आचार्य चतुरसेन का प्रसिद्ध उपन्यास है वैशाली की नगरवधु. कहानी ‘अम्बपालिका’ उसी उपन्यास का सारांश है. पढ़ें कैसे अम्बपालिका नामक लड़की बनी वैशाली की नगरवधु.
मुजफ़्फ़रपुर से पश्चिम की ओर जो पक्की सड़क जाती है, उस पर मुजफ़्फ़रपुर से लगभग 18-20 मील पर ‘बैसोढ़’ नामक एक बिलकुल छोटा-सा गांव है, जिसमें 30-40 घर भूमिहार ब्राह्मणों के और कुछ क्षत्रियों के बच रहे हैं. इस गांव के चारों ओर कोसों तक खण्डहर, टीले और पुरानी टूटी-फूटी मूर्तियां ढेर-की-ढेर मिलती हैं, जो इस बात की स्मृति दिलाती हैं कि यहां कभी कोई बड़ा भारी समृद्धिशाली नगर बसा रहा होगा.
वास्तव में ढाई हज़ार वर्ष पूर्व यहां एक विशाल नगर बसा था, जिसका नाम वैशाली था, और जो प्रबल प्रतापी लिच्छवि-गणतन्त्र के शासन में था.
वैशाली लिच्छवि-गणतन्त्र की एक प्रधान नगरी और रियासत थी. नगर व्यापारियों, जौहरियों, शिल्पकारों और भिन्न-भिन्न प्रकार के देश-विदेश के यात्रियों से परिपूर्ण था. ‘श्रेष्ठि-चत्वर’ नगर का प्रधान बाज़ार था, जहां जौहरियों और बड़े-बड़े व्यापारियों की कोठियां थीं और जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तर भारत में फैली हुई थीं.
दुकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान कुचरते, हंस-हंसकर ग्राहकों से बातें करते. जौहरी पन्ना, लाल, मूंगा, मोती, पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन-देन में व्यस्त रहते थे. निपुण कारीगर अनगढ़ रत्नों को सान चढ़ाते, स्वर्ण-आभरणों में रंगीन रत्न जड़ते और मोती गूंथते थे. गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते थे. चन्दन के तेलों में भिन्न-भिन्न सुगन्ध मिलाकर इत्र बनाए जाते और नागरिक उनका खुला उपयोग करते थे. रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियों की दुकानों पर बग़दाद और फ़ारस के व्यापारी लम्बे-लम्बे लबादे पहने, भीड़-की-भीड़ पड़े रहते थे. नगर की गलियां संकरी और तंग थीं और उनमें गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं, जिनके अंधेरे तहख़ानों में इन धन-कुबेरों का बड़ा भारी कोष और द्रव्य रखा रहता था.
संध्या-समय सुन्दर श्वेत बैलों के रथों पर, जिन पर बढ़िया सुनहरा काम हुआ रहता था, नागरिक सैर करने राजपथ पर निकलते थे. इधर-उधर हाथी झूमते हुए बढ़ा करते थे और उन पर उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर-रक्षकों से घिरे हुए चला करते थे.
अभी दिन निकलने में देरी थी. पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी, पर मार्ग में अंधेरा था. राजमहल के तोरण पर अभी तक प्रकाश जल रहा था. चारों ओर प्रतिहार पड़े सो रहे थे. उनमें से केवल एक भाला टेककर खड़ा नींद में झूम रहा था. तोरण के इधर-उधर कई कुत्ते पड़े सो रहे थे.
धीरे-धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा. राजवर्गी इधर-से-उधर आने-जाने लगे. प्रतिहाररक्षी सेना का एक नवीन दल तोरण पर आ पहुंचा. उनमें से एक दण्डधर ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े-खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकार कर कहा–महानामन! सावधान होओ और घर जाकर विश्राम करो. महानामन ने सजग होकर अपने दीर्घकाय का और भी विस्तार करके एक ज़ोर की अंगड़ाई ली और यह कहकर कि-तुम्हारा कल्याण हो, वह अपना भाला धरती पर टेकता हुआ तीसरे तोरण की ओर बढ़ गया. पश्चिम की ओर पुराना प्रासाद और राजमहल का उपवन था, जिसकी देख-रेख महानामन के सुपुर्द थी. यहीं उसकी छोटी-सी कुटिया थी, जहां वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ 17 वर्ष से एकरस–आंधी-पानी, सर्दी-गर्मी में रहता था.
वह नींद में झूमता हुआ ऊंघ रहा था. अब भी प्रभात का प्रकाश धुंधला था. उसने अपनी कुटी के पास एक कदली वृक्ष के नीचे, आम्रकुंज में एक श्वेत वस्तु पड़ी रहने का भान किया. निकट जाकर देखा, एक नवजात शिशु स्वच्छ वस्त्रों में लिपटा अपना अंगूठा चूस रहा है. आश्चर्यचकित होकर महानामन ने शिशु को उठा लिया. देखा, कन्या है. उसने अपनी स्त्री को पुकारकर उसे वह कन्या देकर कहा–देखो, आज इस प्रकार अपने जीवन की पुरानी साध मिटी.
वह कन्या–उस दरिद्र लिच्छवि महानामन के उस दरिद्रावास में शशिकला की भांति बढ़ने लगी. उसका नाम रक्खा गया अम्बपालिका.
वैशाली से उत्तर-पश्चिम 25 कोस पर एक छोटे-से गांव में, एक किनारे पर एक साधारण घर था. उसके द्वार पर एक वृद्ध प्रात-काल बैठा दातुन कर रहा था. पूर्व के द्वार पर पैर की आहट सुनकर उसने पीछे को देखा, एक चम्पक पुष्प की कली के समान, एकादशवर्षिया, अति सुन्दरी बालिका, जिसके घुंघराले बाल लहलहा रहे थे, दौड़ती-दौड़ती बाहर आई और वृद्ध को देख उससे लिपटने को लपकी पर पैर फिसलने से गिर गई. वह गिरकर रोने लगी.
वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका को उठाया, उसकी धूल झाड़ी, बालिका ने रोना रोककर कहा–बाबा, घर में आटा बिल्कुल नहीं है, हम लोग क्या खाएंगे? वृद्ध ने उसे गोद में उठाते हुए कहा–कुछ चिन्ता नहीं, मैं अभी गेहूं पिसवाने की व्यवस्था करता हूं. बालिका ने कहा–गेहूं का भी तो एक दाना नहीं है. वृद्ध क्षणभर अवाक् रहा. उसने कहा–तब ठहर, मैं अभी शिकार मारकर लाता हूं. बालिका ने रोककर कहा–नहीं, नहीं, मैं पक्षी का मांस नहीं खाऊंगी.
