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ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब कविताएं

मेरा पुराना दशहरा: डॉ संगीता झा की कविता

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
October 24, 2023
in कविताएं, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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Dussehra-hindi-poem
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चीज़ें बदल रही हैं या कहें बहुत-सी चीज़ें पूरी तरह बदल चुकी हैं. परिवार, संस्कार और त्यौहार सबकुछ आधुनिक हो चुके हैं. इसी आधुनिकता के बीच कभी-कभी हमें पुराने दिनों की यादें सताने लगती हैं, ख़ासकर त्यौहारों के मौसम में. लेखिका-कवयित्री डॉ संगीता झा अपने बचपन के दशहरे की यादों को शब्द दे रही हैं.

हम चाहे बच्चे थे
लेकिन दिल के बड़े सच्चे थे…
बड़ी बेसब्री से करते थे इंतज़ार
था भी तो ये नौ दिनों का माता का त्यौहार
टीवी, रेडियो और यूट्यूब आ गए
दूरियां हमारी बढ़ा गए

अब समय बदल गया है
मांएं नहीं करती ये उपवास
तब रहती थी हमें रोज़
सिंघाड़े की पूड़ी और
मखाने की खीर की आस
सबके घर जुड़े हुए थे
नल के साथ कुंए थे

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दशहरे की होती थी
बड़ी लंबी छुट्टियां
साथ मज़े करते सब
कभी दोस्ती कभी कुट्टियां
पड़ोसी रिश्तेदार से थे
छतें सबकी सांझा थी
दिल भी धड़कते थे
कोई किसी का हीर कोई रांझा थी

छतों पर अब न सोते हैं
अकेले अकेले सब रोते हैं
आंगन अब कहलाते हैं बैकयार्ड
कोई नहीं घुस सकता अब घर में
दरवाज़े पर बिठा रखा है गार्ड
तब राही भी आ बैठता था…
कौवे भी कांवते थे
अब तो बड़े घरों के पास
कुत्ते भी आने से कांपते हैं

आज छुट्टी है ऑफ़िस में
बड़े मन से निकlली अपनी कार
वीडियो गेम खेलते बेटे से कहा
चल दुर्गा मंडप चलें यार..
बेटे ने कहा-आर यू मैड
क्या हुआ आज आपको डैड
इतना मचल रहे हो
तो ख़ुद ही जाइए
मम्मा के साथ जा
दुर्गा दर्शन कर आइए
मुझे ना करे तंग
मेरी प्राइवेसी ना करें भंग

सोचने लगा मैं तब
इक साइकिल ही पास थी
उस पर ही बाबूजी के साथ
चढ़कर घूमने की आस थी
पैदल भी चलते थे
फिर भी मेल जोल था…
मामा-मामी, चाचा-चाची
हर रिश्ता अनमोल था
रिश्ते निभाते थे
रूठते मनाते थे…
पैसा चाहे कम था
माथे पे ना ग़म था…
मकान चाहे कच्चा था
लेकिन प्यार हमारा सच्चा था

अब भी लगता है दुर्गा माता
का बड़ा आलीशान सा पंडाल
अब नहीं बजते वहां माता के भजन
ज़ोर-ज़ोर के डीजे हैं यूं गाते
मानो जमा हों वहां कई चांडाल
बच्चे तो दिन की आरती में नहीं हैं अब जाते
एक झुंड में शाम को आर्केस्ट्रा के साथ मिल कर हैं गाते
एक रात तू मेरे साथ तो गुज़ार सुबह तक करूंगा मैं तुझे प्यार
समय के साथ क्यों सब खो गया है, सोचता हूं बार-बार

क्यों नहीं होती अब माता की चौकी
साबूदाने का बड़ा और दही वाली लौकी
दुर्गा माता भी वहीं हैं और मैं भी वहीं
हंसती खेलती ज़िंदगी की ख़ुशियां खो गई हैं कहीं
आज सब कुछ है मेरे पास
बड़ा घर गार्डन और कार
लेकिन
आज कई बार
बिना मुस्कुराए ही हो जाती है शाम
एक मशीन की तरह
रात दिन करता हूं काम

कितनी दूर निकल गया हूं
रिश्तों को निभाते-निभाते
ख़ुद को खो दिया मैंने
अपनों को पाते-पाते
बार-बार करता हूं अपने
बचपन को मैं याद
ऊपर वाले से है मेरी
बस एक फ़रियाद
लौटा दो मुझे वो
मेरा दशहरा पुराना
लाऊं वही सोन पत्ती
गाऊं मैं वही गाना

फिर एक बार आओ तुम राम
बना दो सबके बिगड़े काम
हर छुट्टी में मिलें सब रिश्तेदार
सबके जीवन में हों ख़ुशियां अपार
ख़ुशियां अपार…

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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