देशभक्ति प्रदर्शित करने के लिए मूर्तियां लगवाने और सड़कों का नाम महापुरुषों के नाम पर रखने की परंपरा बहुत पुरानी है. आरके नारायण की इस कहानी में आज़ादी के बाद उमड़ी देशभक्ति प्रदर्शित करने की लहर का मज़ेदार ब्यौरा है.
बहुत सालों तक मालगुडी के लोगों को पता ही न था कि यहां कोई म्युनिसपैलिटी भी है. और इससे क़स्बे का कोई नुक़सान भी न था. बीमारियां अगर वे शुरू भी होतीं, तो कुछ दिन बाद ख़ुद ही ख़त्म भी हो जातीं-ख़त्म तो उन्हें होना ही होता है. धूल और गंदगी को हवा उड़ा ले जाती, नालियां भरकर बह निकलतीं लेकिन ख़ुद ही ख़ाली भी हो जातीं. म्युनिसपैलिटी को ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत ही न पड़ती. लेकिन 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद होने के बाद अचानक दृश्य बदलने लगा. उस दिन देश भर में हिमालय से कन्याकुमारी तक जितने जोशखरोश के साथ जश्न मनाया गया, उसकी दुनिया में, इतिहास में दूसरी कोई मिसाल नहीं है. हमारी म्युनिसपल कॉरपोरेशन भी उत्साह से भर उठी. सारी सड़कों पर झाड़ू लगायी गई, नालियों का कचरा साफ़ किया गया और हर मुहल्ले में झंडे फहराए गए. झंडों के तले गाते-बजाते, बड़ी धूमधाम से जुलूस निकाले गए.
म्युनिसपल चेयरमैन ने बालकनी पर खड़े होकर संतोषपूर्वक कहा,“इस महान् अवसर पर हमने भी काफ़ी कुछ कर लिया.” मेरा ख़याल है कि कमेटी के जो सदस्य उनके साथ थे, उनमें से एक-दो ने, उनकी आंखों में आंसू भी देखे. उन्होंने लड़ाई के ज़माने में सेना को कम्बल बेचकर बड़ी आमदनी की थी और बाद में उस पैसे का उपयोग चेयरमैन का पद प्राप्त करने में किया था. यह भी अपने-आप में एक लम्बी कहानी है लेकिन यहां हम उसका ज़िक्र नहीं करेंगे. यहां मैं एक दूसरी ही कहानी बताने जा रहा हूं.
चेयरमैन को आज़ादी का जश्न मनाने में जो ख़ुशी हासिल हुई, वह ज़्यादा देर तक नहीं रही. हफ़्ते भर बाद जब झंडे वगैरह उतार लिए गए, वे बहुत निरुत्साहित हो उठे. मैं उनसे मिलने प्रायः हर रोज़ जाता था, क्योंकि राजधानी से निकलने वाले एक अख़बार के लिए मैं ख़बरें भेजने का काम करता था जिसके लिए वे दो इंच छपी ख़बर के लिए दो रुपये के हिसाब से पारिश्रमिक देते थे. इस तरह हर महीने इसमें दस इंच के क़रीब मेरी भेजी ख़बरें छप जाती थीं, जो ज़्यादातर उसके कामों का अच्छा पक्ष ही सामने रखती थीं. इस कारण मैं उनका प्रिय व्यक्ति भी बन गया था. मैं चेयरमैन के दफ़्तर में आता-जाता ही रहता था. अब वे इतने उदास दिखे कि मुझे पूछना ही पड़ा,“क्या बात है, चेयरमैन साहब?”
“मुझे लगता है कि हमने ज़्यादा कुछ नहीं किया है” वे बोले.
“किस बारे में?”
“इस महत्वपूर्ण दिन की महिमा बढ़ाने के लिए.”
वे कुछ देर सोचते रहे, फिर कहने लगे,“जो हो, मैं इसके लिए कुछ बड़ा काम ज़रूर करूंगा.”
सबने तुरंत फ़ैसला कर लिया कि आज़ादी के सम्मान में शहर की सभी सड़कों और पार्कों के नाम बदलकर महापुरुषों के नामों पर रख दिए जाएंगे.
इसकी शुरुआत मार्केट स्क्वायर के पार्क से की गई. अब तक इसे कारोनेशन, यानी राजगद्दी पार्क के नाम से जाना जाता था, हालांकि यह किसी को स्पष्ट नहीं था कि किसकी राजगद्दी, रानी विक्टोरिया की या सम्राट अशोक की. अब पुराने बोर्ड को हटाकर मैदान में डाल दिया गया और उसके स्थान पर ‘हमारा हिन्दुस्तान पार्क’ का नया बोर्ड शान से लगा दिया गया.
