महानगरीय जीवन की आपाधापी में सुबह के बाद अब सीधे रात होने लगी है. खोई हुई इसी शाम की तलाश कर रही है डॉ कनकलता तिवारी की कविता ‘अब शाम नहीं होती’.
कितना बदल गया है मौसम
के अब शाम नहीं होती
भागते दिन सीधे ही
थकी हुई रातों में बदल जाते हैं
दौड़ते-दौड़ते सपने तो
सिर्फ़ आहों में बदल जाते हैं
बेरंग ज़िंदगी की रातें तमाम नहीं होती
जाने अब क्यूं शाम नहीं होती
याद आते हैं वो दिन
जब सुबह की खिली धूप
जाती थी फिर अस्ताचल को
उसके पहले ही हल्की सी
ठंडी सी खुमारी छू लेती थी आंचल को
अब तो अनदेखी ख़ुशनुमा महक आम नहीं होती
जाने अब क्यूं शाम नहीं होती
क्या हम ढूंढ़ सकेंगे वो पल
जो बस सिर्फ़ हमारे थे
नहीं फंसे थे जंजालों में
हम भी किसके प्यारे थे
अब क्यों वो सुहानी याद हमारे नाम नहीं होती
जाने क्यूं अब शाम नहीं होती
कवयित्री: डॉ कनकलता तिवारी
कविता संग्रह: आत्मकथा, जो आत्मकथा नहीं है
प्रकाशक: राहुल पब्लिशिंग हाउस
Illustration: Pinterest