हाल ही में नवरात्र को लेकर दिल्ली और कर्नाटक में मंदिर परिसर के आसपास मांसाहार की दुकानों को बंद करने का मामला सामने आया. नवरात्र के दौरान भी मांसाहार से परहेज़ न करने वाले और रमज़ान के मौक़े पर मांसाहार करने वाले हमारे ही देश के निवासियों के बारे में कोई सोच न रखते हुए इस तरह का फ़रमान जारी कर दिया गया. यूं तो इस मामले पर लिखने की इच्छा पहले ही थी, लेकिन कलम चलाने की रही सही कसर रामनवमी के दिन जेएनयू के छात्रों के बीच हुई झड़प ने पूरी कर दी. मैं जानना चाहती थी कि आख़िर राजनीति हमारे किचन तक कैसे और क्यूं कर आ पहुंची? क्या वाक़ई हमारा देश शाकाहारी लोगों की बहुलता वाला देश है? क्या हमारे यहां कभी मांसाहार को तवज्जो नहीं दी जाती थी? इन सवालों के जवाब ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मैंने जो कुछ पाया वो आपके सामने है. इसे पढ़िए और इन बातों को जानिए, ताकि आप मामले को समग्रता में समझ सकें, मानवीयता से समझ सकें.
शाकाहार-मांसाहार के हालिया मामले, जो पूरी तरह राजनीतिक रंगों में रंगे हुए थे, क्या उन्होंने आपको यह सोचने पर मजबूर किया कि ये राजनीति भला हमारे खाने की मेज़ तक, हमारे रसोईघर तक कैसे आ गई? या फिर आपने यह सोचा कि क्या वाक़ई हम एक शाकाहारी बहुलता वाले देश हैं?
पहली बात का जवाब तो यह है कि इन दिनों देश में सोशल मीडिया के ज़रिए राजनीति न सिर्फ़ दोस्तों, रिश्तेदारों के ज़रिए घरों और खाने के मेज़ तक आ पहुंची है कि इसका किचन में आना आश्चर्यजनक नहीं लगता. राजनीतिक आकाओं ने यह बात पहचान ली है कि ‘फूट डालकर’ सत्ता में बने रहने की नीति अपना कर यदि अंग्रेज़ लंबे समय तक हम पर राज कर सकते हैं तो हम ‘अपने ही लोगों’ पर राज क्यों नहीं कर सकते? इसे अमलीजामा पहनाते-पहनाते अब राजनीति घरों तक, डायनिंग टेबल तक और यहां तक कि किचन तक आ पहुंची है.
दूसरे सवाल के जवाब में आप आंकड़े खंगालेंगे तो आप अचरज से भर जाएंगे. यह महज़ हमारी आपकी ग़लतफ़हमी है कि भारत में ज़्यादातर लोग शाकाहारी यानी वेजटेरियन हैं. जी हां! बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सरकार द्वारा कराए गए तीन बड़े सर्वेज़ पर नज़र डालें तो केवल 23 से 37 प्रतिशत भारतीय ही शाकाहारी हैं. भारत की आबादी में 80 फ़ीसदी हिंदू हैं, जिनमें से अधिकतर मांसाहारी हैं. केवल एक तिहाई संपन्न अगड़ी जाति के लोग ही शाकाहारी हैं.
नैशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक़, देश के महानगरों में शाकाहारियों की संख्या पर नज़र डालें तो दिल्ली में 30 प्रतिशत. मुंबई में 18 प्रतिशत, चेन्नई में 6 प्रतिशत और कोलकाता में 4 प्रतिशत लोग ही शाकाहारी है. इन आंकड़ों ने मेरी तो आंखें ही खोल दीं.
बीते दिनों स्वामी विवेकानंद पर डॉ अजीत जावेद की लिखी गई किताब ’विवेकानंद की खोज में’ पढ़ रही थी. इस किताब को पढ़ने से पहले मेरा भी यही मानना था कि हमारा भारतीय समाज हमेशा से ही मुख्यत: शाकाहारी था. लेकिन यहां मैं स्वामी विवेकानंद का जो कोट आपके साथ साझा कर रही हूं, उसने ऊपर दिए बीबीसी हिंदी के आंकड़ों से कहीं पहले मेरी ग़लत समझ को सही कर दिया था.
विवेकानंद की खोज में, इस किताब की पृष्ठ संख्या 88 के अंतिम पैराग्राफ़ में स्वामी विवेकानंद के इस कथन का उल्लेख है,‘‘यह आपको सदैव स्मरण रखना चाहिए कि एक सामाजिक परंपरा में थोड़ा परिवर्तन किया जाता है, उससे आप अपना धर्म त्याग नहीं करते. याद रखिए कि यह परंपराएं हमेशा बदली जाती रही हैं. भारत में एक समय ऐसा भी था, जब बिना मांस भक्षण किए कोई ब्राह्मण, ब्राह्मण नहीं माना जाता था. वेदों में आप यह पढ़ते हैं कि जब किसी गृहस्थ के घर में कोई संन्यासी, राज अथवा कोई महान व्यक्ति अतिथि होता था तो उसके लिए श्रेष्ठतम बैल की बलि दी जाती थी, परंतु समय के साथ-साथ यह ज्ञात हुआ की श्रेष्ठ बैल की बलि देने से उस प्रजाति की समाप्ति हो सकती है इसलिए यह प्रथा समाप्त कर दी गई और गोहत्या के विरुद्ध आवाज़ उठाई गई.’’
स्वामी विवेकानंद की बातों को पढ़कर आपको मानना होगा कि यह आवाज़ उठाने के पीछे कोई तर्क तो था. लेकिन यदि हम अतर्कसंगत हो कर, केवल राजनीति से प्रेरित हो कर अपने मन की बात को अधिसंख्य मांसाहारी लोगों पर थोपें तो इस बात को सही कैसे ठहराया जा सकता है? फिर यदि हम समझदार हैं तो यह भी मानना ही होगा कि जो चीज़ जहां के लिए बनी है, वहीं शोभा देती है, जैसे- पगड़ी सिर पर ही फबती है, कहीं और पहनी जाए तो उलझन ही पैदा करेगी. बिल्कुल उसी तरह राजनीति सत्ता के केंद्रों तक ही सीमित रखी जाए, इसी में राजनीति की शोभा है, उसे हमारे रसोईघरों तक पहुंचने से हम सभी नागरिकों को मिलकर रोकना होगा, क्योंकि पाकशाला राजनीति की जगह नहीं है.
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