वृद्ध महानामन लिच्छवि था और कन्या थी अम्बपालिका. वृद्ध की पत्नी का स्वर्गवास हुए 8 साल व्यतीत हो गए थे. उसके बाद कन्या की परिचर्या में बाधा पड़ती देख, महानामन ने राज-सेवा छोड़कर अपने ग्राम में आकर बालिका की सेवा-सुश्रुषा अबाध रूप से करने का निश्चय कर लिया था. वह गत आठ वर्षों से इसी गांव में रहता था. अम्बपालिका को उसने इस तरह पाला जैसे पक्षी चुग्गा दे-देकर अपने शिशु पक्षी को पालता है. परन्तु खेद है, धीरे-धीरे उसकी छोटी-सी कमाई की क्षुद्र पूंजी यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो ही गई. और फिर धीरे-धीरे पत्नी के स्मृति-रूप दो-चार क्षुद्र आभूषण भी उदर-गुहा में पहुंच चुके.
अब आज क्या किया जाए? अब तो आटा भी नहीं, एक दाना गेहूं भी नहीं. वृद्ध की प्राणों की पुतली इस प्रश्न पर चिन्तित हो रही है. यह और भी कष्ट का प्रश्न था. पर वृद्ध ने हंसकर कहा-अच्छा, अच्छा, मैं अभी गेहूं लिए आता हूं. इतना कहकर वृद्ध ने बालिका के तड़ातड़ 3-4 चुंबन लिए और उसे गोद से उतारते-उतारते दो बूंद आंसू गिरा दिए. बालिका भीतर गई और वृद्ध चिन्तामग्न बैठ गया. अन्ततः उसने एक बार फिर महाराज की सेवा में उपस्थित होकर पुरानी नौकरी की याचना करने का निश्चय किया. उसके बाहु का पौरुष तो थक चुका था. परन्तु क्या किया जाए, कन्या का विचार सर्वोपरि था. फिर भी वृद्ध के अति गम्भीर होने का यही मात्र कारण न था.
लाख वृद्ध होने पर भी उसकी भुजा में बल था, बहुत था. पर उसकी चिन्ता थी: बालिका का अप्रतिम सौन्दर्य. सहस्राधिक बालिकाएं भी क्या उस पारिजात-कुसुम-तुल्य कुन्दकलिका के समान थीं? किस पुष्प में उतनी गंध, कोमलता और सौंदर्य था? उसे भय था कि राज-नियमानुसार वह विवाह से वंचित करके कहीं नगर-वेश्या न बना दी जाए; क्योंकि लिच्छवि-गणतंत्र में यह क़ानून था कि राज्य की जो कन्या अत्यधिक सुन्दरी होती थी, उसे किसी एक पुरुष की पत्नी न होने दिया जाकर नागरिकों के लिए सुरक्षित रखा जाया करता था. वास्तव में इसी भय से महानामन राजधानी छोड़कर भागा था, जिससे किसी की दृष्टि उस बालिका पर न पड़े. पर अब उपाय न था. महानामन ने राजधानी में एक बार जाने का निश्चय किया.
वैशाली की ओर जानेवाली सड़क पर वर्षा के कारण बड़ी कीचड़ हो रही थी. कहीं-कहीं तो नालों का पानी कच्ची सड़क को तोड़कर सड़क पर नदी की तरह बह रहा था. अभी वर्षा हो चुकी थी. वृद्ध और उसकी पुत्री दोनों भीग गए थे, पर धीरे-धीरे बढ़े चले जा रहे थे. हवा बंद थी, गर्मी बढ़ गई थी और दूरस्थ पर्वतों की चोटियों में अस्त होते हुए सूर्य को देख-देखकर वृद्ध डर रहा था. निकट किसी बस्ती के चिह्न न थे. यदि कहीं चौपट में अंधेरा हो गया तो कहां रात कटेगी, बच्ची खाएगी क्या, यही वृद्ध के भय का कारण था. वह लाठी टेकता-टेकता धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था. वह स्वयं थक गया था और बालिका तो क्षण-क्षण में विश्राम की इच्छा प्रकट कर रही थी. बालिका ने कहा–पिता! अब मैं और नहीं चल सकती, मेरे पैरों में देखो, लहू बह रहा है, वे फट गए हैं.
वृद्ध ने स्नेह से उसे चुमकारकर कहा-अब, थोड़ी दूर और; निकट ही कहीं गांव या बस्ती मिलने पर ठहरने में सुभीता रहेगा. पर बालिका और कुछ पग चलकर मार्ग में ही एक ऊंची जगह पर बैठ गई. वृद्ध भी निरुपाय हो, पास ही बैठ गया. अंधकार ने चारों ओर से उन्हें घेर लिया.
सहसा बालिका ने चौंककर कहा-पिताजी, देखो, घोड़ों की टाप का शब्द सुनाई दे रहा है. बुड्ढे ने उठकर दूर तक दृष्टि करके देखा. सड़क के निकट एक घना सेमल का वृक्ष था, जिसके नीचे घोर अंधकार था. वृद्ध कन्या का हाथ पकड़, वहीं जा छिपा. आकाश में अब भी बादल घिर रहे थे और फिर ज़ोर की वर्षा होने के रंग-ढंग दीख पड़ते थे. बीच-बीच में बिजली भी चमक जाती. थोड़ी देर बाद बहुत-से सवार वहां तक आ पहुंचे. वर्षा भी शुरू हो गई. सवारों ने निश्चय किया कि उस वृक्ष के नीचे आश्रय लें.
वृद्ध भय से बालिका को छाती में छिपाए वृक्ष की जड़ से चिपककर बैठ गया. सहसा बिजली की चमक में अश्वारोहियों ने वृक्ष के निकट मनुष्य-मूर्ति को देखकर कहा-अरे! वृक्ष के निकट यह कौन है? वृद्ध वहां से हटकर चुपचाप खेत में जाने लगा. तत्क्षण एक बर्छा आकर उसकी छाती को विदीर्ण कर गया. वृद्ध एक चीत्कार करके धरती पर गिर गया. बालिका ज़ोर से चिल्ला उठी.
अश्वारोही दल ने निकट जाकर देखा–मृत पुरुष वृद्ध और निस्स्र है. पर कन्या को देखते ही बर्छा फेंकने वाले सवार ने कहा-वाह! बूढ़े को मारकर रत्न मिला. इसमें किसी का साझा नहीं है?
बालिका भय और शोक से चिल्ला उठी. अश्वारोही ने उसकी परवा न कर उसे घोड़े पर रख लिया और वे आगे बढ़े.
***
वैभवशालिनी वैशाली का जो ‘श्रेष्ठि-चत्वर’ नामक बाज़ार था उसके उत्तर कोण पर एक विशाल प्रासाद, जिसके गुम्बजों का प्रकाश रात्रि को गंगा पार से भी दीखता था. बाहर का सिंहद्वार विशाल पत्थरों का बनाया गया था, जिसे उठाना और जोड़ना दैत्यों का ही काम हो सकता था. इन पत्थरों पर स्थापत्य कला और शिल्प की सूक्ष्म बुद्धि खर्च की गई थी. ड्योढ़ी पर गहरा हरा रंग किया हुआ था और ऊंचे महराबदार फाटक पर फूलों की गुंथी हुई सुन्दर मालाएं लटक रही थीं.
