प्रेम सबको जोड़ता है और घृणा दूरी बढ़ाती है, यह हम सभी मानते हैं. प्रेम के लिए अपना जीवन बलिदान करने वाले प्रेमी युगल की कहानी है ‘तताँरा-वामीरो कथा’. बंगाल की खाड़ी में स्थित अंदमान निकोबार द्वीपसमूह की लोककथा है ‘तताँरा-वामीरो कथा’ जिसे मूलत: कवि लीलाधर मंडलोई ने फिर से लिखा है. तताँरा-वामीरो कथा इसी द्वीपसमूह के छोटे से द्वीप पर केंद्रित है. उक्त द्वीप में आपसी नफ़रत गहरी जड़ें जमा चुकी थी. उस नफ़रत को जड़ मूल से उखाड़ने के लिए एक युगल को आत्मबलिदान देना पड़ा था. उसी युगल के बलिदान की कथा यहां बयान की गई है.
अंदमान द्वीपसमूह का अंतिम दक्षिणी द्वीप है लिटिल अंदमान. यह पोर्ट ब्लेयर से लगभग सौ किलोमीटर दूर स्थित है. इसके बाद निकोबार द्वीपसमूह की शृंखला आरंभ होती है जो निकोबारी जनजाति की आदिम संस्कृति के केंद्र हैं. निकोबार द्वीपसमूह का पहला प्रमुख द्वीप है कार-निकोबार जो लिटिल अंदमान से 96 कि.मी. दूर है. निकोबारियों का विश्वास है कि प्राचीन काल में ये दोनों द्वीप एक ही थे. इनके विभक्त होने की एक लोककथा है जो आज भी दोहराई जाती है.
सदियों पूर्व, जब लिटिल अंदमान और कार-निकोबार आपस में जुड़े हुए थे तब वहां एक सुंदर-सा गांव था. पास में एक सुंदर और शक्तिशाली युवक रहा करता था. उसका नाम था तताँरा. निकोबारी उसे बेहद प्रेम करते थे. तताँरा एक नेक और मददगार व्यक्ति था. सदैव दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहता. अपने गांववालों को ही नहीं, अपितु समूचे द्वीपवासियों की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझता था. उसके इस त्याग की वजह से वह चर्चित था. सभी उसका आदर करते. वक्त मुसीबत में उसे स्मरण करते और वह भागा-भागा वहां पहुंच जाता. दूसरे गांवों में भी पर्व-त्योहारों के समय उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता. उसका व्यक्तित्व तो आकर्षक था ही, साथ ही आत्मीय स्वभाव की वजह से लोग उसके क़रीब रहना चाहते. पारंपरिक पोशाक के साथ वह अपनी कमर में सदैव एक लकड़ी की तलवार बांधे रहता. लोगों का मत था, बावजूद लकड़ी की होने पर, उस तलवार में अद्भुत दैवीय शक्ति थी. तताँरा अपनी तलवार को कभी अलग न होने देता. उसका दूसरों के सामने उपयोग भी न करता. किंतु उसके चर्चित साहसिक कारनामों के कारण लोग-बाग तलवार में अद्भुत शक्ति का होना मानते थे. तताँरा की तलवार एक विलक्षण रहस्य थी.
एक शाम तताँरा दिनभर के अथक परिश्रम के बाद समुद्र किनारे टहलने निकल पड़ा. सूरज समुद्र से लगे क्षितिज तले डूबने को था. समुद्र से ठंडी बयारें आ रही थीं. पक्षियों की सायंकालीन चहचहाहटें शनैः शनैः क्षीण होने को थीं. उसका मन शांत था. विचारमग्न तताँरा समुद्री बालू पर बैठकर सूरज की अंतिम रंग-बिरंगी किरणों को समुद्र पर निहारने लगा. तभी कहीं पास से उसे मधुर गीत गूंजता सुनाई दिया. गीत मानो बहता हुआ उसकी तरफ़ आ रहा हो. बीच-बीच में लहरों का संगीत सुनाई देता. गायन इतना प्रभावी था कि वह अपनी सुध-बुध खोने लगा. लहरों के एक प्रबल वेग ने उसकी तंद्रा भंग की. चैतन्य होते ही वह उधर बढ़ने को विवश हो उठा जिधर से अब भी गीत के स्वर बह रहे थे. वह विकल सा उस तरफ़ बढ़ता गया. अंततः उसकी नज़र एक युवती पर पड़ी जो ढलती हुई शाम के सौंदर्य में बेसुध, एकटक समुद्र की देह पर डूबते आकर्षक रंगों को निहारते हुए गा रही थी. यह एक शृंगार गीत था.
उसे ज्ञात ही न हो सका कि कोई अजनबी युवक उसे नि:शब्द ताके जा रहा है. एकाएक एक ऊंची लहर उठी और उसे भिगो गई. वह हड़बड़ाहट में गाना भूल गई. इसके पहले कि वह सामान्य हो पाती, उसने अपने कानों में गूंजती गंभीर आकर्षक आवाज़ सुनी.
‘तुमने एकाएक इतना मधुर गाना अधूरा क्यों छोड़ दिया?’ तताँरा ने विनम्रतापूर्वक कहा.
अपने सामने एक सुंदर युवक को देखकर वह विस्मित हुई. उसके भीतर किसी कोमल भावना का संचार हुआ. किंतु अपने को संयत कर उसने बेरुखी के साथ जवाब दिया.
‘पहले बताओ! तुम कौन हो, इस तरह मुझे घूरने और इस असंगत प्रश्न कारण? अपने गांव के अलावा किसी और गांव के युवक के प्रश्नों का उत्तर देने को बाध्य नहीं. यह तुम भी जानते हो.’
तताँरा मानो सुध-बुध खोए हुए था. जवाब देने के स्थान पर उसने पुनः अपना प्रश्न दोहराया.
‘तुमने गाना क्यों रोक दिया? गाओ, गीत पूरा करो. सचमुच तुमने बहुत सुरीला कंठ पाया है.’
‘यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर न हुआ?’ युवती ने कहा.
‘सच बताओ तुम कौन हो? लपाती गांव में तुम्हें कभी देखा नहीं.’
तताँरा मानो सम्मोहित था. उसके कानों में युवती की आवाज़ ठीक से पहुंच न सकी. उसने पुनः विनय की,‘तुमने गाना क्यों रोक दिया? गाओ न?’
युवती हुंझला उठी. वह कुछ और सोचने लगी. अंततः उसने निश्चयपूर्वक एक बार पुनः लगभग विरोध करते हुए कड़े स्वर में कहा. ‘ढीठता की हद है. मैं जब से परिचय पूछ रही हूं और तुम बस एक ही राग अलाप रहे हो. गीत गाओ-गीत गाओ, आखिर क्यों? क्या तुम्हें गांव का नियम नहीं मालूम?’ इतना बोलकर वह जाने के लिए तेज़ी से मुड़ी. तताँरा को मानो कुछ होश आया. उसे अपनी ग़लती का अहसास हुआ. वह उसके सामने रास्ता रोककर, मानो गिड़गिड़ाने लगा.
‘मुझे माफ़ कर दो. जीवन में पहली बार मैं इस तरह विचलित हुआ हूं. तुम्हें देखकर मेरी चेतना लुप्त हो गई थी. मैं तुम्हारा रास्ता छोड़ दूंगा. बस अपना नाम बता दो.’ तताँरा ने विवशता में आग्रह किया. उसकी आंखें युवती के चेहरे पर केंद्रित थीं. उसके चेहरे पर सच्ची विनय थी.
‘वा… मी… रो…’ एक रस घोलती आवाज़ उसके कानों में पहुंची.
‘वामीरो… वा… मी… रो… वाह कितना सुंदर नाम है. कल भी आओगी न यहां?’ तताँरा ने याचना भरे स्वर में कहा.
‘नहीं… शायद… कभी नहीं.’ वामीरो ने अन्यमनस्कतापूर्वक कहा और झटके से लपाती की तरफ़ बेसुध सी दौड़ पड़ी. पीछे तताँरा के वाक्य गूंज रहे थे.
‘वामीरो… मेरा नाम तताँरा है. कल मैं इसी चट्टान पर प्रतीक्षा करूँगा… तुम्हारी बाट जोहूंगा… ज़रूर आना…’
वामीरो रुकी नहीं, भागती ही गई. तताँरा उसे जाते हुए निहारता रहा.
वामीरो घर पहुंचकर भीतर ही भीतर कुछ बेचैनी महसूस करने लगी. उसके भीतर तताँरा से मुक्त होने की एक झूठी छटपटाहट थी. एक झल्लाहट में उसने दरवाज़ा बंद किया और मन को किसी और दिशा में ले जाने का प्रयास किया. बार-बार तताँरा का याचना भरा चेहरा उसकी आंखों में तैर जाता. उसने तताँरा के बारे में कई कहानियां सुन रखी थीं. उसकी कल्पना में वह एक अद्भुत साहसी युवक था. किंतु वही तताँरा उसके सम्मुख एक अलग रूप में आया. सुंदर, बलिष्ठ किंतु बेहद शांत, सभ्य और भोला. उसका व्यक्तित्व कदाचित वैसा ही था जैसा वह अपने जीवन-साथी के बारे में सोचती रही थी. किंतु एक दूसरे गांव के युवक के साथ यह संबंध परंपरा के विरुद्ध था. अतएव उसने उसे भूल जाना ही श्रेयस्कर समझा. किंतु यह असंभव जान पड़ा. तताँरा बार-बार उसकी आंखों के सामने था. निर्निमेष याचक की तरह प्रतीक्षा में डूबा हुआ.
