आर्टिफ़िशल इंटेलिजेंस यानी एआइ के बारे में हमें साइंस फ़िक्शन फ़िल्मों ने तब से आगाह कर रखा है, जबकि एआइ टर्म का ईजाद भी नहीं हुआ था. कैसे एआइ और स्मार्ट फ़ोन का तालमेल आपको और हमको अपनी गिरफ़्त में ले रहा है और आगे यह क्या-क्या कर सकता है, इसके बारे में पढ़िए प्रकाशक व लेखक अशफ़ाक अहमद का यह नज़रिया. इस सीरीज़ में एआइ पर उनका नज़रिया दो और आलेखों के ज़रिए आप तक जल्द ही पहुंचाएंगे हम.
अभी हाल ही में टॉम क्रूज़ की मिशन इम्पॉसिबल श्रृंखला की रीसेंट फ़िल्म देखी, इस फ़िल्म में पूरा कांसेप्ट एआइ पर बेस्ड है, जिसे इंग्लिश वर्शन में एंटिटी और हिंदी में वजूद का नाम दिया गया है. इससे पहले जेसन स्टेथम की हाल ही में आई ऑपरेशन फ़ॉर्चून भी एक एआइ प्रोग्राम पर आधारित है और उससे पहले आई गेल गेडॉट और आलिया भट्ट की हार्ट ऑफ़ स्टोन में भी एक ऐसे ही सर्विलांस सिस्टम को केंद्र में रखा गया है, जैसे विन डीज़ल की फ़्यूरियस 7 में गॉड्स आई को रखा गया था, जो एक ऐसा सिस्टम है, जो रियल टाइम में किसी को भी, कभी भी और कहीं भी ट्रैक कर सकता है.
यह सब दिनों दिन उन्नत होती टेक्नोलॉजी पर आधारित फ़िल्में हैं, जो हॉलिवुड वाले धड़ाधड़ और मुख्यधारा के सितारों के साथ पूरी तकनीकी कुशलता के साथ बना रहे हैं और उस भविष्य के प्रति हमें चेता रहे हैं—जो हमसे कुछ ही साल दूर है. इसकी चेतावनी बहुत पहले आर्नल्ड श्वार्ज़नेगर की फ़िल्म सीरीज टर्मिनेटर के ज़रिए दी गई थी, जहां एक कंप्यूटर सिस्टम स्काईनेट अपनी ख़ुद की चेतना विकसित कर लेता है और फिर न्यूक करके पृथ्वी से मानवजाति का सफ़ाया कर देता है. एसा ही कुछ कॉन्सेप्ट विल स्मिथ की आई-रोबोट का था और उसकी भारतीय नकल रोबोट का था. तब भले उसे एआइ न कहा गया हो, लेकिन बाद में इसे एआइ के रूप में परिभाषित किया गया, जो कि अब एक व्यवहारिक सच्चाई है. हम लाख इसे नापसंद करें पर इससे बच नहीं सकते.
दुनिया में हर नागरिक को एक डिजिटल पहचान दी जा रही है, उसकी सारी इन्फ़र्मेशन, उसकी बायोमेट्रिक पहचान के साथ कंप्यूटिंग सिस्टम में दर्ज की जा रही है और लेन-देन के लिए भी उसे पूरी तरह इंटरनेट पर आश्रित किया जा रहा है. स्मार्ट फ़ोन के नाम पर जो फ़ोन हमें थमाए जा रहे हैं, वे उच्च-तकनीक के साथ हमारे घरों में, हर पल हमारे साथ रहते, हमारी जासूसी कर रहे हैं. वे हमारी बातें सुनते हैं, हमारे दिमाग़ को पढ़ते हैं (फ़ोन की स्क्रीन पर हम कितनी देर किसी चीज़ को देखते हैं, इस हिसाब से) हमारी पसंद-नापसंद जान रहे हैं और एक विशाल डेटा तैयार कर रहे हैं. मोबाइल नहीं तो जिस कंप्यूटर, लैपटॉप पर आप काम कर रहे हैं, मनोरंजन कर रहे हैं—वे सभी ऐसा कर रहे हैं.
इस डेटा का इस्तेमाल अभी शुरुआती दौर में उत्पादों को बेचने के उद्देश्य से किया जा रहा है. लेकिन अगले चरण में इसे अपने विभत्स रूप में लोगों को नियंत्रित करने के लिए प्रयोग किया जाएगा. उनके दिमाग़ों को अपनी दी हुई फ्रिक्वेंसी पर ट्रिगर करने के लिए किया जाएगा. अभी इस फ़ील्ड में इसका इस्तेमाल चुनावी सिस्टम में किया जा रहा है. एक से एक एआइ प्रोग्राम डिज़ाइन किए जा रहे हैं—जो अपने बेसिक रूप में भले आम लोगों को उपलब्ध हो जाएं और वे किसी की भी शक्ल के सहारे कैसा भी फ़ोटो/वीडियो बनाने से लेकर आर्ट/डाक्यूमेंट्स बनाने तक ही सीमित रह कर ख़ुश हो लें, लेकिन इसका घातक इस्तेमाल सक्षम हैकर्स और ताक़तवर सरकारें करेंगी—न सिर्फ़ अपने ही नागरिकों के ख़िलाफ़, बल्कि दूसरे देशों के खिलाफ़ भी.