पहले आंगन में प्रवेश करने पर श्वेत अट्टालिकाओं की पंक्ति दीख पड़ती थी. उनकी दीवारों पर कांच की तरह चमकदार श्वेत पलस्तर किया गया था. सीढ़ियों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के खुदरंग बहुमूल्य पत्थर लगे थे, और खिड़कियों में बिल्लौर के किवाड़ थे, जिनमें श्रेष्ठि-चत्वर की बहार बैठे-ही-बैठे दीख पड़ती थी. दूसरे आंगन में गाड़ी, बैल, घोड़े, हाथी बंधे थे और महावत उन्हें चावल-घी खिला रहे थे. तीसरे आंगन में अतिथिशाला तथा आगत जनों के ठहरने का प्रबंध था. यहां बहुत सुन्दर विशाल पत्थरों के खम्भों पर मेहराब खड़े हुए थे…
चौथे आंगन में नाट्यशाला और गायनभवन था. पांचवें आंगन में भिन्न-भिन्न प्रकार के शिल्पकार और जौहरी लोग नाना प्रकार के आभूषण बना और रत्नों को घिस रहे थे. छठे आंगन में भिन्न-भिन्न देश के पशु-पक्षियों का अद्भुत संग्रह था. सातवां आंगन बिल्कुल श्वेत पत्थर का बना था, और उसमें सुनहरा काम हो रहा था. इसमें दो भीमकाय सिंह स्वर्ण की मेखलाओं से दृढ़तापूर्वक बंधे थे और चांदी के पात्रों में पानी भरा उनके निकट धरा था. गृहस्वामिनी अम्बपालिका इसी कक्ष में विराजती थी.
संध्या हो गई थी. परिचारक और परिचारिकाएं दौड़-धूप कर रही थीं, कोई सुगंधित जल आंगन में छिड़क रही थी, कोई धूप जलाकर भवन को सुवासित कर रही थी, कोई सहस्र दीप-गुच्छ में सुगन्धित तेल डालकर प्रकाशित करने में व्यस्त थी. बहुत-से माली तोरण और अलिन्द पर ताज़े पुष्पों के गुलदस्ते और मालाओं को सजा रहे थे. अलिन्द में दंडधर अपने-अपने स्थानों पर भाला टेक स्थिर भाव से खड़े थे. द्वारपाल तोरण पार अपने द्वार-रक्षक दल के साथ सशस्त्र उपस्थित था.
क्षणभर बाद प्रासाद भांति-भांति के रंगीन प्रकाशों से जगमगा उठा. भांति-भांति के रंगीन फव्वारे चलने लगे और उन पर प्रकाश का प्रतिबिम्ब इन्द्रधनुष की बहार दिखाने लगा. धीरे-धीरे प्रतिष्ठित नागरिक कोई पालकी में, कोई रथ पर और कोई हाथी पर चढ़कर प्रथम तोरण पार कर आने लगे. परिचारकगण दौड़-दौड़कर अतिथियों को सादर उतारकर भीतरी अलिन्द में पहुंचाने तथा उनकी सवारियों की व्यवस्था करने लगे. हाथी-घोड़े, रथ, पालकी आदि वाहनों का तांता लग गया. उनकी भीड़ से बाहर का विशाल प्रांगण भर गया.
सातवें तोरण के भीतर श्वेत पत्थर के एक विशाल सभा-भवन में अम्बपालिका नागरिक युवकों भी अभ्यर्थना कर रही थी. वह भवन एक टुकड़े के 64 हरे रंग के पत्थर के खम्भों पर निर्मित हुआ था, और इस पर रंगीन रत्नों को जड़कर फूल-पत्ती, पक्ष तथा वन के दृश्य बनाए गए थे. छत पर स्वर्ण का पत्तर मढ़ा था, जहां पर बारीक़ खुदाई और रंगीन मीना का काम हो रहा था. इस विशाल भवन में दुग्ध-फेन के समान उज्ज्वल वर्ण का अति मुलायम और बहुमूल्य बिछावन बिछा था. थोड़े-थोड़े अन्तर से बहुत-सी वेदियां, पृथक् बनी थीं, जहां कोमल उपधान, मद्य के स्वर्ण-पात्र और प्यालियां, जुआ खेलने के पासे तथा अन्य विनोद-सामग्री, भिन्न-भिन्न प्रकार के ग्रन्थ, बहुमूल्य चित्र तथा अन्य बहुत-सी मनोरंजन की सामग्री थीं.
महाप्रतिहार अलिन्द तक अतिथि युवकों को लाता, वहां से प्रधान परिचारिका उसे कक्ष तक ले आती. कक्ष-द्वार पर स्वयं अम्बपालिका साक्षात् रति के समान आगत जनों का हाथ पकड़कर स्वागत करती, एक वेदी पर ले जाकर बैठाती, सुगन्ध और पुष्प-मालाओं से सत्कार करती तथा अपने हाथों से मद्य डालकर पिलाती थी. उस स्वर्ग-सदन में, रूप, यौवन और जीवन के आलोक में अर्द्धरात्रि तक नित्य ही माधुर्य और आनन्द का प्रवाह बहता था. सैकड़ों दासियां दौड़-धूप करके याचित वस्तु तत्काल जुटा देतीं. फिर कुछ ठहरकर संगीत-लहरी उठती. कोमल तन्तु-वाद्य गम्भीर मृदंग के साथ वैशाली के श्रेष्ठि पुत्रों, राजवर्गियों और कुमारों के हृदय को मसोस डालता था. वाद्य की ताल पर मोम की पुतली के समान कुमारियां मधुर स्वर से स्वर-ताल और मूर्च्छनामय संगीत-गान करतीं, और नर्तकियां ठुमककर नाचती थीं. उस स्वप्न-सौन्दर्य के दृश्य को युवक सुगन्धित मद्य के घूंट के साथ पीकर अपने जन्म को धन्य मानते थे.
अम्बपालिका अब 20 वर्ष की पूर्ण युवती थी. उसका यौवन और सौन्दर्य मध्याकाश में था. और लिच्छवि गणतन्त्र के राजा ही नहीं, मगध, कोशल और विदेह के महाराजा तक उसके लिए सदैव अभिलाषी बने रहते थे. इन सभी महानृपतियों की ओर से रत्न, अस्त्र, हाथी आदि भेंट में आते रहते थे और अम्बपालिका अपनी कृपा और प्रेम के चिह्न-स्वरूप कभी-कभी ताज़े फूलों की एकाध माला तथा कुछ गंध द्रव्य उन्हें प्रदान कर दिया करती थी.
