वैसे तो हम हर रोज़ आईना देखते हैं, पर जीवन की कई सच्चाइयों को जानबूझकर देखने से कतराते रहते हैं. पर कभी-कभी ऐसी क्रूर परिस्थितियां आ जाती हैं, जब जीवन हमें हक़ीक़त से रूबरू कराने में कोई लिहाज नहीं करता. ऐसी परिस्थिति या तो हमें तोड़ देती है या सच को स्वीकार करके मज़बूत बनाती है. डॉ संगीता झा की इस कहानी में एक बुज़ुर्ग महिला जीवन के ऐसे ही दोराहे पर खड़ी है.
‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गाना बार बार ज़ेहन में आ रहा है. बहुत कम लोग होते हैं जिनका चेहरा बता देता है कि मन क्या चाहता है. और बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिन्हें कोई आईना ना दिखाए. मेरी ज़िंदगी में भी एक बड़ा बदलाव आया और मैंने ना केवल आईने में ख़ुद को देखा बल्कि ख़ुद से जुड़े रिश्तों को भी आईना दिखा दिया. कुछ दिनों पहले एक सुबह मॉर्निंग वॉक के बाद हमारा पूरा प्लस सिक्स्टी वाला गैंग पार्क में घास में बैठा सुस्ता रहा था कि एक बच्चा जिसने टोपी पहन रखी थी, आजकल देश में इतना ज़्यादा धर्म का ध्रुवीकरण हो गया है कि छोटे बच्चे को देख उसके धर्म का पता चल जाता है. बेचारा मुंह से स्कूटर की आवाज़ निकालता दौड़ा चला आ रहा था.
‘‘भुर्ररर…हटो हटो रास्ता दो, अम्मी की दवाई का वक़्त हो गया है, दूध लाना है.’’
उसकी अम्मी और टोपी से मैं समझ गई किसी मुस्लिम फ़ैमिली का बच्चा है. रख रखाव और ख़ुद दूध लेने जाना मतलब ग़रीब तबके का है, ये इशारा कर रहा था. पता नहीं क्यों उसने सबका ध्यान अपनी तरफ़ खींच लिया. यहां तो बड़े-बड़े समर्थ बेटों को मां-बाप का ख़याल नहीं था और ये पिद्दी-सा बच्चा दौड़ा चला जा रहा था.
उस दिन सुबह मेरे घर पर जो आलम था,‘अरे यार आप भी ना मेरी जान लेकर रहोगी.’
‘अरे मुझे घुटनों में बहुत दर्द होता है इसलिए तुमसे कहती हूं.’
‘कितनी बार कहा है वेट कम करें, एक्सरसाइज़ किया करें. खाने में कंट्रोल करें, ना हम तो दूसरों की ज़िंदगी जहन्नुम बनाएंगे.’
‘इतना ज्ञान बघारने की ज़रूरत नहीं है. तुमसे तुम्हारी ही चाय तो बनाने को कही थी.’
‘मैं इतना भी नहीं मर रहा हूं घर पर चाय पीने के लिए. बाहर जा के पी लूंगा और नाश्ता भी कर लूंगा.’
और बेटा पैर पटकता हुआ घर से बाहर चला गया. ये उस दिन सुबह का हम मां-बेटे का वार्तालाप था. पति अपनी बहन की बेटी की शादी में दूसरे शहर गए हुए थे. इससे मैं सुख शांति की खोज में बाहर घूमने निकल आई थी. अपना गैंग भी मिल गया और काफ़ी सुख दुःख हमने आपस में बांटे और सभी के दुःख एक ही से थे मानो, हम पंछी इक डाल के.
छोटे से टोपी वाले बच्चे ने मन मोह लिया था. सभी गैंग के साथी देर हो रही है कह चले गए. मैं छोटे मियां को दोबारा देखने वहीं रुक गई. थोड़ी देर बाद वो नन्हा फ़रिश्ता रोता हुआ आया और कहता है,‘‘दादी मेरे पांच रुपए का सिक्का कहीं गिर गया. आपने देखा क्या?’’ दादी शब्द ने ही मुझे झझकोर दिया, अचानक मेरी ममता जाग उठी, हृदय में रक्त का संचार होने लगा.
कल ही बड़े बेटे से फ़ोन पर बात हुई,‘अरे तुम लोग मुझे दादी कब बना रहे हो?’