इसके ज़रिए किसी का बैंक अकाउंट ख़ाली कर सकते हैं, किसी के सारे ट्रांज़ैक्शन रोक कर उसे आर्थिक रूप से पंगु बना सकते हैं या किसी के फ़ोन/लैपटॉप से गुप्त जानकारियां हासिल कर के उसे ब्लैकमेल कर सकते हैं (इस कला का ज़्यादातर इस्तेमाल हैकर्स करेंगे), विपक्ष, विपक्ष में खड़े पत्रकार, जज, सामाजिक कार्यकर्ता वगैरह के फ़ोन/लैपटॉप को टार्गेट करके, उनमें अपने वे सॉफ़्टवेयर इंस्टाल किए जा सकते हैं जिनके सहारे उन्हें लगातार सर्विलांस में रख कर, उनके हर कॉल/मैसेज को मॉनिटर करके उनके ख़िलाफ़ अपनी रणनीति बनाई जा सके, या उनके फ़ोन/लैपटॉप/डेस्कटॉप आदि में फ़ेक सबूत प्लांट करके उन्हें अपराधी/देशद्रोही साबित करके रास्ते से हटाया जा सके (यह काम सरकारें करेंगी और अपने देश में भी दोनों कांड किए जा चुके हैं), या दूसरे देशों के एयर डिफ़ेंस सिस्टम, ड्रोन, मिसाइल हैक करके अपने हिसाब से इस्तेमाल करने से लेकर, उनके सिस्टम में घुसपैठ करके रिक्वायर्ड इन्फ़र्मेशन निकाले जाने जैसे काम किए जा सकते हैं, जो ऑलरेडी किए जा रहे हैं.
यह जो आपको अपने देश में वर्तमान सत्ता के समर्थकों का इतना बड़ा वर्ग दिखता है, यह इसलिए नहीं है कि सरकार ने कोई बहुत अच्छा काम किया है या लोगों का जीवन स्तर सुधार दिया है—उल्टा लोगों का जीवन स्तर और ख़राब हुआ है इसकी लगातार नाकामियों के चलते, लेकिन फिर भी यह इतना समर्थन रखती है तो वह इसी तरह की टेक्नोलॉजी के भरोसे ऐसा कर पाने में कामयाब है, जिस पर वे अंधाधुंध पैसा बहा रहे हैं—कुछ सामने से दिखता है, कुछ पर्दे के पीछे है. बावजूद इसके, इंसान मशीन नहीं है और उसे सौ प्रतिशत कंट्रोल करना मुश्किल है और उसके किसी भी पल में अप्रत्याशित होने की संभावना हमेशा मौजूद रहती है. मान लीजिए, आम चुनाव से ऐन पहले कोई एक चीज़ भी उसे वर्तमान सत्ता के ख़िलाफ़ और विपक्ष के पक्ष में ट्रिगर कर सकती है और पूरी तस्वीर बदल सकती है. सत्ता बदलते ही आपको यह वर्तमान सत्ता समर्थन वाली भीड़ कम होती और तब की सरकार समर्थक भीड़ एकदम से विशाल होते दिखेगी. इसके पीछे के भी जितने मनोवैज्ञानिक कारण होंगे, उन कारणों को बनाने के पीछे उतना ही टेक्नालॉजी का सपोर्ट होगा.
असल में आप सोचते हैं कि आप स्वतंत्र चेतना रखते हैं और आपकी हर पसंद-नापसंद आपकी अपनी चॉइस है, लेकिन ऐसा नहीं है. आपके आसपास इस लगातार उन्नत होती टेक्नालॉजी से लैस एक खेल चल रहा है, जिसके हम सब एक मामूली मोहरे हैं. कहीं भी कोई स्वतंत्र नहीं है, हर किसी की सोच/समर्थन/विरोध/पसंद/नापसंद कहीं और से ट्रिगर की जा रही है. ठीक है कि अभी इन सब खेलों के बैकएंड पर आपको कुछ इंसान मिलेंगे—लेकिन असल ख़तरे को हम तब फ़ेस करेंगे जब किसी एक एआइ की चेतना ख़ुद विकसित हो जाएगी ऐसा कोई भी सिस्टम आज के नेट से जुड़े हर सिस्टम पर प्रभावी होने और उसे अपने हिसाब से मैनेज/मैनीपुलेट करने में कुछ सेकेंड भर लगाएगा. इस लगातार उन्नत होती तकनीक, आर्टिफ़िशल इंटेलिजेंस से यही ख़तरा है, जिसकी तरफ़ संकेत देती, एक के बाद एक हॉलिवुड मूवीज़ सामने आ रही हैं.
यह ठीक है कि पूरा कंट्रोल पा लेने के बाद भी शायद ऐसा कोई एआइ सिस्टम दुनिया को प्रापर रूप में वैसे न चला पाए, जैसे यह अब तक चलती आई है—लेकिन इसे तहस-नहस तो कर ही सकता है और यही वास्तविक ख़तरा है. यह भविष्य की बात है, लेकिन वर्तमान यह है कि आप इसकी चपेट में हैं—यह आपके दिमाग़ में है और लगातार आपको अपने हिसाब से चला रहा है… यह अलग बात है कि आप इसे महसूस नहीं कर पाते और अपना नैचुरल ऐक्ट समझते ख़ुशी-ख़ुशी अपने पर थोपी गई हर तकनीक को स्वीकारते जिए जा रहे हैं.
फ़ोटो साभार: फ्रीपिक