किसी तरह रात बीती. दोनों के हृदय व्यथित थे. किसी तरह आंचरहित एक ठंडा और ऊबाऊ दिन गुज़रने लगा. शाम की प्रतीक्षा थी. तताँरा के लिए मानो पूरे जीवन की अकेली प्रतीक्षा थी. उसके गंभीर और शांत जीवन में ऐसा पहली बार हुआ था. वह अचंभित था, साथ ही रोमांचित भी. दिन ढलने के काफ़ी पहले वह लपाती की उस समुद्री चट्टान पर पहुंच गया. वामीरो की प्रतीक्षा में एक-एक पल पहाड़ की तरह भारी था. उसके भीतर एक आशंका भी दौड़ रही थी. अगर वामीरो न आई तो? वह कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था. सिर्फ प्रतीक्षारत था. बस आस की एक किरण थी जो समुद्र की देह पर डूबती किरणों की तरह कभी भी डूब सकती थी. वह बार-बार लपाती के रास्ते पर नज़रें दौड़ाता. सहसा नारियल के झुरमुटों में उसे एक आकृति कुछ साफ़ हुई… कुछ कुछ और. उसकी खुशी का ठिकाना न रहा. सचमुच वह वामीरो थी. लगा जैसे वह घबराहट में थी. वह अपने को छुपाते हुए बढ़ रही थी. बीच-बीच में इधर-उधर दृष्टि दौड़ाना न भूलती. फिर तेज़ कदमों से चलती हुई तताँरा के सामने आकर ठिठक गई. दोनों शब्दहीन थे. कुछ था जो दोनों के भीतर बह रहा था. एकटक निहारते हुए वे जाने कब तक खड़े रहे. सूरज समुद्र की लहरों में कहीं खो गया था. अंधेरा बढ़ रहा था. अचानक वामीरो कुछ सचेत हुई और घर की तरफ़ दौड़ पड़ी. तताँरा अब भी वहीं खड़ा था… निश्चल… शब्दहीन….
दोनों रोज़ उसी जगह पहुंचते और मूर्तिवत एक-दूसरे को निर्निमेष ताकते रहते. बस भीतर समर्पण था जो अनवरत गहरा रहा था. लपाती के कुछ युवकों ने इस मूक प्रेम को भांप लिया और ख़बर हवा की तरह बह उठी. वामीरो लपाती ग्राम की थी और तताँरा पासा का. दोनों का संबंध संभव न था. रीति अनुसार दोनों को एक ही गांव का होना आवश्यक था. वामीरो और तताँरा को समझाने-बुझाने के कई प्रयास हुए किंतु दोनों अडिग रहे. वे नियमतः लपाती के उसी समुद्री किनारे पर मिलते रहे. अफ़वाहें फैलती रहीं.
कुछ समय बाद पासा गांव में ‘पशु-पर्व’ का आयोजन हुआ. पशु-पर्व में हृष्ट-पुष्ट पशुओं के प्रदर्शन के अतिरिक्त पशुओं से युवकों की शक्ति परीक्षा प्रतियोगिता भी होती है. वर्ष में एक बार सभी गांव के लोग हिस्सा लेते हैं. बाद में नृत्य-संगीत और भोजन का भी आयोजन होता है. शाम से सभी लोग पासा में एकत्रित होने लगे. धीरे-धीरे विभिन्न कार्यक्रम शुरू हुए. तताँरा का मन इन कार्यक्रमों में तनिक न था. उसकी व्याकुल आंखें वामीरो को ढूंढ़ने में व्यस्त थीं. नारियल के झुंड के एक पेड़ के पीछे से उसे जैसे कोई झांकता दिखा. उसने थोड़ा और क़रीब जाकर पहचानने की चेष्टा की. वह वामीरो थी जो भयवश सामने आने में झिझक रही थी. उसकी आंखें तरल थीं. होंठ कांप रहे थे. तताँरा को देखते ही वह फूटकर रोने लगी. तताँरा विह्वल हुआ. उससे कुछ बोलते ही नहीं बन रहा था. रोने की आवाज़ लगातार ऊंची होती जा रही थी. तताँरा किंकर्तव्यविमूढ़ था. वामीरो के रुदन स्वरों को सुनकर उसकी मां वहां पहुंची और दोनों को देखकर आग बबूला हो उठी. सारे गांववालों की उपस्थिति में यह दृश्य उसे अपमानजनक लगा. इस बीच गांव के कुछ लोग भी वहां पहुंच गए. वामीरो