वर्ष 2010 में सामने आया 2G घोटाला, जिसने उस समय देश की राजनीति में तूफ़ान खड़ा कर दिया था, जिसे इस देश में सत्ता परिवर्तन की एक बड़ी वजह माना जाता है, क्या वाक़ई कोई घोटाला था? या फिर वह आज इस बात की वजह है कि आज हर छोटा-बड़ा व्यक्ति मोबाइल फ़ोन और उससे होने वाली क्रांति का हिस्सा बन पाया? यह सवाल इसलिए कि वर्ष 2017 में दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने इस पर फ़ैसला सुनाते हुए इसके सभी आरोपियों को बरी कर दिया. इसी बात का आकलन करते हुए पेश है नवनीत शर्मा का नज़रिया.
मिस्टर पटेल एक शिक्षाविद हैं, जो अपनी ईमानदारी और सच्चाई के लिए प्रसिद्ध हैं. उन्हें एक यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के पद पर नियुक्त किया जाता है. जैसे ही वे अपना पदभार संभालते हैं, छात्रों को एक प्रतिनिधि मंडल उनसे मिलता है. अपनी कई मांगों के साथ वे इस बात की भी शिकायत करते हैं कि यूनिवर्सिटी के कॉलेजों में साइकल और बाइक आदि की पार्किंग के लिए पिछले दो वर्षों से बहुत ज़्यादा पैसे वसूले जा रहे हैं. दो साल पहले जिस ठेकेदार को इसका काम मिला है वह रोज़ाना साइकल के लिए 10 और बाइक के लिए 25 रुपए वसूलता है. वे यह भी बताते हैं कि दो साल पहले तक इसी काम के लिए केवल दो और पांच रुपए लिए जाते थे. मिस्टर पटेल को यह मांग वाजिब लगी, चूंकि बहुत से छात्र कमज़ोर आर्थिक वर्ग से आते थे, उनके लिए ये बढ़ी हुई क़ीमत चुकाना बहुत कठिन है. इस बात को समझते हुए उन्होंने इसके लिए प्रयास शुरू किए कि पार्किंग की क़ीमतों में कमी लाई जाए. जब मिस्टर पटेल ने इसके बारे में और जानकारी जुटाई तो पाया कि दो वर्ष पूर्व ही यूनिवर्सिटी ने पार्किंग का कॉन्ट्रैक्ट नीलामी के ज़रिए निजी ठेकेदारों को देना शुरू किया है. इस प्रक्रिया में जिसने भी सबसे ज़्यादा बोली लगाई, कॉन्ट्रैक्ट उसी को दिया जाना था. इस यूनिवर्सिटी में 15 कॉलेज थे और फ़िलहाल प्राइवेट कॉन्ट्रैक्टर के ज़रिए यूनिवर्सिटी को प्रति कॉलेज, प्रति वर्ष 1 करोड़ रुपए यानी सालाना कुल 15 करोड़ रुपए की आय हो रही थी. लेकिन इस नई नीति में पार्किंग का चार्ज कई गुना बढ़ा दिया गया था, जिसका भार बेवजह ग़रीब छात्रों को उठाना पड़ रहा था. समस्या के समझ में आते ही मिस्टर पटेल ने इस नीति में बदलाव करने का सोचा.
अगले वर्ष उन्होंने नीलामी कि यह नीति बंद कर दी और एक ऐसी नीति बनाई कि पार्किंग कॉन्ट्रैक्टर्स को यूनिवर्सिटी को हर कॉलेज के लिए 20 लाख रुपए की राशि देनी होगी, लेकिन इसमें प्राथमिकता उन्हीं लोगों को दी जाएगी जो: यूनिवर्सिटी के ऐसे स्टाफ़ के परिवार के सदस्य हों, जिनकी नौकरी के दौरान मृत्यु हो गई हो या फ़ौज/पैरामिलिट्री/पुलिस में काम के दौरान मारे गए व्यक्ति के परिवार के सदस्य हों या फिर इसी क्षेत्र के कोई नए उद्यमी हों. और यह भी कहा गया कि कॉन्ट्रैक्ट ‘पहले आओ, पहले पाओ’ के तर्ज पर दिया जाएगा. इस नीति का नागरिकों, शिक्षकों, यूनिवर्सिटी स्टाफ़ और छात्रों ने स्वागत किया. हालांकि कुछ लोग, जिनके निहित स्वार्थ को इस नीति से ख़तरा था, उन्होंने इसे लेकर थोड़ी आपत्ति जताई. इस बदली हुई नीति में यह बात भी मौजूद थी कि पार्किंग का शुल्क की एक सीमा तय की जाएगी. जैसे ही नई नीति लागू हुई पार्किंग शुल्क पुरानी दरों यानी साइकल के लिए दो और बाइक के लिए पांच रुपए पर आ गए. अब छात्र ख़ुश थे, क्योंकि ये क़ीमत उनकी जेब पर भारी नहीं थी.
