शांति, अहिंसा और मानवता के हिमायती भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने न केवल आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की थी, बल्कि वे एक बड़े लेखक भी माने जाते थे. उनकी किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया को भारतीय इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को समझने का एक आईना माना जाता है. इस मशहूर किताब के अलावा उन्होंने कई और किताबें लिखीं. उनका लेख ‘भारत माता’ उनकी किताब हिंदुस्तान की कहानी से लिया गया है.
अकसर जब मैं एक जलसे से दूसरे जलसे में जाता, और इस तरह चक्कर काटता रहता, तो इन जलसों में मैं अपने सुनने वालों से अपने इस हिंदुस्तान या भारत की चर्चा करता. भारत एक संस्कृत शब्द है और इस जाति के परंपरागत संस्थापक के नाम से निकला हुआ है. मैं शहरों में ऐसा बहुत कम करता, क्योंकि वहां के सुनने वाले कुछ ज़्यादा सयाने थे और उन्हें दूसरे ही किस्म की गिज़ा की ज़रूरत थी. लेकिन किसानों से, जिनका नज़रिया महदूद था, मैं इस बड़े देश की चर्चा करता, जिसकी आज़ादी के लिए हम लोग कोशिश कर रहे थे और बताता कि किस तरह देश का एक हिस्सा दूसरे से जुदा होते हुए भी हिंदुस्तान एक था. मैं उन मसलों का ज़िक्र करता, जो उत्तर से लेकर दक्खिन तक और पूरब से लेकर पच्छिम तक, किसानों के लिए एक से थे, और स्वराज्य का भी ज़िक्र करता, जो थोड़े लोगों के लिए नहीं, बल्कि सभी के फ़ायदे के लिए हो सकता था.
मैं उत्तर-पच्छिम में खैबर के दर्रे से लेकर धुर दक्खिन में कन्याकुमारी तक की अपनी यात्रा का हाल बताता और यह कहता कि सभी जगह किसान मुझसे एक-से सवाल करते हैं, क्योंकि उनकी तक़लीफ़े एक-सी थीं-यानी ग़रीबी, कर्ज़, पूंजीपतियों के शिकंजे, ज़मींदार, महाजन, कड़े लगान और सूद, पुलिस के ज़ुल्म, और ये सभी बातें गुंथी हुई थीं, उस ढढ्ढे के साथ, जिसे एक विदेशी सरकार ने हम पर लाद रखा था और इनसे छुटकारा भी सभी को हासिल करना था. मैंने इस बात की कोशिश की कि लोग सारे हिंदुस्तान के बारे में सोचें और कुछ हद तक इस बड़ी दुनिया के बारे में भी, जिसके हम एक जुज़ हैं. मैं अपनी बातचीत में चीन, स्पेन, अबीसिनिया, मध्य यूरोप, मिस्र और पच्छिमी एशिया में होनेवाले कशमकशों का ज़िक्र भी ले आता. मैं उन्हें सोवियत यूनियन में होने वाली अचरज-भरी तब्दीलियों का हाल भी बताता और कहता कि अमरीका ने कैसी तरक़्क़ी की है. यह काम आसान न था, लेकिन जैसा मैंने समझ रखा था, वैसा मुश्क़िल भी न था. इसकी वजह यह थी कि हमारे पुराने महाकाव्यों ने और पुराणों की कथा-कहानियों ने, जिन्हें वे ख़ूब जानते थे, उन्हें इस देश की कल्पना करा दी थी, और हमेशा कुछ लोग ऐसे मिल जाते थे, जिन्होंने हमारे बड़े-बड़े तीर्थों की यात्रा कर रखी थी, जो हिंदुस्तान के चारों कोनों पर हैं. या हमें पुराने सिपाही मिल जाते, जिन्होंने पिछली बड़ी जंग में या और धावों के सिलसिले में विदेशों में नौकरियां की थीं. सन् तीस के बाद जो आर्थिक मंदी पैदा हुई थी, उसकी वजह से दूसरे मुल्कों के बारे में मेरे हवाले उनकी समझ में आ जाते थे.
कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत “भारत माता की जय!” इस नारे से ज़ोर के साथ किया जाता. मैं लोगों से अचानक पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है, जिसकी वे जय चाहते हैं. मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न बन पड़ने पर वे एक-दूसरे की तरफ़ या मेरी तरफ़ देखने लग जाते. मैं सवाल करता ही रहता. आख़िर एक हट्टे-कट्टे जाट ने, जो अनगिनत पीढ़ियों से किसानी करता आया था, जवाब दिया कि भारत माता से उनका मतलब धरती से है. कौन-सी धरती? ख़ास उनके गांव की धरती या ज़िले की या सूबे की या सारे हिंदुस्तान की धरती से उनका मतलब है? इस तरह सवाल-जवाब चलते रहते, यहां तक कि वे ऊबकर मुझसे कहने लगते कि मैं ही बताऊं. मैं इसकी कोशिश करता और बताता कि हिंदुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है, लेकिन वह इससे भी बहुत ज़्यादा है. हिंदुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अज़ीज़ हैं. लेकिन आख़िरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं. भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं, और “भारत माता की जय!” से मतलब हुआ इन लोगों की जय का.
मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हो, और जैसे-जैसे ये विचार उनके मन में बैठते, उनकी आंखों में चमक आ जाती, इस तरह, मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो.