आज जबकि अपने देश के लोगों के बीच ही ‘हम’ और ‘वे’; ‘देशभक्त’ और ‘देशद्रोही’ जैसी स्पष्ट रेखाएं खींची जा रही हैं, ऐसे माहौल में स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाते हुए इस बात पर हर नागरिक को चौकन्ना रहना चाहिए कि क्या वह वाक़ई देशप्रेम में या फिर किसी ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है. ऐसे मोड़ पर लाज़मी है कि अपने देशप्रेम को परखने के लिए हम उन लोगों के विचारों को दोबारा जानें, जो अतीत में हमारे देश का मार्गदर्शन करते रहे हैं. आज हम जानेंगे कि देशभक्ति के बारे में स्वामी विवेकानंद के क्या विचार थे.
स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों ने विदेशों में उन्हें पहचान, सम्मान और आदर की सफलता दिलाई थी, परंतु उनकी देशभक्ति की भावना और महत्त्वाकांक्षा ने उनको अपनी मातृभूमि के लिए बेचैन कर दिया था. उन्होंने अपने देश लौटने और अपने देशवासियों को जाग्रत करने का निश्चय किया. फिर भी उनकी देशभक्ति की अवधारणा उस समय की प्रचलित अवधारणा मे भिन्न थी. मातृभूमि केवल एक देश, एक भू-भाग और उसके लोग नहीं होते, वह एक देवी होती है और देश के प्रति हमारा कर्तव्य एक आराधना से कम नहीं होता. उनके उदबोधन लोगों को, विशेष रूप में युवकों को देशभक्ति के तीव्र उत्साह से भर देते थे. आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हम देशभक्ति के बारे में उनकी धारणाओं को जानेंगे.
मद्रास लौटने पर स्वामी विवेकानंद ने लोगों से जागृत होने और मातृभूमि के नवजीवन के लिए सक्रिय होने का आह्वान किया. उन्होंने कह कि एक व्यक्ति इसे महान सम्मान समझे, यदि उसे देश का हित-साधन करने के लिए नरक भी जाना पड़ता है. उन्होंने मद्रास में चार व्याख्यान दिए. दो व्याख्यान ‘मेरे अभियान की योजना’ और ‘भारत का भविष्य” राजनीतिक उद्बोधन थे.
उन्होंने सभी भारतीयों की एकता पर बल दिया और कहा कि भारतीयों में एकता और बंधुत्व, जो राष्ट्रीय महानता की गुप्त कुंजी हैं, का अभाव है, उन्होंने संकेत किया कि पारस्परिक अनैक्य और ईर्ष्या, राष्ट्रीय जीवन के बहुत बड़े दोष रहे हैं. उनका निंदासूचक कथन था,“हम संगठित नहीं हो सकते, हम एक-दूसरे से प्रेम नहीं करते और तीन व्यक्ति, बिना एक-दूसरे से घृणा किए, बिना दूसरों से ईर्ष्यालु हुए, एक साथ नहीं आ सकते.’’
उन्होंने कहा था: “आने वाले पचास वर्षों के लिए, यही हमारा मूलमंत्र है -यही हमारी भारतमाता, इस अवधि में हमारे सारे देवताओं को हमारे मस्तिष्क से अंतर्ध्यान हो जाने दो.’’
‘‘दूसरी बात, एक सच्चे देशभक्त, यदि पूरा संसार ही उसके विरोध में हो, का संकल्प ल पर्वत के समान ऊंची बाधाओं को जीत लेगा, उसको अपने लक्ष्य की ओर अनवरत् चलते रहना चाहिए.’’
“तीसरी बात, एक देशभक्त को अपने लोगों की दुर्दशा अपने हृदय से अनुभव करना चाहिए और उससे संलग्न होना चाहिए और उसको अपने को देश के लिए समर्पित कर देना चाहिए.” अपने भाषण ‘मेरे अभियान की योजना’ में उन्होंने इसे एक बड़े श्रोता समूह के सामने स्पष्ट किया था :
“मैं देशभक्ति में विश्वास करता हूं और मेरा अपना देशभक्ति का आदर्श है. एक बड़ी उपलब्धि के लिए तीन वस्तुएं आवश्यक हैं, पहला, इसे हृदय से अनुभव करो. इसमें कौन-सी बुद्धि है और इसका क्या कारण है? यह थोड़ी दूर जाकर रुक जाता है, परंतु हृदय से प्रेरणा आती है. इसीलिए मेरे भावी समाज-सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों क्या तुम अनुभव करते हो कि करोड़ों लोगों की अगली पीढ़ियां, इन जंगलियों की पड़ोसी हो गई हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि लाखों लोग आज भूखे हैं और लाखों लोग युगों से भूखे रह रहे हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञानता हमारे देश के ऊपर एक काले बादल की तरह छा गई है. क्या इससे तुम बेचैन नहीं होते हो? क्या इससे तुम्हारी नींद उड़ जाती है? क्या यह भावना तुम्हारे ख़ून में मिल गई है, जो तुम्हारी शिराओं से तुम्हारे हृदय में जाकर तुम्हारी धड़कनों के साथ एकाकार हो गई है? क्या इससे तुम लगभग पागल हो गए हो? क्या इस विध्वंस की कठिनाई के विचार ने तुम्हें आक्रांत कर लिया है और तुम अपना नाम, प्रसिद्धि, तुम्हारी पत्नी और बच्चा, तुम्हारी संपत्ति और अपने शरीर को भी भुला चुके हो? क्या तुमने यह कर लिया है? वह तुम्हरे देशभक्त बनने का पहला क़दम, सबसे पहला क़दम है.’’
विवेकानंद द्वारा दी गई देशभक्ति की यह परिभाषा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की परिभाषा से तीखे रूप में भिन्न थी. विवेकानंद के लिए इसका तात्पर्य सर्वश्रेष्ठ बलिदान, श्रद्धा और समर्पण था. वह संवैधानिक मार्ग -ब्रिटिश सरकार से याचना करने, उनको संतुष्ट रखने और चिरौरी करने-से थोड़े-से सामाजिक सुधार में विश्वास नहीं करते थे.
साभार: पुस्तक: विवेकानंद की खोज में; लेखिका: डॉक्टर अजीत जावेद; अनुवादक: राघवेंद्र कृष्ण प्रताप; प्रकाशक: संवाद प्रकाशन
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