देश भले आज़ाद हो गया हो, पर लंबे समय तक अंग्रेज़ों की ग़ुलामी में रहे देश की मानसिकता पुरानी ही बनी रही. लेखक कमलेश्वर की कहानी ‘जॉर्ज पंचम’ की नाक, इसी ग़ुलाम मानसिकता पर करारा व्यंग्य है. ब्रिटेन की महारानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय के भारत यात्रा की ख़बर से कैसे देश की नौकरशाही बेचैन हो उठी क्योंकि दिल्ली में लगी जॉर्ज पंचम की प्रतिमा की नाक ग़ायब थी. जॉर्ज पंचम की नाक की तलाश में कैसे सरकारी विभाग अपनी नाक कटाने को आमादा हो जाते हैं, उसकी रोचक व्याख्या है कहानी ‘जॉर्ज पंचम की नाक’.
यह बात उस समय की है जब इंग्लैंण्ड की रानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय अपने पति के हिन्दुस्तान पधारने वाली थीं. अख़बारों में उनके चर्चे हो रहे थे. रोज़ लन्दन के अख़बारों में ख़बरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए कैसी-कैसी तैयारियां हो रही हैं…. रानी ऐलिजाबेथ का दर्ज़ी परेशान था कि हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और नेपाल के दौरे पर रानी क्या पहनेंगी? उनका सेक्रेटरी और जासूस भी उनके पहले ही इस महाद्वीप का तूफान दौरा करने वाला था.. आखिर कोई मजाक तो था नहीं, ज़माना चूंकि नया था, फ़ौज-फाटे के साथ निकलने के दिन बीत चुके थे इसलिए फ़ोटोग्राफ़रों की फ़ौज तैयार हो रही थी….
इंग्लैंड के अख़बारों की कतरनें हिन्दुस्तान अख़बारों में दूसरे दिन चिपकी नज़र आती थी…. कि रानी ने एक ऐसा हल्के नीले रंग का सूट बनवाया है, जिसका रेशमी कपड़ा हिन्दुस्तान से मंगवाया गया है… कि क़रीब 400 पौंड ख़र्चा उस सूट पर आया है.
रानी ऐलिज़ाबेथ की जन्मपत्री भी छपी. प्रिन्स फ़िलिप के कारनामे छपे, और तो और उनके नौकरो, बावर्चियों खानसामों, अंगरक्षकों की पूरी-की-पूरी जीवनियां देखने में आईं! शाही महल में रहने और पलनेवाले कुत्तों तक की जीवनियां देखने में आईं! शाही महल में रहने और पलने वाले कुत्तों तक की तस्वीरें अख़बारों में छप गईं…
बड़ी धूम थी. बड़ा शोर-शराबा था. शंख इंग्लैंड में बज रहा था, गूंज हिन्दुस्तान में आ रही थी.
इन अख़बारों से हिन्दुस्थान में सनसनी फैल रही थी…. राजधानी में तहलका मचा हुआ था. जो रानी 5000 रुपये का रेशमी सूट पहनकर पालम के हवाई अड्डे पर उतरेगी उसके लिए कुछ तो होना ही चाहिए. कुछ क्या, बहुत कुछ होना चाहिए. जिसके बावर्ची पहले महायुद्ध में जान हथेली पर लेकर लड़ चुके हैं, उसकी शान-शौकत से क्या कहने और वही रानी दिल्ली आ रही है….
नई दिल्ली ने अपनी तरफ देखा और बेसाख़्ता मुंह से निकल गया-वह आएं हमारे घर, ख़ुदा की रहमत… कभी हम उनकों कभी अपने घर को देखते हैं. और देखते-देखते नई दिल्ली का कायापलट होने लगा.
और करिश्मा तो यह था कि किसी ने किसी से नहीं कहा, किसी ने किसी को नहीं देखा-पर सड़कें जवान हो गईं, बुढ़ापे की धूल साफ़ हो गई. इमारतों ने नाज़नीनों की तरह श्रृंगार किया….
लेकिन एक बड़ी मुश्किल पेश थी…. वह थी जार्ज पंचम की नाक! नई दिल्ली में सब कुछ था, सब कुछ होता जा रहा था, सब कुछ हो जाने की उम्मीद थी, पर पंचम की नाक की बड़ी मुसीबत थी! दिल्ली में सब कुछ था…सिर्फ नाक नहीं थी.