‘आई हेट दिस इंडियन मेंटैलिटी मॉम. इतने दोस्त हैं यहां मेरे दुनिया के सभी कोने से, किसी पर भी ऐसा दबाव नहीं है कि बाप कब बन रहे हो? डिसगस्टिंग!’
‘मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया बेटा, मैं कौन-सा दबाव डाल रही हूं. लाइफ़ आपकी डिसिज़न आपके.’ मैंने चुप्पी साध ली.
अब ये नन्हा फ़रिश्ता मुझे दादी कह रहा है. बड़ा दर्द-सा हुआ कि पांच रुपए में कौन-सा और कितना दूध मिलता होगा. मैंने उसे पचास रुपए दिए और कहा,‘‘चलो मैं भी चलती हूं. दोनों दूध ले आएंगे.’’
‘‘ना, आप हिंदू हैं ना. वहां कोई हिंदू नहीं आता है, वो केवल मुसलमान को ही दूध देते हैं.’’
मैंने घुटने टेक दिए,‘‘ठीक है जाओ तुम ही जाओ.’’
हमारी पहली मुलाक़ात वहीं ख़त्म हो गई. उसके बाद मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हुआ, जहां हिंदू मुसलमान वाली वाली कोई बात नहीं थी. मैं सुबह होते ही जल्दी-जल्दी तैयार हो अपने नन्हे फ़रिश्ते से मिलने को बैचेन रहती और मियां तो यूं दिखाते मानो उन्हें मुझसे कोई सरोकार ही ना हो. कभी कहता,‘‘अरे दादी मां घर जाओ, मेरा सर ना खाओ, अपुन को बहुत काम है.’’
मैं पूछती,‘‘क्या काम है?’’
वो कहता,‘‘अरे बोला ना आप हमारा प्रॉब्लम नहीं समझेंगी. अम्मी की डॉक्टर के पास ले जाने का है.’’
मैं पूछती,‘‘इतना प्यार करते हो अम्मी को?’’
वो कहता,‘‘अरे क्या बातां करते आप भी. मां के क़दमों के नीचे जन्नत होती. अम्मी के दूध का क़र्ज़ भी तो है.’’
मन भर आता छोटे मियां की बड़ी-बड़ी बातें सुन कर. एक दिन पूछ ही लिया,‘‘ये पिद्दी इतनी बातें कहां से सीखता है? कौन है तेरा उस्ताद?’’
उसने कहा,‘‘मेरी अम्मी और बाजू वाली आपा.’’
मैंने पूछा -’‘और अब्बू ?’‘
उसने कहा -’‘हमारी गली में रहने वालों के अब्बू नहीं होते सबके केवल अम्मी होती हैं वो भी बीमार.’‘
था वो केवल छः-सात साल का पर उसकी बातें बड़ों-बड़ों को मात दे देती थीं. उसका पैसों का हिसाब भी पक्का था. मैं जो कुछ भी घर पर नाश्ते के लिए होता उसके लिए लेकर आती और अगर वो ना मिलता तो एक जगह जो उसे भी मालूम थी पर रख आती, वो बाद में वहां से उठा लेता. उसके मेरी ज़िंदगी में आने के बाद मेरी ज़िंदगी में काफ़ी पॉज़िटिव बदलाव आया था. मैं सुबह जल्दी उठती, तरो ताज़ा महसूस करती और उसके बहाने घर के बाक़ी सदस्यों का भी नाश्ता तैयार हो जाता.
एक दिन बड़ा उदास बैठा था, पूछने पर बताया,‘‘अम्मी और आपा को जितना आता था, उतना उन्होंने सीखा दिया. मुझे और जानना है सीखना है.’’
मैंने कहा,‘‘अरे स्कूल जाओ. इधर-उधर घूमते रहते हो. दाख़िला लो स्कूल में सब सीख जाओगे.’’
उसने एक सांस ली और कहा,‘‘काश …’’
मैंने कहा,‘‘अरे काश क्यों? चलो मैं तुम्हारी मां से बात करती हूं.’’
पता नहीं क्यों, उसके प्यारे से चेहरे पर फिर से एक विषाद की रेखा आई और वो चुप हो गया. पहली बार पता चला कि खामोशी भी कितनी वाचाल होती है. हम दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े बड़े देर तक बैठे रहे. हमारी खामोशी ही हमें जोड़े हुए थी.