इसके बाद दूसरा परिवर्तन स्वीकार करने में बड़ी दिक्कतें पेश आयीं. महात्मा गांधी रोड सबसे आकर्षक नाम था. आठ विभिन्न वार्डों के प्रतिनिधि यह नाम अपने यहां की सड़क के लिए चाहते थे. छह और प्रतिनिधि थे, जो चाहते थे कि उनके घर के सामने की सड़क का नाम नेहरू रोड या नेताजी सुभाष बोस रख दिया जाए. झगड़ा इस क़दर बढ़ा कि मुझे लगा, कहीं मार-पीट न हो जाए! एक क्षण तो ऐसा आया कि पूरी कमेटी पागल हो उठी. उसने तय किया कि चार अलग-अलग सड़कों को एक ही नाम दे दिया जाए. अब जनाब, दुनिया के सबसे ज़्यादा लोकतंत्री या देशभक्त देश में भी यह नहीं हो सकता कि दो जगहों को एक ही नाम दे दिया जाए.
ख़ैर, नाम बदल दिए गए और पंद्रह दिन में हालत यह हो गई कि नए नामों के कारण यह बताना मुश्क़िल हो गया कि कौन-सी जगह कहां है. मार्केट रोड, नार्थ रोड, चित्रा रोड, विनायक मुदाली स्ट्रीट-सब नाम ख़त्म हो गए. इनके स्थान पर नए नाम आ गए. चार जगहों के एक ही नाम, और सब मंत्रियों, उपमंत्रियों और कौंसिल सदस्य सभी के नाम रख दिए गए. लेकिन इससे गड़बड़ बहुत हो गई, चिट्ठियां जहां पहुंचनी होतीं, वहां न पहुंचकर पता नहीं कहां पहुंच जातीं! लोग ठीक से बता नहीं पाते थे कि वे कहां रहते हैं. पुराने परिचित नामों के बदल जाने से शहर जंगल में बदल गया.
चेयरमैन यह काम करके बहुत ख़ुश था लेकिन यह ख़ुशी ज़्यादा दिन न रही. कुछ दिन बाद उस पर फिर एक दौरा पड़ा कि कुछ और काम करना चाहिए!
लॉली एक्स्टेंशन और मार्केट के मिलन-स्थल पर एक मूर्ति लगी थी. लोग इस मूर्ति के इतने अभ्यस्त हो गए थे कि वे उसे न देखते थे और न जानते थे कि यह किसकी मूर्ति है. चेयरमैन को अचानक याद आया कि यह सर फ़्रेडरिक लॉली की मूर्ति है. उसी के नाम पर एक्सटेंशन का नाम रखा गया था. अब इसका नाम गांधी नगर रख दिया गया था, इसलिए इस मूर्ति की यहां ज़रूरत नहीं थी. कमेटी ने एकमत से इसे हटाने का फ़ैसला कर लिया. चेयरमैन के साथ सब सदस्य दूसरे दिन मूर्ति के पास पहुंचे, तब उन्हें पता चला कि मूर्ति उनसे भी बीस फीट ऊंची है और उसकी नींव में पिघला सीसा भरा है. उन्होंने पहले यह सोचा था कि अपने निश्चय की ताक़त से वे इस क्षत्रप की मूर्ति को वहां से हटा देंगे, लेकिन अब उन्होंने पाया कि यह तो पर्वत की तरह मज़बूत आधार पर खड़ी है. अब उन्हें ज्ञात हुआ कि अंग्रेज़ों ने उनके देश में अपना साम्राज्य बहुत मज़बूत आधार पर खड़ा किया था.
लेकिन इससे कमेटी का निश्चय और भी दृढ़ हुआ. मूर्ति हटाने के लिए शहर का कुछ हिस्सा तोड़ना भी पड़ जाए, तो भी वे पीछे नहीं हटेंगे. उन्होंने सर फ़्रेडरिक लॉली का इतिहास भी खोज निकाला. उन्हें पता चला कि लॉली यूरोप के शैतान एटिला द हूण और नादिरशाह का सम्मिश्रण था और मेकियावेली की तरह चालाक था. उसने तलवार के बल पर भारतवासियों पर अधिकार जमाया और जहां से भी विरोध की ज़रा-सी भी ख़बर आती, उस जगह को बरबाद करके ही दम लेता. वह भारतीयों से तब तक नहीं मिलता था जब तक वे घुटनों के बल चलकर उसके पास नहीं आते थे.
लोग रोज़मर्रा का कामकाज छोड़कर मूर्ति के इर्द-गिर्द घूमकर सोचने लगे कि उन्होंने इस आदमी को इतने दिन तक बरदाश्त कैसे किया! अब वह सामने खड़ा नफ़रत की मुस्कान से उन्हें देख रहा था-उसके हाथ पीछे बंधे थे और कमर से तलवार लटक रही थी. इसमें संदेह नहीं कि वह इतिहास का सबसे ज़ालिम शासक था-जिनकी तस्वीर विग लगाए, ब्रीचेज और सफ़ेद वेस्टकोट पहने, सख़्त नज़र से सामने देखते, भारतीय इतिहास में ब्रिटिश युग के शासकों की तस्वीर, सबको याद है. वे यह सोच-सोचकर कांपने लगे कि ऐसे कठोर शासक के अधीन उनके पूर्वज किस प्रकार जीवन बिताते रहे होंगे!
इसके बाद कमेटी ने इस काम के लिए टेंडर मांगे. एक दर्ज़न ठेकेदारों ने टेंडर भरे, जिनमें से सबसे कम पचास हज़ार रुपये का था. मूर्ति को वहां से हटाकर कमेटी के दफ़्तर तक पहुंचाना था, जहां यह विचार किया जा रहा था कि इसे रखा कहां जाएगा! चेयरमैन ने सोच-विचारकर मुझे बुलाया और कहा,“तुम इसे क्यों नहीं ले जाते? अगर तुम इसे अपने ख़र्च से उठा ले जाओ तो मैं तुम्हें यह मुफ़्त में दे दूंगा.”
अभी तक मैं सोचता था कि कमेटी के लोग पागल हैं लेकिन अब मैंने पाया कि मैं भी उन्हीं की तरह पागल हूं. अब मैं मूर्ति से होने वाले लाभ का हिसाब-किताब बिठाने लगा. अगर मूर्ति को तोड़ने और यहां तक लाने में मेरे पांच हज़ार रुपये ख़र्च होते हैं-मैं जानता था कि ठेकेदार बहुत ज़्यादा पैसा मांग रहे हैं-और इसकी धातु की बिक्री से मुझे छह हज़ार प्राप्त होते हैं, तीन टन धातु का पैसा बहुत ज़्यादा भी मिल सकता है. मैं इसे ब्रिटिश म्यूज़ियम या वेस्टमिन्सटर को भी बेच सकता हूं. तब फिर मैं अख़बार को ख़बरें भेजने का काम छोड़ सकूंगा.
कमेटी ने बहुत जल्द मूर्ति मुझे मुफ़्त दे देने का प्रस्ताव पास कर दिया. अब मैं काम करने की तैयारी करने लगा. मैंने बहुत ज़्यादा ब्याज देने का लालच देकर अपने ससुर से रुपया उधार लिया. पचास कुलियों की टीम बनायी, जो मूर्ति की नींव उखाड़ने का काम करेंगे. मैं उनके ऊपर ग़ुलामों से काम लेने वाले मालिक की तरह खड़ा हो गया और ज़ोर-ज़ोर से हुक्म देने लगा. वे शाम को छह बजे कार्य बन्द कर देते थे और सवेरे फिर शुरू कर देते थे. मैं उन्हें ख़ासतौर से कोप्पल गांव से लाया था, जहां के लोग मेम्मी जंगल के पेड़ काटने से मज़बूत हो जाते हैं.
दस दिन तक फावड़े चलते रहे. नींव में जहां-तहां थोड़ी-बहुत दरारें पड़ीं लेकिन इससे ज़्यादा कुछ न हो सका. मूर्ति जगह से हिलने का नाम नहीं ले रही थी. मुझे डर लगा कि इस तरह तो पंद्रह दिन में मेरा दिवाला निकल जाएगा. अब मैंने ज़िला मजिस्ट्रेट से डायनामाइट के कुछ टुकड़े ख़रीदने की आज्ञा प्राप्त की और उस क्षेत्र में लोगों का आना-जाना रोककर डायनामाइट में आग लगा दी. मूर्ति ढह गई और किसी को चोट भी नहीं लगी.
फिर इसे घर तक पहुंचाने में तीन दिन लगे. ख़ासतौर से बनायी एक गाड़ी में इसे रखकर कई बैल उसे धीरे-धीरे खींचकर ले गए. रास्ते में आवागमन काफ़ी देर तक बंद रहा, लोग मुझ पर हंसते और फब्तियां कसते दूर तक साथ रहे, और दिन की सख़्त गर्मी में मैं तरह-तरह के आदेश देता साथ चला. हर ऊंची-नीची जगह और कोने पर मूर्ति को रुकना पड़ता, जहां वह न आगे बढ़ पाती न पीछे हटती, रास्ते बंद हो जाते, औधेरा बढ़ता जाता.
यह सारी कहानी अब मैं दोहराना नहीं चाहता. फिर रात-भर सड़क पर पड़ी मूर्ति के पास बैठा मैं इस पर पहरा देता रहा. सर फ़्रेडरिक पीठ के बल ज़मीन पर पड़े खुली आंखों से ऊपर आसमान के तारे निहारते रहे. मुझे उनकी इस स्थिति पर अफ़सोस भी हुआ, कहा,“आप को कठोर साम्राज्यवादी होने के कारण यह दिन देखना पड़ रहा है. बुराई का नतीजा अच्छा नहीं होता.”
फिर इसे मेरे छोटे से घर में आराम से रख दिया गया. सामने के कमरे में सिर और धड़ रखा गया और पेट तथा पैर दरवाज़े से बाहर निकालकर सड़क पर रख दिए गए. मेरी कबीर गली के लोगों ने रास्ता रुकने का बुरा नहीं माना और ख़ुशी से हर परेशानी को स्वीकार कर लिया.
म्युनिसपल कमेटी ने मुझे धन्यवाद का प्रस्ताव पास किया. यह ख़बर मैंने अपने अख़बार को भेजी, जिसके साथ दस इंच लम्बी इसकी पूरी कहानी भी बयान कर दी.
एक हफ़्ते बाद चेयरमैन साहब बहुत परेशान हालत में मेरे घर आ पहुंचे. मैंने ज़ालिम के सीने पर उन्हें बिठा दिया. वे बोले,“तुम्हारे लिए बुरी ख़बर है. तुम वह ख़बर अख़बार में छपने न भेजते तो अच्छा होता. यह देखो…” और उन्होंने बहुत-से टेलीग्राम मेरी ओर बढ़ा दिए.
ये तार भारत की क़रीब-क़रीब सभी ऐतिहासिक संस्थाओं से आए थे जिनमें मूर्ति को हटाने का विरोध किया गया था. हमें सर फ़्रेडरिक के बारे में धोखा हुआ था. लॉली नाम का ज़ालिम एक और ही व्यक्ति था, जो सर वारेन हेस्टिंग्स के ज़माने में हुआ था. यह फ़्रेडरिक लॉली एक सैनिक गवर्नर था, जो ग़दर के बाद यहां आकर बस गया था. उसने जंगल साफ़ कराए और मालगुडी क़स्बा बसाया. यहां उसने देश-भर में पहली कोआपरेटिव सोसायटी बनायी, पहला नहर का जाल बिछाया जिससे सरयू नदी का पानी हज़ारों एकड़ बंजर पड़ी धरती की सिंचाई करने लगा. उसने यह और वह बहुत कुछ किया, और सरयू की बाढ़ में ही, जहां वह उसके किनारे रह रहे सैकड़ों लोगों को बचाने गया था, उसकी मृत्यु हुई. वह पहला अंग्रेज़ था जिसने ब्रिटिश शासकों से कहा कि देश चलाने के मामलों में भारतीयों को शामिल करना चाहिए. अपने एक पत्र में उसने कहा था,“ब्रिटेन को किसी दिन स्वयं अपने हित में भारत छोड़ना पड़ेगा.”
चेयरमैन ने कहा,“सरकार ने हमें मूर्ति को वापस लगाने का आदेश दिया है.”
“यह असम्भव है”, मैंने ज़ोर देकर कहा,“अब यह मूर्ति मेरी है और इसे मैं ही रखूंगा. मैं राष्ट्रीय नेताओं की मूर्तियां इकट्ठा करता हूं.”
लेकिन इससे कोई प्रभावित नहीं हुआ. एक हफ़्ते में देश-भर के सब अख़बारों में सर फ़्रेडरिक लॉली की चर्चा होने लगी. आम जनता उत्साहित हो उठी. मेरे घर के आगे लोग नारे लगाने और प्रदर्शन करने लगे. उनकी मांग थी कि मूर्ति वापस वहीं लगायी जाए. मैंने हारकर यह कहा कि अगर म्युनिसपल कमेटी इसमें ख़र्च हुआ मेरा पैसा वापस कर दे तो मैं मूर्ति का क़ब्ज़ा छोड़ दूंगा. जनता मुझे अपना दुश्मन समझने लगी.
“यह आदमी मूर्ति के साथ चोरबाज़ारी कर रहा है,’’ उनका स्पष्ट मत था.
दुःखी होकर मैंने मूर्ति को बिक्री के लिए पेश कर दिया. एक बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा,“मूर्ति बिकाऊ है. ढाई टन बढ़िया धातु-आप किसी देशभक्त मित्र को इसे भेंट में दे सकते हैं-दस हज़ार रुपये से कम के आवेदनों पर विचार नहीं किया जाएगा.”
इससे लोग और भी भड़क उठे. चाहने लगे कि लात-घूंसों से मुझे मारें, लेकिन देश में अहिंसा की परम्परा होने के कारण उन्होंने मेरे घर की पिकेटिंग करने का फ़ैसला किया. वे झंडा हाथ में लेकर घर के आगे लेट गए और नारों से सड़क गूंजने लगे. एक थक जाता तो दूसरा उसकी जगह ले लेता और इस तरह पारियां बनाकर यह सत्याग्रह चलाया जाने लगा.
घर में मूर्ति रखने की जगह बनाने के लिए मैंने पली और बच्चों को गांव भेज दिया था, इसलिए पिकेटिंग से मुझे कोई विशेष परेशानी नहीं हुई-हां मुझे पीछे का रास्ता ज़्यादा इस्तेमाल करना पड़ता था. म्युनिसपल कमेटी ने मुझे प्राचीन वस्तुओं की सुरक्षा क़ानून के तहत एक नोटिस भेजा, जिसका मैंने समुचित उत्तर दे दिया. अब क़ानूनी दांव-पेंचों की लड़ाई शुरू हो गई-मेरे और कमेटी के वक़ील के बीच. इसका एक दुष्परिणाम यह भी था कि लम्बे-लम्बे पत्र-व्यवहार के ढेरों काग़ज़ों से घर का रहा-सहा हिस्सा भी ठसाठस भर गया.
मैं मन में यह सोचने लगा कि यह मामला किस तरह ख़त्म होगा-कब वह दिन आएगा जब मैं घर में पैर फैलाकर सो सकूंगा!
छह महीने बाद उपाय सामने आया. सरकार ने म्युनिसपैलिटी से मूर्ति के बारे में रिपोर्ट की मांग की और इस तथा इसके अलावा उसकी और भी ख़ामियों के तहत सरकार ने पूछा कि कमेटी को क्यों न भंग कर दिया जाए और नए चुनाव कराए जाएं. मैं चेयरमैन से जाकर मिला और कहा,“अब आपको चाहिए कि कोई बड़ा काम कर दिखाएं. क्यों न आप मेरा घर लेकर उसे राष्ट्रीय स्मारक बना दें?”
“यह मैं क्यों करूं?” उन्होंने पूछा.
“क्योंकि सर फ़्रेडरिक वहां हैं,’’ मैंने उत्तर दिया,“आप मूर्ति को पुरानी जगह नहीं ले जा सकेंगे. यह जनता के धन की बर्बादी होगी. इसलिए जहां वह है, उसी जगह उसे स्मारक के रूप में बदल दें. मैं सही क़ीमत पर अपना घर आपको देने को तैयार हूं.”
“लेकिन कमेटी के पास इतना पैसा कहां है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.
“मैं जानता हूं कि ख़ुद आपके पास बहुत पैसा है. कमेटी के पैसों पर आप क्यों निर्भर करते हैं? यह आपका ऐसा काम होगा कि लोग दंग रह जाएंगे, देश-भर में किसी ने ऐसा काम नहीं किया होगा.”
मैंने उन्हें समझाया कि अपने पैसे से घर ख़रीदकर कमेटी को दे दें, आपका इससे कहीं ज़्यादा पैसा चुनाव लड़ने में ख़र्च हो जाएगा.
इस तरह कहने से बात उनकी समझ में आ गई. वे मान गए और कुछ देर बात करके रक़म भी तय हो गई. कुछ दिन बाद अख़बारों में यह ख़बर छपी तो वे बहुत प्रसन्न हुए,“मालगुडी की म्युनिसपैलिटी के चेयरमैन ने सर फ़्रेडरिक लॉली की मूर्ति वापस ख़रीदकर राष्ट्र को भेंट कर दी है. उन्होंने निश्चय किया है कि नई जगह उसकी स्थापना कर दी जाए. म्युनिसपल कमेटी ने एक प्रस्ताव स्वीकृत करके कबीर गली का नाम बदलकर लॉली रोड रख दिया है.”
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