इस नाक की भी एक लम्बी दास्तान है. इस नाक के लिए बड़े तहलके मचे थे किसी वक़्त! आन्दोलन हुए थे. राजनीतिक पार्टियों ने प्रस्ताव भी दि्य थे. गर्मागर्म बहसें भी हुई थीं. अख़बारों के पन्ने रंग गए थे. बहस इस बात पर थी कि जार्ज पंचम की नाक रहने दी जाए या हटा दी जाए! और जैसा कि हर राजनीतिक आन्दोलन में होता है, कुछ पक्ष में थे कुछ विपक्ष में और ज़्यादातर लोग खामोश थे. ख़ामोश रहनेवालों की ताक़त दोनों तरफ़ थी…
यह आन्दोलन चल रहा था. जार्ज पंचम की नाक के लिए हथियारबंद पहरेदार तैनात कर दिए गए थे… क्या मजाल कि कोई उनकी नाक तक पहुंच जाए. हिन्दुस्तान में जगह-जगह ऐसी नाकें खड़ी थीं और जिन तक लोगों के हाथ पहुंच गये उन्हें शानों-शौकत के साथ उतारकर अजायबघरों में पहुंचा दिया गया. शाही लाटों की नाकों के लिए गुरिल्ला युद्ध होता रहा…
उसी ज़माने में यह हादसा हुआ-इंडिया गेट के सामने वाली जार्ज पंचम की लाट की नाक एकाएक ग़ायब हो गई! हथियारबंद पहरेदार अपनी जगह तैनात रहे. गश्त लगाते रहे…और लाट चली गई.
रानी आए और नाक न हो! …एकाएक यह परेशानी बढ़ी. बढ़ी सरगर्मी शुरू हुई. देश के ख़ैरख़्वाहों की एक मीटिंग बुलाई गई और मसला पेश किया गया कि क्या किया जाए?’’ वहां सभी एकमत से इस बात पर सहमत थे कि अगर यह नाक नहीं है, तो हमारी भी नाक नहीं रह जाएंगी…
उच्च स्तर पर मशवरे हुए. दिमाग़ खरोंचे गए और यह तय किया गया कि हर हालत में इस नाक का होना बहुत ज़रूरी है. यह तय होते ही एक मूर्तिकार को हुक़्म दिया गया कि फौरन दिल्ली में हाजिर हो. मूर्तिकार यों तो कलाकार था, पर ज़रा पैसे से लाचार था. आते ही उसने हुक्कामों के चेहरे देखे …अजीब परेशानी थी उन चेहरों पर; कुछ लटके हुए थे, कुछ उदास थे और कुछ बदहवास थे. उनकी हालत देखकर लाचार कलाकार की आंखों में आंसू आ गए …तभी एक आवाज़ सुनाई दी ‘‘मूर्तिकार! जार्ज पंचम की नाक लगनी है.’’
मूर्तिकार ने सुना और जवाब दिया नाक लग जाएगी पर मुझे पता होना चाहिए कि यह लाट कब और कहां बनी थी? इस लाट के लिए पत्थर कहां से लाया गया था?’’
सब हुक्कामों ने एक -दूसरे की तरफ ताका…एक की नज़र ने दूसरे से कहा कि यह बताना ज़िम्मेदारी तुम्हारी है! खैर मामला हल हुआ. एक क्लर्क को फ़ोन किया गया और इस बात की पूरी छानबीन करने का काम सुपुर्द कर दिया गया!…. पुरातत्त्व विभाग की फ़ाइलों के पेट चीरे गए, पर कुछ भी पता नहीं चला. क्लर्क ने लौटकर कमेटी के सामने कांपते हुए बयान किया- ‘‘सर! मेरी खता माफ़ हो फाइलें सब कुछ हज़म कर चुकी हैं!’’