घर वापस आने की बाद भी बच्चा ज़ेहन में छाया रहा. अपने घर में मै एक बेजान वस्तु बन गई थी. पति और छोटा बेटा अपनी अपनी ज़िंदगी में मशगूल थे. किसी के पास भी मेरे लिए समय नहीं था. शाम को मैं घर पर खाना बनवा कर रखती या बनाती, दोनों ही ज़्यादातर बाहर खा कर आ जाते. उसी बचे हुए खाने को सुबह ख़ूब अच्छी तरह पैक कर नन्ही सी जान के लिए लेकर जाती थी. उसके आंखों की चमक मुझे मजबूर कर देती थी कि मैं उसे गले लगा लूं. एक दिन मैंने पति को बेटे से बोलते सुन लिया,‘‘तुम्हारी मां भी ना! मेरे जी का जंजाल बन गई है. मैं दोस्तों के साथ ताश पार्टी और ड्रिंक्स के मज़े लेता हूं और मैडम के फ़ोन आने शुरू हो जाते हैं.’’
बेटा ने कहा,‘‘आप भी ना… उठाते क्यों हो? मैं तो बाहर जाते ही मॉम का फ़ोन ब्लॉक कर देता हूं और घर घुसने के जस्ट पहले अनब्लॉक. सीखो. यू हैव टू लर्न.’’
दोनों खिलखिला के हंस रहे थे. एक दिन बड़े बेटे से फ़ोन पर कह रहे थे,‘‘मैं नहीं यार, तेरी मॉम ओल्ड एज़ होम के लिए फ़िट है. मुझे जीने दो.’’
ऐसे कई वार्तालाप मैंने सुने और अनसुने कर दिए. लेकिन एक वॉन्टेड वाली जो फ़ीलिंग थी, वो मुझे किसी से नहीं मिल रही थी. वहीं ये नन्हा फ़रिश्ता बड़ी बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा करता था. रात की बची हुई रोटियां और माइक्रोअवन में गर्म की सब्ज़ी इस तरह खाता मानो छप्पन भोग का आनंद उठा रहा हो. एक दिन बेटे ने रात को बाहर से कोई चिकन डिश मंगाई थी. बचने पर मैंने बड़े सहेज कर फ्रिज में रख दी और दूसरे दिन जब अपने सखा को खिलाया तो उसकी आंखों की चमक और उन आंखों में मेरे प्रति कृतज्ञता के अहसास ने मुझे रुला ही दिया. घर के दोनों दरिंदो यानी पति और बेटे दोनों को ही मेरे इस नन्हे दोस्त से मेरी दोस्ती की भनक भी नहीं थी. मेरे घर वापस आने पर मैंने पाया कि बेटा नौकरानी जयम्मा पर बरस रहा था कि उसका रात का चिकन कहां है? जयम्मा ने धीरे से जवाब दिया,‘‘मेमसाब ले गई होंगी, कभी-कभी टिफ़िन में ले कर जाती हैं. अक्सर रात का बचा खाना अपने साथ टिफ़िन में लेकर जाती हैं.’’
जैसे मैं घर पर घुसी बेटा मुझ पर बरस पड़ा,‘‘किससे मिलने जाती हो बाहर? कोई यार बना कर रखा है क्या? बाहर गुलछर्रे उड़ाती हो, सारा मेरा चिकन ले कर चली गई.’’
मैं तो मानो आसमान से ज़मीन पर गिर पड़ी. मैंने भी पहली बार ज़िंदगी में बिना बेटा-बेटा कहे उतनी ही ज़ोर से चिल्ला कर जवाब दिया,‘‘आवाज़ नीची, बड़ों से बात करने की तमीज़ रखो. ऐसा क्या कर दिया है मैंने जो अपना आपा खो रहे हो?’’
उसपर तो पागलपन का भूत सवार था. वो ग़ुस्से में फिर चिल्लाने लगा,‘‘आपको पता भी है वो चिकन कहां आया था? ताज कृष्णा के स्पेशल शेफ़ की स्पेशल रेसिपी थी वो. मैंने बचा कर रखा था कि सुबह नान के साथ खाऊंगा.’’
मैंने बिना आपा खोए धीरे से कहा,‘‘अरे कोई बात नहीं, फिर से मंगा लेना. बोलो क्या खाना है? मैं बना देती हूं, मेरे वाले एग रोल या मलाई पराठा.’’
वो फिर चिल्लाया,‘‘स्टूपिड लेडी मेरे वाले एग रोल! अपने आप को शेफ़ समझती है. भाड़ में जाओ! ऐसी हरकत फिर की तो…’’
मुझे भी ग़ुस्सा आ गया,‘‘तो…मतलब मार डालोगे. यही तो शिक्षा दी है मैंने.’’