विधाता ने मानो उसे स्वर्ण से बनाया था. उसका रंग गोरा ही न था, उस पर सुनहरी प्रभा थी–जैसे चम्पे की अविकसित कली में होती है. उसके शरीर की लचक, अंगों की सुडौलता वर्णन से बाहर की बात थी. उस सौन्दर्य में विशेषता यह थी कि समय का अत्याचार भी उस सौन्दर्य को नष्ट न कर सका था. जैसे मोती का पर्त उतार देने से नई आभा, नया पानी दमकने लगता है, उसी प्रकार अम्बपालिका का शरीर प्रतिवर्ष निखार पाता था. उसका कद कुछ लंबा, देह मांसल और कुच पीन थे. तिस पर उसकी कमर इतनी पतली थी कि उसे कटिबंधन बांधने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी. उसके अंग-प्रत्यंग चैतन्य थे, मानो प्रकृति ने उन्हें नृत्य करने और आनन्द-भोग करने को ही बनाया था.
उसके नेत्रों में सूक्ष्म लालसा की झलक और दृष्टि में गज़ब की मदिरा भर रही थी. उसका स्वभाव सतेज था, चितवन में दृढ़ता, निर्भीकता, विनोद और स्वेच्छाचारिता साफ़ झलकती थी. उसे देखते ही आमोद-प्रमोद की अभिलाषा प्रत्येक पुरुष के हृदय में उत्पन्न हो जाती थी.
जैसा कहा जा चुका है, उसकी रंगत पर एक सुनहरी झलक थी, गाल कोमल और गुलाबी थे, ओंठ लाल और उत्फुल्ल थे, मानो कोई पका हुआ रसीला फल चमक रहा हो. उसके दांत हीरे की तरह स्वच्छ, चमकदार और अनार की पंक्ति की तरह सुडौल, कुच पीन तथा अनीदार थे. नाक पतली, गर्दन हंस जैसी, कंधे सुडौल, बाहु मृणाल जैसी थी. सिर के बाल काले, लंबे, घुंघराले तथा रेशम से भी मुलायम थे. आंखें काली और कंटीली, अंगुलियां पतली और मुलायम थीं. उन पर उसके गुलाबी नाख़ूनों की बड़ी बहार थी. पैर छोटे और सुन्दर थे. जब वह ठसक के साथ उठकर खड़ी हो जाती तो लोग उसे एकटक देखते रह जाते थे. उसकी भुजाओं और देह का पूर्व भाग सदा खुला रहता था.
वैशाली में बड़ी भारी बेचैनी फैल गई. अश्वारोही दल-के-दल नगर के तोरण से होकर नगर के बाहर निकल रहे थे. प्रतिहार लोग और किसी को न बाहर निकलने देते थे और न भीतर घुसने देते थे. तोरण के इधर-उधर बहुत-से नागरिक सेना का यह अकस्मात् प्रस्थान देख रहे थे. एक पुरुष ने पूछा-क्यों भाई, जानते हो यह सेना कहां जा रही है? उसने कहा-न, यह कोई नहीं जानता. अश्वारोही दल निकल गया. पीछे कई सेना-नायक धीरे-धीरे परामर्श करते चले गए.
क्षण-भर में संवाद फैल गया. मगध के प्रतापी सम्राट शिशुनागवंशी बिम्बसार ने वैशाली पर चढ़ाई की. गंगा के दक्षिण छोर पर दुर्जय मगध सेना दृष्टि के उस छोर से इस छोर तक फैली हुई थी. इस सेना में 10 हज़ार हाथी, 50 हज़ार अश्वारोही और पांच लाख पैदल थे.
वैशाली के लिच्छवि-गणतंत्र का प्रताप भी साधारण न था. गंगा के उत्तर कोण पर देखते-देखते सैन्य-समूह एकत्रित हो गया. लिच्छवियों के पास 8 हज़ार हाथी, 1 लाख अश्वारोही और 6 लाख पैदल थे.
तीन दिन तक दोनों दल आमने-सामने डटे रहे. तीसरे दिन लिच्छवि लोगों ने देखा, उस पार डेरों की संख्या कम हो गई है. निपुण सहस्रों सैनिक घाट से पार आने की तैयारी कर रहे हैं, यह समझने में देर न लगी. दोपहर होते-होते मगध-सेना गंगा पार करने लगी. लिच्छवि-सेना चुपचाप खड़ी रही. ज्यों ही कुछ सेना ने भूमि पर पांव रखा त्यों ही वैशाली की सेना जय-जयकार करते बढ़ चली, मानो सहस्र उल्कापात हुए हों. मेघ-संघर्षण की तरह घोर गर्जना करके दोनों सेनाएं भिड़ गईं. मगध-सेना की गति रुक गई. बाण, बर्छे और तलवारों की प्रलय मच गई. उस दिन, दिन-भर संग्राम रहा. सूर्यास्त देख, दोनों सेनाएं पीछे को फिरीं.
दो मास से नगर का घेरा जारी है. बीच-बीच में युद्ध हो जाता है. कोई पक्ष निर्बल नहीं होता. नगर की तीन दिशाएं मगध-शिविर से घिरी हैं. बीच में जो सबसे बड़ा डेरा है, उसके ऊपर सोने का गरुड़ध्वज अस्त होते सूर्य की किरणों से अग्नि की तरह दमक रहा है. उसके आगे एक स्वर्ण-पीठ पर गौरवर्ण सम्राट विराजमान हैं. निकट एक-दो विश्वासी पार्षद हैं. सम्राट अति सुन्दर, बलिष्ठ और गम्भीरमूर्ति हैं. नेत्रों में तेज और स्नेह, दृष्टि में वीरत्व और औदार्य तथा प्रतिभा में अदम्य तेज प्रकट हो रहा है. सम्राट आधे लेटे हुए कुछ मंत्रणा कर रहे हैं. एक कर्णिक नीचे बैठा उनके आदेशानुसार लिखता जाता है. एक दंडधर ने आगे बढ़कर पुकारकर कहा–महानायक युवराज भट्टारकपादीय गोपालदेव तोरण पर उपस्थित हैं. सम्राट ने चौंककर उधर देखा और भीतर बुलाने का संकेत किया. साथ ही कर्णिक और मन्त्री को विदा किया.
गोपालदेव ने तलवार म्यान से खींच शीश से लगाई और फिर विनम्र निवेदन किया–महाराजाधिराज की आज्ञानुसार सब व्यवस्था ठीक है. देवश्री पधारने का कष्ट करें. सम्राट के नेत्रों में उत्फुल्लता उत्पन्न हुई. वे उठकर वस्त्र पहनने के लिए पट-मंडप में घुस गए.
वैशाली के राजपथ जनशून्य थे, दो प्रहर रात्रि जा चुकी थी, युद्ध के आतंक ने नगर के उल्लास को मूर्छित कर दिया था. कहीं-कहीं प्रहरी खड़े उस अंधकारमयी रात्रि में भयानक भूत-से प्रतीत होते थे. धीरे-धीरे दो मनुष्य मूर्तियां अन्धकार का भेदन करती हुई वैशाली के गुप्त द्वार के निकट पहुंचीं. एक ने द्वार पर आघात किया, भीतर प्रश्न हुआ–संकेत?