हुक्मरानों के चेहरों पर उदासी के बादल छा गए. एक खास कमेटी बनाई गई और उसके जिम्मे यह काम दे दिया गया कि जैसे भी हो यह काम होना है और इस नाक का दारोमदार आप पर है. आखिर मूर्तिकार को फिर बुलाया गया…उसने मसला हल कर दिया. वह बोला,‘पत्थर की किस्म का ठीक पता नहीं चलता, तो परेशान मत होइए…मैँ हिन्दुस्तान के हर पहाड़ पर जाऊंगा और ऐसा ही पत्थर खोजकर लाऊंगा!’ कमेटी के सदस्यों की जान-में-जान आई. सभापति ने चलते-चलते गर्व से कहा,‘ऐसी क्या चीज़, हैं जो अपने हिन्दुस्तान में मिलती नहीं. हर चीज़ इस देश के गर्भ में छिपी है…ज़रूरत खोज लाने की है…खोज करने के लिए मेहनत करनी होगी, इस मेहनत का फल हमें मिलेगा…आने वाला ज़माना ख़ुशहाल होगा.’
वह छोटा-सा भाषण फौरन अख़बारों में छप गया.
मूर्तिकार हिन्दुस्तान के पहाड़ी प्रदेशों और पत्थरों की खानों के दौरे पर निकल पड़े. कुछ दिन बाद वह हताश लौटे, उनके चेहरे पर लानत बरस रही थी, उन्होंने सिर लटकाकर ख़बर दी…‘हिन्दुस्तान का चप्पा-चप्पा खोज डाला, पर इस किस्म का पत्थर कहीं नहीं मिला. यह पत्थर विदेशी है!’
सभापति ने तैश में आकर कहा,‘लानत है आपकी अक्ल पर! विदेशों की सारी चीज़ हम अपना चुके हैं…दिल-दिमाग़, तौर-तरीक़े और रहन-सहन…जब हिन्दुस्तान में बाल डांस तक मिल जाता है तो पत्थर क्यों नहीं मिल सकता?’
मूर्तिकार चुप खड़ा था. सहसा उसकी आंखों में चमक आ गई. उसने कहा,‘एक बात मैं कहना चाहूंगा, लेकिन इस शर्त पर कि यह बात अख़बारवालों तक न पहुंचे…’
सभापति की आंखों में भी चमक आई. चपरासी को हुक्म हुआ और कमरे के सब दरवाज़े बन्द कर दिए गए. तब मूर्तिकार ने कहा,‘देश में अपने नेताओं की मूर्तियां भी हैं…अगर इजाजत हो…अगर आप लोग ठीक समझें, तो मेरा मतलब है, तो…जिसकी नाक इस लाट पर ठीक बैठे. उसे उतार लाया जाए…’
सबने सबकी तरफ़ देखा. सबकी आंखों में एक क्षण की बदहवासी के बाद ख़ुशी तैरने लगी. सभापति ने धीमे से कहा…‘लेकिन बड़ी होशियारी से!’
और मूर्तिकार फिर देश-दौरे पर निकल पड़ा. जार्ज पंचम की खोई हुई नाक का नाप उसके पास था. दिल्ली से वह बम्बई पहुंचा…दादाभाई नौरोजी, गोखले, तिलक, शिवाजी, कावस जी जहांगीर-सबकी नाकें उसने टटोलीं, नापीं और गुजरात की ओर भागा-गांधीजी, सरदार पटेल, विट्ठलभाई पटेल, महादेव देसाई की मूर्तियों को परखा और बंगाल की ओर चला-गुरुदेव रवीन्द्रनाथ, सुभाषचन्द्र बोस, राजा रामामोहन राय आदि को भी देखा, नाप-जोख की और बिहार की तरफ़ चला. बिहार होता हुआ उत्तर प्रदेश की ओर आया…चन्द्रशेखर आज़ाद, बिस्मिल, मोतीलाल नेहरु, मदमोहन मालवीय की लाटों के पास गया…घबराहट में मद्रास भी पहुंचा, सत्यमूर्ति को भी देखा, और मैसूर, केरल आदि सभी प्रदेशों का दौरा करता हुआ पंजाब पहुंचा…लाला लाजपतराय और भगतसिंह की लाटों से भी सामना हुआ. आखिर दिल्ली पहुंचा और अपनी मुश्किल बयान की,‘पूरे हिन्दुस्तान की मूर्तियों की परिक्रमा कर आया. सबकी नाकों का नाप लिया…पर जार्ज पंचम…की नाक से सब बड़ी…निकलीं!..’