हम दोनों की तू तू मैं मैं में घी डालने पति आ गए वहां. और वो भी बेटे की तरफ़ से ही मुझ पर चिल्लाने लगे,‘‘इनको मेरे जैसा समझा है क्या? तुम कुछ भी करती रहो और ये चुप रहें. इन्हें भी तो पता चले इनका बाप क्या-क्या सहता है?’’
मैं तो आसमान से नीचे गिर पड़ी. मेरे इतने सालों की तपस्या का ये नतीजा. इन्होंने तो मुझे आईना ही दिखा दिया. कॉलेज में केमिस्ट्री की टॉपर और यहां स्टूपिड लेडी. कभी तो कोई प्यार के दो बोल लेता. भाई को फ़ोन किया तो वो भी उन्हीं की भाषा बोलने लगा,‘‘यू आर रियली स्टूपिड ओन्ली. व्हाट वाज़ दी नीड टू डू चेरिटी? बच्चे का खाना गली-मुहल्ले के चोरों को खिलाएगी तो कोई भी यही बोलेगा. और सुन हम भी अपनी-अपनी ज़िंदगियों में उलझे हुए हैं. हमारे तक ये सारी बातें लाने की ज़रूरत नहीं है.’’
कोई दिल का दुःख सुनने को भी तैयार नहीं. ऐसा सिर्फ़ मेरे साथ हो रहा है या मेरे दूसरे मित्रों के साथ भी यही घट रहा है. दो-तीन बड़ी दुविधा और अनमनेपन में गुज़रे. तीसरे दिन मैं अपनी एक प्रोग्रेसिव दोस्त से मिलने गई. मेरी व्यथा सुन उसने कहा,‘‘खुल कर जियो और अपने लिए जियो. जिस चीज़ से ख़ुशी मिलती है, वो करो. भाई, पति और बेटा तीनों पुरुष हैं. जब तक उनकी कठपुतली बनी रहो, वो ख़ुश. ख़ुद को पहले आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाओ फिर मेरी तरह ज़िंदगी जियो.’’
मुझे तो मानो जीने का मंत्र मिल गया. दूसरे दिन पड़ोस के बच्चों को बुला कर अपने केमिस्ट्री के ज्ञान की परीक्षा ली, जो सफल रही. दूसरे ही दिन पड़ोस के दस पैरेंट्स आकर ट्यूशन लेने की ज़िद करने लगे. मैंने भी पति और बेटों को आइना दिखाने की ठानी, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. ये तो मुझे पहले से ही पता था कि इनकम टैक्स और ईडी वालों की नज़रों से बचने के लिए पति ने ये घर मेरे नाम लिया था, यानी मैं इस अट्टालिका की स्वामिनी थी. इसका भरपूर फ़ायदा उठाने की सोची. मैं पति की स्टडी ख़ाली कर उनका सामान दूसरे कमरे में शिफ़्ट कर रही थी, तभी पति वहां आ गए और शोर मचाने लगे,‘‘ये क्या कर रही हो? पागल हो गई हो क्या? ये मेरा पर्सनल स्पेस है.’’ मैं भी उतनी ही ज़ोर से चिल्लाई,‘‘दिस इज़ माई हाउस, श्रीमान बी इन लिमिट.’’
पति तो आईना देखने को तैयार ही ना थे, लेकिन ख़ूब लड़ी मर्दानी, मैं तो अपने मन की रानी थी. इरादे पक्के थे. बेटा और पति चुपचाप ऊपर शिफ़्ट हो गए.
मेरे इरादों ने मेरा समय बदल दिया. मैंने अपने सपने और ख़ुशियां समेट ली. सबसे पहले अपने हमेशा के दोस्त असलम और उसकी अम्मी अस्फ़िया को अपने बाहर के कमरे में लेकर चली आई. छोटे मियां का पास के स्कूल में दाख़िला करा दिया. उसकी अम्मी की बीमारी जो लाइलाज थी का इलाज शुरू करवा दिया. मेरी कोचिंग क्लास धड़ल्ले से चलने लगी. मेरी मिसालें दी जाने लगी. मैं बार-बार नन्हें फ़रिश्ते का शुक्रिया अदा करती हूं, जिसने मुझे जीने की एक नई राह दिखाई. ना वो मेरी ज़िंदगी में आता, ना मुझमें ये विद्रोह जगता. ना मैं अपनी आत्मा की सुन पाती.
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