मनुष्यमूर्ति ने कहा–अभिनय!
हल्की चीत्कार करके द्वार खुल गया. दोनों मूर्तियां भीतर घुसकर राजपथ छोड़, अंधेरी गलियों की अट्टालिकाओं की परछाईं में छिपती-छिपती आगे बढ़ने लगीं. एक स्थान पर प्रहरी ने बाधा देकर पूछा–कौन? एक व्यक्ति ने कहा–आगे बढ़कर देखो. प्रहरी निकट आया. हठात् दूसरे व्यक्ति ने उसका सिर धड़ से जुदा कर दिया. दोनों फिर आगे बढ़े. अम्बपालिका के द्वार पर अन्ततः उनकी यात्रा समाप्त हुई. द्वार पर एक प्रतिहार मानो उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. संकेत करते ही उसने द्वार खोल दिया और आगन्तुकगण को भीतर लेकर द्वार बंद कर लिया.
आज इस विशाल राजमहल सदृश भवन में सन्नाटा था. न रंग-बिरंगी रोशनी, न फव्वारे, न दास-दासी गणों की दौड़-धूप. दोनों व्यक्ति चुपचाप प्रतिहार के साथ जा रहे थे. सातवें अलिन्द को पार करने पर देखा, एक और मूर्ति एक खम्भे के सहारे खड़ी है. उसने आगे बढ़कर कहा–इधर से पधारिए श्रीमान्! प्रतिहार वहीं रुक गया. नवीन व्यक्ति स्त्री थी और वह सर्वांग काले वस्त्र से ढांपे हुए थी. दोनों आगन्तुक कई प्रांगण और अलिंद पार करते हुए कुछ सीढ़ियां उतरकर एक छोटे-से द्वार पर पहुंचे जो चांदी का था और जिस पर अतिशय मनोहर जाली का काम हो रहा था और उसी जाली में से छन-छनकर रंगीन प्रकाश बाहर पड़ रहा था.
द्वार खोलते ही देखा, एक बहुत बड़ा कक्ष भिन्न-भिन्न प्रकार की सुख-सामग्रियों से परिपूर्ण था. यद्यपि उतना बड़ा नहीं, जहां नागरिकजनों का प्रायः स्वागत होता था, परन्तु सजावट की दृष्टि से इस कक्ष के सम्मुख उसकी गणना नहीं हो सकती थी. यह समस्त भवन श्वेत और काले पत्थरों से बना था. और सर्वत्र ही सुनहरी पच्चीकारी का काम हो रहा था. उसमें बड़े-बड़े बिल्लौर के अठपहलू अमूल्य खम्भे लगे थे, जिनमें मनुष्य का हूबहू प्रतिबिम्ब सहस्रों की संख्याओं में दीखता था. बड़े-बड़े और भिन्न-भिन्न भावपूर्ण चित्र टंगे थे. सहस्र दीप-गुच्छों में सुगन्धित तेल जल रहा था. समस्त कक्ष भीनी सुगन्ध से महक रहा था. धरती पर एक महामूल्यवान् रंगीन बिछावन था जिस पर पैर पड़ते ही हाथ भर धंस जाता था. बीचोंबीच एक विचित्र आकृति की सोलह-पहलू सोने की चौकी पड़ी थी, जिस पर मोर-पंख के खम्भों पर मोतियों की झालर लगा एक चंदोवा तन रहा था और पीछे रंगीन रेशम के परदे लटक रहे थे, जिसमें ताज़े पुष्पों का शृंगार बड़ी सुघड़ाई से किया गया था. निकट ही एक छोटी-सी रत्नजटित तिपाई पर मद्य-पात्र और पन्ने का बड़ा-सा पात्र धरा हुआ था.
हठात् सामने का परदा उठा और उसमें वह रूप-राशि प्रकट हुई जिसके बिना अलिंद शून्य हो रहा था. उसे देखते ही आगन्तुकगण में से एक तो धीरे-धीरे पीछे हटकर कक्ष से बाहर हो गया, दूसरा व्यक्ति स्तम्भित-सा खड़ा रहा. अम्बपालिका आगे बढ़ी. वह बहुत महीन श्वेत रेशम की पोशाक पहने हुए थी. वह इतनी बारीक़ थी कि उसके आर-पार साफ़ दीख पड़ता था. उसमें से छनकर उसके सुनहरे शरीर की रंगत अपूर्व छटा दिखा रही थी. पर यह कमर तक ही था. वह चोली या कोई दूसरा वस्त्र नहीं पहने थी. इसलिए उसकी कमर के ऊपर के अंग-प्रत्यंग साफ़ दीख पड़ते थे.
विधाता ने उसे किस क्षण में गढ़ा था. हमारी तो यह धारणा है कि कोई चित्रकार न तो वैसा चित्र ही अंकित कर सकता था और न कोई मूर्तिकार वैसी मूर्ति ही बना सकता था.
उस भुवन-मोहिनी की छटा आगन्तुक के हृदय को छेदकर पार हो गई. गहरे काले रंग के बाल उसके उज्ज्वल और स्निग्ध कंधों पर लहरा रहे थे. स्फटिक के समान चिकने मस्तक पर मोतियों का गुथा हुआ आभूषण अपूर्व शोभा दिखा रहा था. उसकी काली और कंटीली आंखें, तोते के समान नुकीली नाक, बिम्बफल जैसे अधर-ओष्ठ और अनारदाने के समान उज्ज्वल दांत, गोरा और गोल चिबुक बिना ही शृंगार के अनुराग और आनन्द बिखेर रहा था. अब से ढाई हज़ार वर्ष पूर्व की वह वैशाली की वेश्या ऐसी ही थी.
मोती की कोर लगी हुई सुन्दर ओढ़नी पीछे की ओर लटक रही थी और इसलिए उसका उन्मत्त कर देनेवाला मुख साफ़ देखा जा सकता था. वह अपनी पतली कमर में एक ढीला-सा बहुमूल्य रंगीन शाल लपेटे हुए थी. हंस के समान उज्ज्वल गर्दन में अंगूर के बराबर मोतियों की माला लटक रही थी और गोरी-गोरी गोल कलाइयों में नीलम की पहुंची पड़ी हुई थी.
उस मकड़ी के जाले के समान बारीक उज्ज्वल परिधान के नीचे, सुनहरे तारों की बुनावट का एक अद्भुत घाघरा था, जो उस प्रकाश में बिजली की तरह चमक रहा था. पैरों में छोटी-छोटी लाल रंग की उपानत् थीं, जो सुनहरे फ़ीते से कस रही थीं.