अगले वर्ष राज्य के ऑडिटर जनरल द्वारा ऑडिट किया गया तो पाया गया कि यूनिवर्सिटी की नई पार्किंग नीति की वजह से यूनिवर्सिटी के ख़ज़ाने में 12 करोड़ प्रति वर्ष का घाटा हुआ है. उन्होंने अपने ऑडिट नोट में बताया कि पहले यूनिवर्सिटी को पार्किंग कॉन्ट्रैक्टर्स से 15 करोड़ रुपए साल की आय होती थी, जबकि नई नीति की वजह से अब केवल 3 करोड़ प्रति वर्ष की आय हो रही है. इसलिए पार्किंग कॉन्ट्रैक्ट में होने वाला कुल नुक़सान 12 करोड़ प्रति वर्ष का है. इस नीति के बदलाव से जिन लोगों के निहित स्वार्थ जुड़े हुए थे, वे तो इसी अवसर की प्रतीक्षा में थे. उन्होंने वाइस चांसलर के ख़िलाफ़ मीडिया में आंदोलन चलाया और उनकी छवि को ख़राब किया. राज्य सरकार ने वाइस चांसलर से जवाब तलब किया. मिस्टर पटेल ने उन्हें यह बात समझाने की कोशिश की कि यह एक सार्वजनिक यूनिवर्सिटी है और लाभ कमाना इसका उद्देश्य नहीं है. यह नीतिगत बदलाव छात्रों के फ़ायदे के लिए किए गए थे, क्योंकि उनसे पार्किंग के लिए बहुत अधिक शुल्क वसूला जा रहा था. उन्होंने यह भी कहा कि यूनिवर्सिटी को 12 करोड़ और रुपयों का लाभ हो सकता था, लेकिन अंतत: ये 12 करोड़ रुपए ग़रीब छात्रों और यूनिवर्सिटी के स्टाफ़ को ही वहन करने पड़ते, जो वहां अपनी गाड़ियां/साइकल पार्क करते. लेकिन तब तक इस मामले पर स्थानीय मीडिया इतना हल्ला मचा चुकी थी कि उनके सारे सही तर्कों को भी दरकिनार कर दिया गया. सप्ताहभर बाद मिस्टर पटेल ने वाइस चांसलर के पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
ऊपर बताई गई कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है, लेकिन इसमें हमारे देश में हुए उस 2जी टैलिकॉम स्कैम का पूरा सार छुपा हुआ है, जिसने वर्ष 2010 में हमारे देश में खलबली मचा दी थी. जब वर्ष 199 में भारत में मोबाइल सेवाओं की शुरुआत हुई थी तो यह बहुत ही महंगी सेवा थी, जो आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर थी. मुझे अच्छी तरह याद है कि तब आउटगोइंग चार्ज छह रुपए प्रति मिनट और इनकमिंग चार्ज दो रुपए प्रति मिनट हुआ करता था. इस दर पर तो भारत के आम लोगों तक इसकी पहुंच कतई संभव नहीं थी. इसकी प्रक्रिया को समझने पर सरकार को यह एहसास हुआ कि जब तक स्पेक्ट्रम फ़ीस को वाजिब स्तर तक नहीं लाया जाएगा, टेलीकॉम कंपनियां इसकी क़ीमतों को कम नहीं करेंगी और मोबाइल सेवाएं आम भारतीय की पहुंच से बाहर ही रहेंगी. इसके अलावा मोबाइल तकनीक के नए उद्यमी भी इस क्षेत्र में नहीं आ पाएंगे, जिससे इस सेक्टर में ‘बड़े खिलाड़ियों’ का एकाधिकार हो जाएगा और इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का अभाव हो जाएगा, जिससे वाजिब क़ीमतों पर विश्वस्तरीय सेवा का लाभ लेने से हमारे ग्राहक चूक जाएंगे.