सुनकर सब हताश हो गए और झुंझलाने लगे. मूर्तिकार ने ढाढ़स बंधाते हुए आगे कहा,‘सुना था कि बिहार सेक्रेटेरियट के सामने सन् ब्यालीस में शहीद होनेवाले तीन बच्चों की मूर्तियां स्थापित हैं…शायद बच्चों की नाक ही फ़िट बैठ जाए, यह सोचकर वहां भी पहुंचा पर…इन तीनों की नाकें भी इससे कहीं बड़ी बैठती हैं . अब बताइए, मैं क्या करूं?’
…राजधानी में सब तैयारियां थीं. जार्ज पंचम की लाट को मल-मलकर नहलाया गया था. रोगन लगाया गया था. सब कुछ था, सिर्फ़ नाक नहीं थी!
बात फिर बड़े हुक्मरानों तक पहुंची. बड़ी खलबली मची…अगर जार्ज पंचम के बुत पर नाक न लग पाई, तो फिर रानी का स्वागत करने का मतलब? यह तो अपनी नाक कटानेवाली बात हुई.
लेकिन मूर्तिकार पैसे से लाचार था…यानी हार माननेवाला कलाकार नहीं था. एक हैरतअंगेज़ ख़्याल उसके दिमाग़ में कौंधा और उसने पहली शर्त दुहराई. जिस कमरे में कमेटी बैठी हुई थी, उसके दरवाज़े फिर बन्द हुए और मूर्तिकार ने अपनी नई योजना पेश की,‘चूंकि नाक लगना एकदम ज़रूरी है, इसलिए मेरी राय है कि चालीस करोड़ में से कोई एक जिंदा नाक काटकर लगा दी जाए…’
बात के साथ ही सन्नाटा छा गया. कुछ मिनटों की खामोशी के बाद सभापति ने सबकी ओर देखा. सबको परेशान देखकर मूर्तिकार कुछ अचकचाया और धीरे-से बोला…‘आप लोग क्यों घबराते हैं. यह काम मेरे ऊपर छोड़ दीजिए…नाक चुनना मेरा काम है…आपकी सिर्फ़ इजाजत चाहिए!’
कानाफूसी हुई और मूर्तिकार को इजाजत दे दी गई.
अख़बारों में सिर्फ इतना छपा कि नाक का मसला हल हो गया है और राजपथ पर इण्डिया गेट के पास वाली जार्ज पंचम की लाट के नाक लग रही है.
नाक लगने से पहले फिर हथियारबंद पहरेदारों की तैनाती हुई. मूर्ति के आस-पास का तालाब सुखाकर साफ़ किया गया. उसकी गाद निकाली गई. और ताज़ा पानी डाला गया, ताकि जो जिन्दा नाक लगाई जाने वाली थी वह सूखने न पाए. इस बात की ख़बर औरों को नहीं थी. यह सब तैयारियां भीतर-भीतर चल रही थीं. रानी के आने का दिन नज़दीक आता जा रहा था. मूर्तिकार ख़ुद अपने बताए हल से परेशान था. जि़न्दा नाक लाने के लिए उसने कमेटीवालों से कुछ और मदद मांगी. वह उसे दी गई. लेकिन इस हिदायत के साथ कि एक ख़ास दिन हर हालत में नाक लग जाएगी.
और वह दिन आया.
जार्ज पंचम के बुत पर नाक लग गई.
सब अख़बारों ने ख़बरें छापीं कि जार्ज पंचम के बुत पर ज़िंदा नाक लगाई गई है…यानी ऐसी नाक जो कतई पत्थर की नहीं लगती.
लेकिन उस दिन के अख़बारों में एक बात ग़ौर करने की थी. उस दिन देश में कहीं भी किसी उद्घाटन की ख़बर नहीं थी. किसी ने कोई फीता नहीं काटा था. कोई सार्वजनिक सभा नहीं हुई थी. कहीं भी किसी का अभिनंदन नहीं हुआ था, कोई मानपत्र भेंट करने की नौबत नहीं आई थी. किसी हवाई अड्डे या स्टेशन पर स्वागत-समारोह नहीं हुआ था. किसी का ताज़ा चित्र नहीं छपा था.
सब अख़बार ख़ाली थे.
पता नहीं ऐसा क्यों हुआ था?
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