उस समय कक्ष में गुलाबी रंग का प्रकाश हो रहा था. उस प्रकाश में अम्बपालिका का मानो परदा चीरकर इस रूप-रंग में प्रकट होना आगन्तुक व्यक्ति को मूर्तिमती मदिरा का अवतरण-सा प्रतीत हुआ. वह अभी तक स्तब्ध खड़ा था. धीरे-धीरे अम्बपालिका आगे बढ़ी. उसके पीछे 16 दासियां एक ही रूप और रंग की मानो पाषाण-प्रतिमाएं ही आगे बढ़ रही थीं.
अम्बपालिका धीरे-धीरे आगे बढ़कर आगन्तुक के निकट आकर झुकी और फिर घुटने के बल बैठ, उसने कहा–परमेश्वर, परम वैष्णव, परम भट्टारक, महाराजाधिराज की जय हो. इसके बाद उसने सम्राट के चरणों में प्रणाम करने को सिर झुका दिया. दासियां भी पृथ्वी पर झुकी गईं.
आगन्तुक महाप्रतापी मगध-सम्राट बिम्बसार थे. उन्होंने हाथ बढ़ाकर अम्बपालिका को ऊपर उठाया. अम्बपालिका ने निवेदन किया–महाराजाधिराज पीठ पर विराजें. सम्राट ने ऊपर का परिच्छद उतार फेंका, वे पीठ पर विराजमान हुए.
अम्बपालिका ने नीचे धरती पर बैठकर सम्राट का गन्ध, पुष्प आदि से सत्कार किया. इसके बाद उसने अपनी मद-भरी आंखें सम्राट पर डालकर कहा–महाराजाधिराज ने बड़ी अनुकंपा की, बड़ा कष्ट किया.
सम्राट ने किंचित् मोहक स्वर में कहा–अम्बपाली! यदि मैं यह कहूं कि केवल विनोद के लिए आया हूं तो यह यथार्थ नहीं. तुम्हारे रूप-गुण की प्रशंसा सुनकर स्थिर नहीं रह सका, और इस कठिन युद्ध में व्यस्त रहने पर भी तुम्हें देखने के लिए शत्रुपुरी में घुस आया, परन्तु तुम्हारा प्रबन्ध धन्य है.
अम्बपालिका–(लज्जित-सी होकर ज़रा मुस्कराकर) मैं पहले ही सुन चुकी हूं कि देव स्त्रियों की चाटुकारी में बड़े प्रवीण हैं.
सम्राट-चाटुकारी नहीं, अम्बपालिके! तुम वास्तव में रूप और गुण में अद्वितीय हो!
अम्बपालिका–श्रीमान्, मैं कृतार्थ हुई. इसके बाद वह अपने मुक्तावनिंदित दांतों की छटा दिखाते हुए सम्राट की सेवा में खड़ी हुई. सम्राट ने प्याला ले और उसे खींचकर बगल में बैठा लिया. संकेत पाते ही दासियों ने क्षणभर में गायन-वाद्य का संरजाम जुटा दिया. कक्ष संगीत-लहरी में डूब गया और उस गम्भीर निस्तब्ध रात्रि में मगध के प्रतापी सम्राट उस एक वेश्या पर अपने साम्राज्य को भूल बैठे.
***
एक वर्ष बीत गया. प्रतापी लिच्छवि-राज मगध साम्राज्य के आगे मस्तक नत करने को बाध्य हुए. अब वैशाली में उमंग न थी. अम्बपालिका का द्वार सदैव बन्द रहता था. द्वार पर कड़ा पहरा था. कोई व्यक्ति न उसे देख सकता था, न उससे मिल सकता था. उसके बहुत-से युवक मित्र उस युद्ध में निहत हुए थे, पर जो बच रहे थे, वे अम्बपाली के इस परिवर्तन पर आश्चर्यान्वित थे. वे किसी भी तरह उसका साक्षात् न कर सकते थे. दूर-दूर तक यह बात फैल गई थी.
अम्बपालिका के सहस्रावधि वेतन-भोगी दास-दासी, सैनिक और अनुचरों में से भी केवल दो व्यक्ति थे जो अम्बपालिका को देख सकते और उससे बात कर सकते थे. एक प्रधान परिचारिका यूथिका, दूसरा एक वृद्ध दंडधर जिसे भीतर-बाहर सर्वत्र आने की स्वतन्त्रता थी. सम्राट का आगमन केवल इन्हीं दोनों को मालूम था और वे दोनों ही यह रहस्य भी जानते थे कि अम्बपालिका को सम्राट से गर्भ है.
यथासमय पुत्र प्रसव हुआ. यह रहस्य भी केवल इन्हीं दो व्यक्तियों पर ही प्रकट हुआ. और वह पुत्र उसी दंडधर ने गुप्त रूप से राजधानी ले जाकर मगध सम्राट की गोद में डालकर, अम्बपालिका का अनुरोध सुनाकर कहा–महाराजाधिराज की सेवा में मेरी स्वामिनी ने निवेदन किया है कि उनकी तुच्छ भेंट-स्वरूप मगध के भावी सम्राट आपके चरणों में समर्पित हैं. सम्राट ने शिशु को सिंहासन पर डालकर वृद्ध दंडधर से उत्फुल्ल नयन से कहा–मगध के सम्राट को झटपट अभिवादन करो. दंडधर ने कोश से तलवार निकाल, मस्तक पर लगाई और तीन बार जयघोष करके तलवार शिशु के चरणों में रख दी. सम्राट ने तलवार उठाकर वृद्ध की कमर में बांधते-बांधते कहा-अपनी स्वामिनी को मेरी यह तुच्छ भेंट देना. यह कहकर उन्होंने एक वस्तु वृद्ध के हाथ में चुपचाप दे दी. वह वस्तु क्या थी, यह ज्ञात होने का कोई उपाय नहीं.
भगवान् बुद्ध वैशाली में पधारे हैं और अम्बपालिका की बाड़ी में ठहरे हैं. आज हठात् अम्बपालिका के महल में हलचल मच रही है. सभी दास-दासी, प्रतिहार, द्वारपाल दौड़-धूप कर रहे हैं. हाथी, घोड़े, पालकी, रथ सज रहे हैं. सवार शस्त्र-सज्जित हो रहे हैं. अम्बपालिका भगवान् बुद्ध के दर्शनार्थ बाड़ी में जा रही है. एक वर्ष बाद आज वह फिर सर्वसाधारण के सम्मुख निकल रही है. समस्त वैशाली में यह समाचार फैल गया है. लोग झुंड-के-झुंड उसे देखने राजमार्ग पर डट गए हैं. अम्बपालिका एक श्वेत हाथी पर सवार होकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है. दासियों का पैदल झुंड उसके पीछे है, उसके पीछे अश्वारोही दल है और उसके बाद हाथियों पर भगवान् की पूजा-सामग्री. सबसे पीछे बहुत-से वाहन, कर्मचारी और पौरगण.
अम्बपालिका एक साधारण पीत-वर्ण परिधान धारण किए अधोमुख बैठी है. एक भी आभूषण उसके शरीर पर नहीं है. बाड़ी से कुछ दूर ही उसने सवारी रोकने की आज्ञा दी. वह पैदल भगवान् के निवास तक पहुंची, पीछे 100 दासियों के हाथ में पूजन-सामग्री थी.
तथागत बुद्ध की अवस्था अस्सी को पार कर गई थी. एक गौरवर्ण, दीर्घकाय, श्वेतकेश, कृश, किन्तु बलिष्ठ महापुरुष पद्मासन से शान्त मुद्रा में एक सघन वृक्ष की छाया में बैठे थे. सहस्रावधिक शिष्यगण दूर तक मुंडित-शिर और पीत वस्त्र धारण किए स्तब्ध-से श्रीमुख के प्रत्येक शब्द को हृत्पटल पर लिख रहे थे. आनन्द नामक शिष्य ने निवेदन किया–प्रभु! अम्बपालिका दर्शनार्थ आई है. तथागत ने किंचित् हास्य से अपने करुण नेत्र ऊपर उठाए. अम्बपालिका धरती में लोटकर कहने लगी–प्रभो! त्राहि माम्. त्राहि माम्.
भगवान् ने कहा–कल्याण! कल्याण! आनन्द ने कहा–उठो अम्बपाली. महाप्रभु प्रसन्न हैं. अम्बपाली ने यथाविधि भगवान् का अर्घ्यदान, पाद्य, मधुपर्क से पूजन किया और चरण-रज नेत्रों में लगाई, फिर हाथ बांध सम्मुख खड़ी हो गई.
भगवान् ने हंसकर कहा–अब और क्या चाहिए अम्बपाली?
“प्रभो! भगवन्. इस अपदार्थ का आतिथ्य स्वीकार हो, इन चरण-कमलों की देवदुर्लभ रज-कण किंकरी की कुटिया को प्रदान हो.”
प्रभु ने करुण स्वर में कहा–तथास्तु. भिक्षुगण सहस्र कंठ से जयोल्लास से चिल्ला उठे. परन्तु यह क्या? उस नाद को विदीर्ण करता हुआ एक और नाद उठा. भगवान् ने पूछा–आनन्द. यह क्या है? “प्रभो! लिच्छविराजवर्ग और अमात्यवर्ग श्रीपाद-पद्म के दर्शनार्थ आ रहा है.” प्रभु हंस पड़े. अम्बपालिका हट गई. प्रतापी लिच्छविराजगण, राजकुमार, अमात्यवर्ग और अन्तः पुर ने एक साथ ही भगवान् के चरणों में महान् मस्तक झुका दिए. भगवान् ने कहा–कल्याण! कल्याण!
महाराज ने पद-धूलि मुकुट पर लगाकर कहा–महाप्रभु. यह तुच्छ राजधानी इन चरणों में पधारने से कृतकृत्य हुई. परन्तु प्रभो. यह वेश्या की बाड़ी है, श्रीचरणों के योग्य नहीं. प्रभु के लिए राजप्रासाद प्रस्तुत है और राजवंश प्रभु-पद-सेवा को बहुत उत्सुक है. भगवान् ने हंसकर कहा–तथागत के लिए वेश्या और राजा में क्या अन्तर है? तथागत समदृष्टि है.
“प्रभो! तब कल का आतिथ्य राज-परिवार को प्रदान कर कृतार्थ करें!”
“वह तो मैं अम्बपालिका का स्वीकार कर चुका.”
राजा निरुत्तर हुए. वे फिर प्रणाम कर लौटे. कुछ श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कुछ लाल और कुछ आभूषण पहने थे.
अम्बपालिका रथ में बैठकर लौटी. उसने आज्ञा दी–मेरा रथ लिच्छवि महाराजाओं के बराबर हांको. उनके पहिये के बराबर मेरा पहिया और उनके धुरे के बराबर मेरा धुरा रहे, तथा उनके घोड़े के बराबर मेरा घोड़ा.
लिच्छवियों ने देखकर क्रोध-मिश्रित आश्चर्य से पूछा–अम्बपालिके, यह क्या बात है? तू हम लोगों के बराबर अपना रथ हांक रही है?
उसने उत्तर दिया–मेरे प्रभु. मैंने तथागत और उसके शिष्यवर्ग को भोजन का निमन्त्रण दिया है और वह उन्होंने स्वीकार किया है.
उन्होंने कहा–हे अम्बपाली. हमसे एक लाख स्वर्ण-मुद्रा ले और यह भोजन हमें कराने दे.
“मेरे प्रभु, यह सम्भव ही नहीं है.”
“तब 100 ग्राम ले और यह निमन्त्रण हमें बेच दे.”
“नहीं स्वामी. कदापि नहीं.”
“आधा राज्य ले और यह निमन्त्रण हमें दे दे.”
“मेरे प्रभु. आप एक तुच्छ भूखंड के स्वामी हैं, पर यदि समस्त भूमंडल के चक्रवर्ती भी होते और अपना समस्त साम्राज्य मुझे देते तो भी मैं ऐसी कीर्ति की जेवनार को नहीं बेच सकती थी.”
लिच्छवि राजाओं ने तब अपना हाथ पटककर कहा–हाय! अम्बपालिका ने हमें पराजित कर दिया, अम्बपालिका हमसे बढ़ गई. अम्बपालिके! तब तुम स्वच्छन्दता से हमसे आगे रथ हांको. अम्बपालिका ने रथ बढ़ाया. गर्द का एक तूफान पीछे रह गया.
दस सहस्र भिक्षुओं के साथ भगवान् बुद्ध ने अम्बपालिका के प्रासाद को आलोकित किया. वैशाली के राजमार्ग में नगर के प्राणी आ जूझे थे. महापुरुष बुद्ध और उनके वीतरागी भिक्षु भूमि पर दृष्टि दिए पैदल धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे. नगर के श्रेष्ठिगण दुकानों से उठ-उठकर मार्ग की भूमि को भगवान् के चरण रखने से पूर्व अपने उत्तरीय से झाड़ रहे थे. कोई नागरिक भीड़ से निकलकर पथ पर अपने बहुमूल्य शाल बिछा रहे थे. महाप्रभु बिना कुछ कहे एकरस धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे. वह महान् संन्यासी, प्रबल वीतरागी, महाप्राण वृद्ध, पुरुष श्रेष्ठ जय-जयकार की प्रचंड घोषणा से ज़रा भी विचलित नहीं हो रहा था. उसकी दृष्टि मानो पृथ्वी में पाताल तक घुस गई थी. और स्त्रियां झरोखों से खील और पुष्प-वर्षा कर रही थीं. अम्बपालिका का तोरण आते ही चार दंडधरों ने दौड़कर पथ पर कौशेय बिछा दिया. द्वार में प्रवेश करने पर सर्वत्र कौशेय बिछा था. अनगिनत कर्मचारी भिक्षुगण के सम्मानार्थ दौड़ गए. पीत-वसनधारी मुंडित भिक्षु नक्षत्रों की तरह उस विशाल प्रांगण में, महाजन-समूह में चमक रहे थे.