की मां क्रोध में उफन उठी. उसने तताँरा को तरह-तरह से अपमानित किया. गांव के लोग भी तताँरा के विरोध में आवाजें उठाने लगे. यह तताँरा के लिए असहनीय था. वामीरो अब भी रोए जा रही थी. तताँरा भी ग़ुस्से से भर उठा. उसे जहां विवाह की निषेध परंपरा पर क्षोभ था वहीं अपनी असहायता पर खीझ. वामीरो का दुख उसे और गहरा कर रहा था. उसे मालूम न था कि क्या क़दम उठाना चाहिए? अनायास उसका हाथ तलवार की मूठ पर जा टिका. क्रोध में उसने तलवार निकाली और कुछ विचार करता रहा. क्रोध लगातार अग्नि की तरह बढ़ रहा था. लोग सहम उठे. एक सन्नाटा-सा खिंच गया. जब कोई राह न सूझी तो क्रोध का शमन करने के लिए उसमें शक्ति भर उसे धरती में घोंप दिया और ताक़त से उसे खींचने लगा. वह पसीने से नहा उठा. सब घबराए हुए थे. वह तलवार को अपनी तरफ़ खींचते-खींचते दूर तक पहुंच गया. वह हांफ रहा था.
अचानक जहां तक लकीर खिंच गई थी, वहां एक दरार होने लगी. मानो धरती दो टुकड़ों बंटने लगी हो. एक गड़गड़ाहट-सी गूंजने लगी और लकीर की सीध में धरती फटती ही जा रही थी. द्वीप के अंतिम सिरे तक तताँरा धरती को मानो क्रोध में काटता जा रहा था. सभी भयाकुल हो उठे. लोगों ने ऐसे दृश्य की कल्पना न की थी, वे सिहर उठे. उधर वामीरो फटती हुई धरती के किनारे चीखती हुई दौड़ रही थी-तताँरा… तताँरा… तताँरा उसकी करुण चीख मानो गड़गड़ाहट में डूब गई. तताँरा दुर्भाग्यवश दूसरी तरफ़ था. द्वीप के अंतिम सिरे तक धरती को चाकता वह जैसे ही अंतिम छोर पर पहुंचा, द्वीप दो टुकड़ों में विभक्त हो चुका था. एक तरफ़ तताँरा था दूसरी तरफ़ वामीरो. तताँरा को जैसे ही होश आया, उसने देखा उसकी तरफ़ का द्वीप समुद्र में धंसने लगा है. वह छटपटाने लगा उसने छलांग लगाकर दूसरा सिरा थामना चाहा किंतु पकड़ ढीली पड़ गई. वह नीचे की तरफ़ फिसलने लगा. वह लगातार समुद्र की सतह की तरफ़ फिसल रहा था. उसके मुंह से सिर्फ़ एक
ही चीख उभरकर डूब रही थी, ‘वामीरो… वामीरो… वामीरो… वामीरो…’ उधर वामीरो भी ‘तताँरा… तताँरा… ता… ताँ… रा’ पुकार रही थी.
तताँरा लहूलुहान हो चुका था… वह अचेत होने लगा और कुछ देर बाद उसे कोई होश नहीं रहा. वह कटे हुए द्वीप के अंतिम भूखंड पर पड़ा हुआ था जो कि दूसरे हिस्से से संयोगवश जुड़ा था. बहता हुआ तताँरा कहां पहुंचा, बाद में उसका क्या हुआ कोई नहीं जानता. इधर वामीरो पागल हो उठी. वह हर समय तताँरा को खोजती हुई उसी जगह पहुंचती और घंटों बैठी रहती. उसने खाना-पीना छोड़ दिया. परिवार से वह एक तरह विलग हो गई. लोगों ने उसे ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की किंतु कोई सुराग न मिल सका.
आज न तताँरा है न वामीरो किंतु उनकी यह प्रेमकथा घर-घर में सुनाई जाती है. निकोबारियों का मत है कि तताँरा की तलवार से कार-निकोबार के जो टुकड़े हुए, उसमें दूसरा लिटिल अंदमान है जो कार-निकोबार से आज 96 कि.मी. दूर स्थित है. निकोबारी इस घटना के बाद दूसरे गांवों में भी आपसी वैवाहिक संबंध करने लगे. तताँरा-वामीरो की त्यागमयी मृत्यु शायद इसी सुखद परिवर्तन के लिए थी.
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