे जाने की बहुत ज़रूरत है. इस दिशा में काम करने के लिए परिवार की उस अवधारणा, जहां महिलाओं पर सारा काम लाद दिए जाने को सामान्य माना जाता है और इस बात की कंडिशनिंग न जाने कब से चली आ रही है, को बदलना होगा.
यह सच है कि महिलाओं के घरेलू काम को काम नहीं समझा जाता, जो चौबीसों घंटे और 365 दिनों तक चलता है; यह भी सच है कि महिलाओं का हर काल में कई तरह से शोषण हुआ है और इसमें अधिकांशत: पुरुषों का और पितृसत्तात्मक सोच का ही योगदान रहा है. पर साथ ही मैं यह भी मानती हूं कि हर दौर में पुरुषों का एक छोटा सा तबका महिलाओं को समझता भी रहा है, उदाहरण के तौर पर हमारे दादा-नाना (हमसे पिछली जेनरेशन के पिता) जिन्होंने अपनी बच्चियों को पढ़ाया (पर वह पूरी स्वतंत्रता या बराबरी नहीं थी/है, वो तो अब तक नहीं मिली है महिलाओं को); हमारे पिता (हमारी पीढ़ी के पिता, जिन्होंने अपनी बच्चियों के नौकरी करने को वरीयता दी, पर यह भी पूरी बराबरी नहीं थी/है); हमारे बच्चों की जेनरेशन के पिता (जो पढ़ाई, नौकरी के साथ अपनी बच्चियों के मनपसंद पार्टनर्स को भी स्वीकारने लगे हैं, हालांकि यह भी आवश्यक बराबरी जितना नहीं है). पर जो भी अदना सा है उन पुरुषों का ये योगदान, मुझे लगता है कि उसका उल्लेख भी ज़रूरी है, ताकि उन पुरुषों से कुछ और पुरुष प्रेरणा ले सकें. और ऐसे पुरुषों की संख्या बढ़े, जो महिलाओं के आगे बढ़ने, उन्हें समान अधिकार देने के पक्षधर हैं.
हो सकता है कि इसे पढ़ते हुए कई लोगों को लगे कि मैं किसी ख़ास तबके की बात कर रही हूं, पर यह भी एक सच है कि मेरा अनुभव उतना ही सीमित है, जितना मैंने अपने आसपास देखा, सुना, जिया, पढ़ा और महसूस किया है. लेकिन यह इसी दुनिया का अनुभव है, जिसे मैंने अपनी आंखों से अच्छाई के लिए बदलता देखा है. और अंततः हम इस सच्चाई से भी इनकार नहीं कर सकते कि लोगों की कंडिशनिंग और माइंडसेट्स रातों रात नहीं बदलते और इस चक्र में एक पीढ़ी की एक (हर) महिला के जीवन में बहुत थोड़ा ही बदलाव आ पाता है.
इस बात की बहुत ज़रूरत है कि स्त्रियों के पक्ष में बदलाव की ये गति इतनी तेज़ हो कि सभी महिलाएं समानता की राहत महसूस कर सकें. यह भी एक सच्चाई है कि इस बदलाव के लिए हम महिलाओं को ही मुखर होना होगा, हमें ही साथ आकर प्रयास करना होगा. साथ ही, यह पहचानना होगा कि हमें अपनी ऊर्जा कहां लगानी है- बच्चियों-बच्चों, युवक-युवतियों, पुरुषों और महिलाओं को हर स्तर पर सेंसेटाइज़ करने में, ताकि समाज की सोच में अपेक्षित बदलाव आए. और कहां हमें अपनी ऊर्जा का ह्रास करने से बचना है- कुछ अनर्गल प्रलाप करने वाले लोगों और उनके वक्तव्यों के पीछे, जिन्हें हाइलाइट किए जाने की ज़रूरत तक नहीं. और इस बात की वजह सिर्फ़ यह है कि जब आपके सामने एक ज़िंदगी है और उस ज़िंदगी में हज़ारों संघर्ष हैं, जिनके बीच से हो कर आपको अपने लक्ष्य तक पहुंचना है तो अपने संघर्षों का चुनाव इस तरह करना ही समझदारी है, जिससे हमारे भीतर सकारात्मकता का संचार हो और हम अपने लक्ष्य की ओर केंद्रित रह सकें, उसे पा सकें.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट