अभी-अभी हम सभी देश की आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाकर फ्री हुए हैं. वैसे तो भारत देश में तीज-त्यौहारों की कोई कमी नहीं है. हम उत्सव धर्मी देश हैं. पर बीते कुछ सालों में हम उत्सव से महोत्सव की तरफ़ कूच कर गए हैं. आर्थिक-राजनीतिक मसलों की समझ रखनेवाले हमारे कॉलमिस्ट जय राय उन कारणों पर सरसरी नज़र डाल रहे हैं, जिसने हमें हर हाल में महोत्सव मनाने के लिए तैयार किया.
15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी ने एकाएक देश की सारी समस्याओं को ख़त्म नहीं कर दिया, बल्कि समस्याओं से जूझ रहे देशवासियों में इस आशा का संचार किया कि स्वराज में चीज़ें बेहतर होंगी. समस्याओं से और मज़बूती से लड़ सकेंगे. यानी कुल मिलाकर हालात सुधरेंगे, भविष्य सुनहरा होगा यह आम भावना थी. आगे के दशकों में भारत लड़खड़ाते, चलते, दौड़ते आगे बढ़ता रहा. कुछ उम्मीदें साकार हुईं तो, कुछ ने निराश किया. पर इतना तो तय था कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. फिर आया वर्ष 2014 जब भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाई और श्री नरेन्द्र मोदी भारत के नए प्रधानमंत्री बने. ऐसा लगा जैसे भारत को सभी मूलभूत समस्याओं से छुट्टी मिल गई है.
दक्षिण भारत को छोड़कर ‘अबकी बार मोदी सरकार’ और ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं’ के स्लोगन पर पूरे भारत ने ऐतबार किया. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाला यूपीए-2 भ्रष्टाचार और पॉलिसी पैरालिसिस के गंभीर आरोपों से घिरा था. चुनावों के ढाई-तीन साल पहले तक भ्रष्टाचार मुक्त भारत वाला कैम्पेन अन्ना हज़ारे की अगुवाई में केंद्र सरकार की चूलें हिला चुका था. ऐसे में नरेन्द्र मोदी के कुशल इलेक्शन कैम्पेनर ने कमाल कर दिया. और देश की उम्मीदों को नए पंख लग गए. यूं लगा कि सच में अच्छे दिन, अब बस कुछ ही दिन दूर हैं.
जनता का उत्साह, और हर अवसर को उत्सव में बदलने की होशियारी
मोदी सरकार के शुरुआती दिनों में पहले तो सब कुछ सामान्य-सा लगता था. जनता के प्यार से अभिभूत केंद्र सरकार ने धीरे-धीरे जनोत्थान का काम शुरू किया. 2014 से लोग हमेशा व्यस्त रहे, कभी आधार कार्ड से नए योजना का लाभ लेने के लिए, कभी काले धन का लाभ के लिए जन-धन बैंक अकाउंट खोलने में, कभी नोटबंदी के बाद एटीएम के बाहर लाइन लगाने में. भारत के प्रधानमंत्री ने जब भी देशवासियों को कोई फ़रमान सुनाया, देशवासियों ने उसे सिर-आंखों पर बिठाया. सरकार ने जनता को मुद्दों से भटकाकर ख़ूब व्यस्त रखा. प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता ने देश के लोगों से वह सब कुछ करवाया, जिसके बारे में कभी फ़ुर्सत से सोचने पर हंसी आ सकती है, कोफ़्त हो सकता है या ख़ुद के ठगे जाने का एहसास भी आपका दिल बिठा सकता है. कोरोना से जंग के शुरुआती दिनों में थाली पीटने और दिया जलानेवाला वैज्ञानिक कारण याद है ना? तो इसी उत्साही जनता के साथ सरकार ने आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया, क्या ख़ूब मनाया. चलिए, अमृत महोत्सव से पहले के कुछ अहम पड़ावों, उत्सवों, महोत्सवों पर एक नज़र डालते हैं.
