यूं तो हमारी ज़िंदगी हमसे अलग नहीं है. पर कभी ख़ुद को ज़िंदगी से कुछ क़दम दूर रखकर उससे बातचीत करके देखने पर हमें इसके कई और पहलुओं से मुलाक़ात का मौक़ा मिलता है. ज़िंदगी से फ़िलॉसफ़िकली मुलाक़ात पर ख़ूबसूरत-सी कविता है उज्जैन की स्वप्ना मित्तल की.
एक शाम को मैं ज़िंदगी से मिली
आंखों ने दिल तक पैगाम पहुंचाया
और कहा उससे कि
कुछ देर ज़रा ठहर जा
पर दिल ने रोक दिया
कहा, नहीं ठहर सकता
पर हां, कुछ नन्हे से पल दे रहा हूं
ध्यान रहे कि ये बड़े नहीं हो सकेंगे
उस दिन, उस पल
न जाने क्यूं
मेरे शब्द बाहर आने को आतुर थे
अंदर दिल में बाढ़ सी आई हुई थी
भावनाओं की
जब जगह नहीं मिली तो वे
छलक छलक पड़े
कह उठे कि
ख़ाली हो जाओ तुम भी
बहने दो ख़ुद को भी
और इन आंसुओं को भी
मैं कुछ देर सोचती रही
देखती रही ज़िंदगी को
फिर कहा हिम्मत जुटाके
मेरे इन आंसुओं से यदि
शहर डूब गया तो?
कहा उसने,
फिकर ना करो
नहीं डूबेगा ये शहर
यहां के लोग तैरना
बहुत अच्छे से जानते हैं
कहा उसने फिर
तैरना तुम्हें भी सीख लेना चाहिए
कहा मैंने कि
तैरना सीखने में बहुत तक़लीफ़ है
पर डूबने में बहुत सुकून है
कहा उसने फिर
यदि डूबना ही चाहती हो
तो शिव भक्ति में डूबो
कहा मैंने
शिव मिलते कहां हैं डूबने को
वो भी कहीं व्यस्त हैं
फिर कहा उसने
ये जो कांटें हैं ना
इन्हें रख दो बगीचे में मेरे
ये यहां सुरक्षित रहेंगे और
तुम्हें चुभेंगे भी नहीं
मैंने कहा
क्या इन कांटों के साथ
फूलों को भी रख दूं
ये भी चुभते बहुत हैं
वो भी चुभते बहुत हैं
भगवान शिव की नगरी उज्जैन की स्वप्ना मित्तल एक योगा टीचर हैं. इंग्लिश लिटरेचर में एमए हैं और मन की भावनाओं को हिंदी कविता के माध्यम से व्यक्त करती हैं. स्वप्ना को रीडिंग और कुकिंग का शौक़ है.
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