अतिथिशाला में भगवान् के पहुंचते ही अम्बपालिका ने 200 दासियों के साथ स्वयं आकर तथागत के चरणों में सिर झुकाया और वहां से वह अपने अंचल से पथ की धूल झाड़ती हुई प्रभु को भीतरी अलिन्द तक ले गई. इस समय प्रभु के साथ केवल आनन्द चल रहे थे.
प्रांगण के मध्य में एक चंदन की चौकी पर शुद्ध आसन बिछा था. अम्बपालिका के अनुरोध पर प्रभु वहां विराजमान हुए. अम्बपालिका ने अर्घ्य-पाद्य दान करके भोजन प्रस्तुत करने की आज्ञा मांगी. आज्ञा मिलते ही अम्बपालिका स्वयं स्वर्ण-थाल में भोजन ले आई. अनेक प्रकार के चावल और रोटियां थीं. अम्बपालिका सेवा में करबद्ध खड़ी रही. भगवान् ने मौन होकर भोजन किया और तृप्त होकर कहा–बस.
अम्बपालिका के नेत्रों से अश्रुधारा बही. प्रभु ज्यों ही शुद्ध होकर आसन पर विराजे, अम्बपालिका ने पृथ्वी में गिरकर प्रणाम किया.
भगवान् ने कहा–अम्बपालिका, अब और तेरी क्या इच्छा है?
“प्रभु एक तुच्छ भिक्षा प्रदान हो?”
तथागत ने गंभीर होकर कहा–वह क्या है?
“प्रभो. आज्ञा कीजिए, कोई भिक्षु अपना उत्तरीय प्रदान करे.” आनन्द ने उत्तरीय उतारकर अम्बपालिका को दे दिया. क्षण-भर के लिए अम्बपालिका भीतर गई परन्तु दूसरे ही क्षण वह उसी वस्त्र से अंग लपेटे आ रही थी. उस बौद्ध भिक्षु के प्रदान किए एकमात्र वस्त्र को छोड़कर उसके पास न कोई और वस्त्र था, न आभरण. उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी. भगवान् विमूढ़ उसका व्यापार देख रहे थे. वह आकर भगवान् के सम्मुख फिर लोट गई.
भगवान् ने शुभ हस्त से उसे स्पर्श करके कहा–उठो, उठो. हे कल्याणी. तुम्हारी इच्छा क्या है?
“महाप्रभु. अपवित्र दासी की घृष्टता क्षमा हो. यह महानारी-शरीर कलंकित करके मैं जीवित रहने पर बाधित की गई; शुभ संकल्प से मैं वंचित रही, प्रभो, यह समस्त संपदा कलुषित तपश्चर्या का संचय है. मैं कितनी व्याकुल, कितनी कुंठित, कितनी शून्यहृदया रहकर अब तक जीवित रही हूं, यह कैसे कहूं. मेरे जीवन में दो ज्वलन्त दिन आए. प्रथम दिन के फलस्वरूप मैं आज मगध के भावी सम्राट की राजमाता हूं, परन्तु भगवन्. आज के महान् पुण्ययोग के फलस्वरूप अब मैं इससे भी उच्च पद प्राप्त करने की धृष्ट अभिलाषा करती हूं. महाप्रभु प्रसन्न हों. जब भगवान् की चरण-रज से यह घर पवित्र हुआ, तब यहां विलास और पाप कैसा? उसकी सामग्री ही क्यों, उसकी स्मृति ही क्यों?
इसलिए भगवान् के चरण-कमलों में यह सारी संपदा–महल, अटारी, धन, कोष, हाथी, प्यादे, रथ, वस्त्र, भंडार आदि सब समर्पित है. प्रभु ने भिक्षा का उत्तरीय मुझे भिक्षा में दिया है, मेरे शरीर की लज्जा-निवारण को यह बहुत है स्वामिन्. आज से अम्बपाली भिक्षुणी हुई. अब यह इस भिक्षा में प्राप्त पवित्र वस्त्र को प्राण देकर भी सम्मानित करेगी. हे प्रभु. आज्ञा हो.”
इतना कहकर अविरल अश्रुधारा से भगवत्-चरणों को धोती हुई, अम्बपालिका बुद्ध की चरण-रज नेत्रों से लगाकर उठी, और धीरे-धीरे महल से बाहर चली. महावीतराग बुद्ध के नेत्र आप्यायित हुए. उन्होंने ‘तथास्तु’ कहा और खड़े होकर उसका सिर स्पर्श करके कहा–कल्याण! कल्याण! सहस्र-सहस्र कंठ से ‘जय अम्बपालिके, जय अम्बपालिके’ का गगनभेदी नाद उठा. सहस्रों नर-नारी पीछे चले. अम्बपालिका उस पीत परिधान को धारण किए, नीचा सिर किए, पैदल उसी राजमार्ग से भूमि पर दृष्टि दिए धीरे-धीरे नगर से बाहर जा रही थी और उसके पीछे समस्त नगर उमड़ा जा रहा था. खिड़कियों से पौर वधुएं पुष्प और खील-वर्षा कर रही थीं.
भगवान् ने कहा–हे आनन्द, यह स्थान बौद्ध भिक्षुओं का प्रथम विहार होगा. बौद्ध भिक्षु यहां रहकर सन्मार्ग का अन्वेषण करेंगे–यही तथागत की इच्छा है.
आनन्द ने सिर झुकाया. भिक्षु-मंडल जय-नाद कर उठा. बुद्ध भगवान् धीरे-धीरे उठकर नगर के राजमार्ग से आते हुए अम्बपालिका की बाड़ी में आकर अपने आसन पर विराजमान हुए. कुछ दूर एक वृक्ष की जड़ में अम्बपालिका स्थिर बैठी थी. भगवान् को स्थित देख वह उठी और धीर भाव से प्रभु के सम्मुख आकर खड़ी हुई. भगवान् ने उसकी ओर देखा. अम्बपालिका ने विनयावनत होकर कहा–
‘बुद्धं सरणं गच्छामि
धम्मं सरणं गच्छामि
संघं सरणं गच्छामि’
तथागत स्थिर हुए. उन्होंने तत्काल पवित्र जल उसके मस्तक पर सिंचन किया और पवित्र वाक्यों का उपदेश देकर कहा–भिक्षुओं! महासाध्वी अम्बपालिका का स्वागत करो.
फिर जयनाद से दिशाएं गूंज उठीं और अम्बपालिका तथागत तथा अन्य वृद्ध भिक्षुगण को प्रणाम कर वहां से चल दी और फिर वैशाली के पुरुष उसे न देख सके!!
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