स्मार्ट सिटी और नए परियोजनाओं का महोत्सव
केंद्र में सरकार बनते ही मोदी सरकार ने पूरे भारत में काग़ज़ पर अनेकों परियोजनाओं की झड़ी लगा दी. मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन परियोजना से लेकर तमाम स्मार्ट सिटी की योजनाओं ने उस दौर में सरकारी प्रचार का ख़र्चा बढ़ा दिया था. आजकल प्रसिद्ध सरकारी रेवड़ी को बांटने वाले कल्चर का काम सबसे पहले भाजपा ने ही किया था. 2014 के बाद से ही मोदी जितनी बार चुनाव प्रचार के लिए निकले, अपनी सभाओं में लोगों से पूछते थे, आपको फ़लाना पैसा चाहिए कि नहीं चाहिए? यह काम होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए? भारत सरकार की जनता की निशुल्क सेवाएं, कब मोदी सरकार की मुफ़्त सेवा में तब्दील हो गईं किसी को पता ही नहीं चला. भाजपा आईटी सेल के शब्दों के चयन ने मोदी को देश का सुपरहीरो बना दिया. बुलेट ट्रेन को छोड़कर इन तमाम परियोजनाओं का क्या हुआ, अब तक कुछ ख़बर नहीं है और किसी ने सरकार से पूछने ने हिम्मत तक नहीं की.
छवि निर्माण तपस्या
सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री ने छवि नियंत्रण पर ज़्यादा ज़ोर दिया. पुराने प्रधानमंत्रियों के मुक़ाबले ध्यान दिया गया कि कहीं से कोई भी ग़लती न हो, जहां प्रधानमंत्री की बदनामी हो सके. इसलिए प्रधानमंत्री ने मीडिया से सुरक्षित दूरी बना ली. किन्हीं कारणों से नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात दंगे के बाद उन्हें अमेरिका सरकार द्वारा अमेरिका में प्रवेश से वर्जित रखा गया था. प्रधानमंत्री बनते ही हमारे मोदी जी ने विदेश दौरों का सिलसिला शुरू किया, जो वर्ष 2020 तक कोरोना वायरस के आगमन तक बना रहा. विदेश यात्रा के दौर में मोदी मंत्रिमंडल द्वारा अमेरिका को ज़्यादा तवज्जो दिया गया. इसके अलावा यूरोपियन देशों को भी प्राथमिकता दी गई. यह वो दौर था जब प्रधानमंत्री मोदी के इवेंट मैनेजमेंट का ख़ास ख़्याल रखा जाता था. मोदी जहां भी जाते थे, उनके आगमन से प्रस्थान तक भीड़ जुटाने से लेकर मीडिया को नियंत्रण करने का काम उनके इशारे पर चलता था. प्रधानमंत्री के विदेश यात्राओं से भारत को कितना लाभ हुआ पता नहीं, लेकिन दुनियाभर में उनकी छवि निर्माण का काम अच्छी तरह किया गया. मोदी की छवि देश की छवि से कब बड़ी हो गई, लोगों को पता ही नहीं चला. भारत में उसके बाद के तमाम चुनावों में नरेंद्र मोदी के नाम का सिक्का ज़ोर-शोर से चला. हिंदी बेल्ट ने मोदी को भारत की राजनीति का आख़िर विकल्प तक घोषित कर रखा है.
दूर देश के मित्रों को प्राथमिकता देने के चक्कर में भारत मौजूदा सालों में अपने पड़ोसी देशों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में विफल साबित हुआ. चाइना अपने प्रभाव से नेपाल को लुभाने में क़ामयाब रहा और दोनों देश मिलकर वन रोड इनीशिएटिव के तहत आपसी बिज़्नेस के लिए सड़क बना रहे हैं. श्रीलंका, मालदीव भी चाइना के प्रभाव से अछूते नहीं रहे. श्रीलंका में गृह युद्ध की स्थिति में भारत के मदद के बावजूद अभी भी श्रीलंका चाइना को ही प्राथमिकता दे रहा है. चाइना उसके बंदरगाह का इस्तेमाल अपने सैन्य फ़ायदे के लिए कर रहा है. भाजपा की सरकार पाकिस्तान के नाम का माला जप रही है और चाइना भारत के सीमाओं के अंदर पहुंचने के जुगत में लगा है.
मीडिया मैनेजमेंट और हिंदू-मुस्लिम आहुति
देश-विदेश में छवि बनाए रखने के काम में मीडिया का सहयोग काफ़ी अहम रहा. भाजपा की मीडिया आईटी सेल ने मेनस्ट्रीम मीडिया को कंट्रोल करने के काम को हैरतअंगेज क़ामयाबी के साथ अंजाम दिया है. भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही अधिकतर मीडिया घराने सत्ता के पक्ष में खड़े दिखाई दिए. हिंदी या इंग्लिश की मेन स्ट्रीम मीडिया ने जनता के मूलभूत मुद्दों को छोड़कर भाजपा के विकास वाली रॉकेट साइंस टेक्नॉलजी को ज़्यादा महत्व दिया.