मोबाइल सेवाओं को आम आदमी के वहन करने योग्य बनाने और इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के लिए सरकार ने ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की नीति अपनाई. इससे नए मल्टीनैशनल खिलाड़ी, जैसे- डोकोमो, टेलेनॉर, इटिसैलैट जैसी दिग्गज कंपनियां मार्केट में पहले से मौजूद अन्य कंपनियों के साथ मैदान में आ खड़ी हुईं. वर्ष 2009 में जब टाटा-डोकोमो ने अपनी सेवाओं को एक रुपए प्रति मिनट की दर से लॉन्च किया तो मोबाइल कॉल्स की क़ीमत लैंड लाइन के बराबर आ गई. अब यह न सिर्फ़ मध्यम वर्ग के लिए, बल्कि ग़रीब लोगों के लिए भी वहनीय हो गया. आज मोबाइल सेवाओं के सब्स्क्राइबर्स में सब्ज़ी वाला, धोबी, अख़बार वाला, ड्राइवर आदि सभी शामिल हैं. एक प्रशिक्षित अर्थशास्त्री के लिए भी इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्क़िल होगा कि उस समय की सरकार के इस क़दम ने हमारे देश की जीडीपी में कितना योगदान दिया है.
पर जैसा कि मिस्टर पटेल के केस में हुआ, यहां भी एक ऑडिटर आया, जिसने घोषणा की कि चूंकि हमने स्पेक्ट्रम की नीलामी नहीं की इसलिए इससे 1.76 लाख करोड़ रुपए का घाटा हो गया. 1.76 लाख करोड़ का यह आंकड़ा, पहले से ही उधार बैठे विपक्ष और टीआरपी की भूखी मीडिया ने तुरंत हथिया लिया. और उसके बाद की बातें तो हम सभी जानते हैं. इसके बाद भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया. इस पूरी घटना ने उस समय की सरकार की छवि को भ्रष्ट साबित कर दिया और जिसका नतीजा वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में सामने आ गया.
वर्ष 2000 में औसतन 1000 रुपए में उपलब्ध मोबाइल सेवाओं के बिल प्लान आज 199 रुपए पर उपलब्ध हैं. वह जनता, जो इस नीतिगत बदलाव की वजह से फ़ायदे में रही, वही उस सरकार के ख़िलाफ़ हो गई, जिसने अपनी नीति में बदलाव कर उस तक यह फ़ायदा पहुंचाया. यह क्यों हुआ? क्योंकि वह सरकार अपने वोटर्स को यह समझाने में चूक गई कि नीलामी की नीति को बदलने की वजह से ही तो ग्राहक को मोबाइल सेवाओं के लिए कम शुल्क का भुगतान करना पड़ रहा है.
राजनीति नज़रिए का खेल है और यदि आप इतने कमज़ोर और ढीले पड़ जाएं कि अपनी अच्छी नीयत वाली नीतियों को भी साधारण भाषा में आम जनता को न समझा सकें तो आपको वही जगह मिलेगी, जहां आप आज मौजूद हैं.
जहां तक बात उस समय के विपक्ष की है तो वे इस नाक़ाबिलियत का फ़ायदा उठाते हुए आज सत्ता का सुख ले रही है. मीडिया ने तो इस मुद्दे की तह तक पहुंचने की ज़हमत ही नहीं उठाई, क्योंकि वे मुद्दे की तहकीकात की बजाय अपनी टीआरपी को उठाने में जुटे रहे. लेकिन लंबे समय में इस पूरी घटना में अंतत हार भारत के आम आदमी की होगी, क्योंकि जिन मल्टीनैशनल कंपनियों ने इस 2जी डील में भारत में निवेश कर घाटा उठाया है, वे भारत से बाहर जा चुकी हैं. और यह टेलीकॉम क्षेत्र जहां पहले उम्मीद की कई किरणें मौजूद थी आज वहां केवल दो ही कंपनियों का दबदबा है. और यह बात तो इकोनॉमिक्स का पहले साल का कोई छात्र भी बता देगा कि किसी भी बाज़ार में किसी भी कंपनी का एकाधिकार होना ग्राहकों की सेहत के लिए बिल्कुल अच्छा नहीं होता.
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