आम मुद्दे मीडिया की चर्चा से ग़ायब हो गए और उनकी जगह भारत की मीडिया ने हिन्दू-मुस्लिम, हिंदुस्तान-पाकिस्तान, मोदी की दुनिया में क़ामयाबी, भारत का विश्व गुरु बनना, चाइना को डराकर भगाना जैसे अधकचरे मुद्दों को सहजता से स्वीकार कर लिया. जिन पत्रकारों ने सत्ता से सवाल किया उन्हें देशद्रोही के तौर पर प्रचलित किया गया. शिक्षा, बेरोज़गारी, महंगाई, सड़क, पानी, न्याय प्रणाली, समाजिक सौहार्द को मीडिया ने नकार दिया. विपक्ष मीडिया के कवरेज से लगातार बाहर होता गया. मीडिया ने विपक्ष का साथ देने के बजाय हर समस्या के लिए विपक्ष को ही ज़िम्मेदार ठहराया.
चरित्र हनन महायज्ञ
भाजपा द्वारा 2014 के बाद से भारत के इतिहास को दोबारा गढ़ने की शृंखला में विपक्ष के तमाम नेताओं का चरित्र हनन किया गया. भारत के दोनों सदनों में जवाहर लाल नेहरू को कश्मीर में धारा 370 हटाने से लेकर, चाइना के यूएन में वीटो पावर स्टेट्स दिलाने के लिए हर बार ज़िम्मेदार ठहराया गया. इसके अलावा अनेक घटनाओं से जोड़कर नेहरू को बार-बार बदनाम करने की कोशिश की गई. दक्षिण भारत की कमला हैरिस के अमेरिका के उपराष्ट्रपति चुने जाने पर भाजपा ने बधाई दी, लेकिन भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विदेशी मूल की पत्नी सोनिया गांधी को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सोनिया गांधी को इटली वाली सोनिया गांधी कहा गया, कभी कुछ और भी कहा गया, लेकिन हर बार मक़सद सिर्फ़ बदनाम करना और भारत की राजनीति से उन्हें दूर करना था. बिना किसी तथ्यों के आधार पर अडल्टरेटेड वीडियो की मदद से उस वक़्त के कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को मंद बुद्धि बताया गया. तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और मनगढ़ंत कहानियों के माध्यम से भाजपा ने उन सारे लोगों का चरित्र हनन किया, जिससे उन्हें मौजूदा भारतीय राजनीति में ख़तरा महसूस हो.
2014 से भाजपा ने भारत के लोगों को सन 1947 का मौजूदा समय में अहसास कराने के लिए पूर्व सरकारों के उपलब्धियों को सिरे से ख़ारिज कर दिया. लोगों में धारणा फैलाई गई की पिछले सरकारों ने आज तक क्या किया? अब हम कर रहे हैं थोड़ा वक़्त तो लगेगा ही. इसी कड़ी में सरदार वल्लभ पटेल की तुलना में भाजपा के क़द्दावर नेता अमित शाह को लौह पुरुष के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की गई. लोगों को बताया गया की अगर सन 47 में मोदी प्रधानमंत्री रहे होते और अमित शाह गृह मंत्री रहे होते तो आज स्थिति कुछ और होती. भारत की अखंड हिंदुस्तान वाली छवि कुछ और होती. दुनिया के नक़्शे में पाकिस्तान नहीं होता. चाइना हिंदुस्तान से कभी आगे नहीं निकलता. अमेरिका का डॉलर रुपए के बराबर होता. जबकि सच्चाई यह है कि डॉलर के मुक़ाबले रुपए की जितनी दुर्गति इन आठ सालों में हुई है, वह अपने आप में ऐतिहासिक है.
चुनावी अश्वमेध
भारतीय जनता पार्टी को फ़ुलटाइम चुनावी मोड में रहनेवाली पार्टी के तौर पर जाना जाता है. पर चुनावों में मुद्दों से भटकाने में भी इस पार्टी का कोई सानी नहीं है. पूरे भारत में जहां भी चुनाव हुए, हर राज्य में बाक़ी राजनीतिक पार्टियों के मुक़ाबले भाजपा ने मूलभूत मुद्दों को प्राथमिकता नहीं दिया. अन्य पार्टियों और लोगों को मुद्दों से हटाने और लोगों को बरगलाने का काम भाजपा ने प्रायोजित ढंग से किया. वंशवाद का राग अलापने वाली भाजपा ने अपनी पार्टी में व्याप्त वंशवाद को हमेशा नज़रअंदाज़ किया. भाजपा के शीर्ष नेताओं ने भड़काऊ भाषणों का सहारा लिया, लेकिन कभी भी उनके ख़िलाफ़ कड़े कदम नहीं उठाए गए, बल्कि मीडिया के सहयोग से लीपापोती की गई. भाजपा बिना वजह अलूल-जुलूल बातों को मुद्दा बनाकर विपक्षी नेताओं को पाकिस्तान भेजती रही है. राष्ट्रवाद के आड़ में पाकिस्तान का नाम लेकर भाजपा हर चुनाव में विपक्ष के चुनाव प्रचार को नाकाम कर देती है. प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही नरेंद्र मोदी हर दिन अगले चुनाव की तैयारी करते हुए नज़र आए और उनकी भाषण की शैली आक्रामक रही है. भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों की तुलना में नरेंद्र मोदी की भाषा में शालीनता कम झलकती है और अपने हर भाषण में वो भाजपा के लिए चुनाव प्रचार करते हुए नज़र आते हैं. भारत के हर राज्य में चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान हमेशा छाया रहा है जो प्रॉपगैंडा के अलावा और कुछ नहीं है.
अकाट्य महामंत्र राष्ट्रवाद
आज के भारत में राष्ट्रवाद को मौजूदा सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है. जैसे कि इससे पहले देशवासियों को अपने देश से कोई प्रेम ही नहीं था. भाजपा ने हर देशवासी को राष्ट्रवाद साबित करने पर मजबूर कर दिया है. राष्ट्रवाद साबित करने की समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों से ख़बरें आती रही हैं. “भारत माता की जय” नहीं बोलने पर दंगा फ़साद की ख़बर आम हो चली है. जनता को मूलभूत विकास के मुद्दों से भटकाने के लिए राष्ट्रवाद भाजपा का सबसे कारगर हथियार है.
आज़ादी के 75 साल बाद आज हमारे हर देशवासी के कर्तव्य निष्ठा का परिणाम और पूर्व सरकारों की उपलब्धियां हैं, जिनकी बदौलत भाजपा राष्ट्रवाद के सुर अलाप रही है. जनता अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव अपने हिसाब से मना सकती थी. इसके लिए मौजूदा सरकार को सिर्फ़ इतना भर कहने की ज़रूरत थी की इस साल हम अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाएंगे इसे यादगार बनाएंगे. अमृत महोत्सव के नाम पर सबके यहां तिरंगा पहुंचाने, या राशन की लाइन में खड़े ग़रीब पर झंडा ख़रीदने के लिए दबाव बनाने जैसे काम किए गए, जबकि उनकी बेरोज़गारी और ग़रीबी को ज़्यादा महत्व दिया जाना चाहिए था.
ख़ैर, अब मैं आज़ादी के अमृत महोत्सव की बात करूं तो मेरा निजी अनुभव यह रहा कि सरकारी कर्मचारी मेरे घर आकर तिरंगा दे गए और कहा इसे घर में ऐसी जगह लगाना, जहां से बाहर भी दिखाई दे. उस दिन से सोच रहा हूं मेरे घर तो सालभर छोटा-सा तिरंगा लगा रहता है, घर के अंदर दरवाज़े पर. चलिए, ख़ैर कोई बात नहीं.
महोत्सवों और आयोजनों के इस दौर में मुझे यूं हीं कहीं पढ़ी वह बाद याद आ गई, जब सन 1925 के आसपास जर्मनी में हट्लर के साथी कैम्पेनर रहे जोसेफ़ गोब्लस ने जर्मनी के 70 फ़ीसदी आबादी में सस्ते रेडियो बनवाकर बांट दिया था. उस वक़्त उस रेडियो पर नाज़ी पार्टी का प्रोपैगैंडा चलता था. लोगों के घर रेडियो बज रहा है कि नहीं, इसकी निगरानी के लिए रेडियो वॉर्डन तैनात किए थे. अगर वहां के लोग रेडियो सुनते हुए नहीं पाए जाते थे तो गए काम से. हालांकि यह दूसरे दौर की दुनिया के दूसरे हिस्से की बात है, लेकिन बात निकलेगी तो चर्चा होगी और इतिहास घटनाएं तो जोड़ी ही जाएंगी.