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घर जमाई: कहानी अजब-ग़ज़ब रिश्तों की (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
August 20, 2022
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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Munshi-Premchand_Kahani
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कुछ रिश्तों के धागे उतने भी सीधे-सरल नहीं होते, जितना हम समझते हैं. और कुछ रिश्ते उतने भी जटिल नहीं होते, जैसा हम पहले से मान बैठते हैं. अजब-ग़ज़ब रिश्तों की इस कहानी में पढ़ें, क्या होता है जब सौतेली मां आने के बाद हरिधन अपना हिस्सा लेकर ससुराल चला जाता है? घर जमाई बनने पर क्या होता है उसके साथ?

हरिधन जेठ की दुपहरी में ऊख में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा. घर में से धुंआ उठता नज़र आता था. छन-छन की आवाज़ भी आ रही थी. उसके दोनों साले उसके बाद आए और घर में चले गए. दोनों सालों के लड़के भी आए और उसी तरह अन्दर दाखिल हो गए; पर हरिधन अन्दर न जा सका. इधर एक महीने से उसके साथ यहां जो बरताव हो रहा था और विशेषकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पांव में बेड़ियां-सी डाले हुए था. कल उसकी सास ही ने तो कहा था, मेरा जी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारी ज़िंदगी का ठेका लिए बैठी हूं क्या? और सबसे बढ़कर अपनी स्त्री की निष्ठुरता ने उसके हृदय के टुकड़े कर दिए थे. वह बैठी यह फटकार सुनती रही, पर एक बार भी तो उसके मुंह से न निकला, अम्मा, तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो? बैठी गट-गट सुनती रही. शायद मेरी दुर्गति पर ख़ुश हो रही थी. इस घर में वह कैसे जाय? क्या फिर वही गालियां खाने, वही फटकार सुनने के लिए? और आज इस घर में जीवन के दस साल गुज़र जाने पर यह हाल हो रहा हैं. मैं किसी से कम काम नहीं कहता हूं? दोनों साले मीठी नींद सोते रहते हैं और मैं बैलों को सानी-पानी देता हूं, छांटी काटता हूं. वहां सब लोग पल-पल पर चिलम पीते हैं, मैं आंखें बन्द किए अपने काम में लगा रहता हूं. संध्या समय पर घरवाले गाने-बजाने चले जाते हैं. मैं घड़ी रात तक गायें-भैसे दुहता हूं. उसका यह पुरस्कार मिल रहा है कि कोई खाने को भी नहीं पूछता. उलटे और गालियां मिलती हैं.
उसकी स्त्री घर से डोल लेकर निकली और बोली-ज़रा इसे कुएं से खींच लो, एक बूंद पानी नहीं है.
हरिधन ने डोल लिया और कुएं से पानी भर लाया. उसे ज़ोर से भूख लगी हुई था. समझा, अब खाने को बुलाने आएगी, मगर स्त्री डोल लेकर अन्दर गई तो वहीं की हो रही. हरिधन थका-मांदा, क्षुधा से व्याकुल पड़ा सो रहा.
सहसा उसकी स्त्री गुमानी ने आकर उसे जगाया.
हरिधन ने पड़े-पड़े ही कहा-क्या है? क्या पड़ा भी न रहने देगी या और पानी चाहिए?
गुमानी कटु स्वर में बोली- गुर्राते क्यों हो, खाने को बुलाने आई हूं.
हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के भोजन किए चले जा रहे हैं. उसकी देह में आग लग गई. मेरी अब यह नौबत पहुंच गई कि इन लोगों के साथ बैठ कर खा भी नहीं सकता. मैं इनकी जूठी थाली चाटनेवाला हूं. मैं इनका कुत्ता हूं, जिसे खाने के बाद टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है. यही घर है, जहां आज से दस साल पहले उसका कितना आदर-सत्कार होता था. साले ग़ुलाम बने रहते थे. सास मुंह जोहती रहती थी. स्त्री पूजा करती थी. तब उसके पास रुपए थे, ज़ायदाद थी. अब वह दरिद्र है. उसकी सारी ज़ायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया. अब रोटियों के भी लाले हैं. उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इसी वक़्त अन्दर जाकर सास को और साली को भिगो-भिगोकर लगाए, पर जब्त करके रह गया. पड़े-पड़े बोला-मुझे भूख नहीं हैं. आज न खाऊंगा.
गुमानी ने कहा-न खाओगे मेरी बला से, हां नहीं तो! खाओगे, तुम्हारे ही पेट में जाएगा, कुछ मेरे पेट में थोड़े ही जाएगा.
हरिधन का क्रोध आंसू बन गया. यह मेरी स्त्री हैं, जिसके लिए मैंने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया. मुझे उल्लू बनाकर यह सब मुझे अब निकाल देना चाहते हैं. वह अब कहां जाए! क्या करें!
उसकी सास आकर बोलीं-चलकर खा क्यों नहीं लेते जी, रूठते किस पर हो. यहां तुम्हारे नखरे सहने का किसी में बूता नहीं हैं. जो देते हैं, वह मत देना और क्या करोगे! तुमसे बेटी ब्याही हैं, कुछ तुम्हारी ज़िंदगी का ठेका नहीं लिया है.
हरिधन ने मर्माहत होकर कहा-हां अम्मा, मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था. अब मेरे पास क्या है कि तुम मेरी ज़िंदगी का ठेका लोगी? जब मेरे पास धन भी था, तब सब कुछ आता था. अब दरिद्र हूं, तुम क्यों बात पूछोगी?
बूढ़ी सास भी मुंह फुलाकर भीतर चली गई.

***
बच्चों के लिए बाप एक फालतू-सी चीज़-एक विलास की वस्तु-है, जैसे घोड़े के लिए चने या बाबुओं के लिए मोहनभोग. मोहनभोग उम्र-भर न मिले, तो किसका नुक़सान है; मगर एक दिन रोटी-दाल के दर्शन न हो, तो फिर देखिए क्या हाल होता है! पिता के दर्शन कभी-कभी शाम-सबेरे हो जाते हैं, वह बच्चे को उछालता है, दुलारता है, कभी गोद में लेकर या उंगली पकड़कर सैर कराने ले जाता है और बस, यही उसके कर्तव्य की इति है. वह परदेश चला जाए, बच्चे को परवा नहीं होती; लेकिन मां तो बच्चे का सर्वस्व है. बालक एक मिनट के लिए भी उसका वियोग नहीं सह सकता. पिता कोई हो, उसे परवाह नहीं, केवल एक उछालने-कुदानेवाला आदमी होना चाहिए; लेकिन माता तो अपनी होनी चाहिए, सोलहों-आने अपनी. वही रूप, वही रंग, वही प्यार, वही सब-कुछ. वह अगर नहीं है, तो बालक के जीवन का स्रोत मानो सूख जाता है, फिर वह शिव का नन्दी है, पर फूल या जल चढ़ाना लाज़िमी नहीं, अख़्तियारी है. हरिधन की माता का आज दस साल हुए, देहान्त हो गया था. उस वक़्त उसका विवाह हो चुका था. वह सोलह साल का कुमार था. पर मां के मरते ही उसे मालूम हुआ कि मैं कितना निस्सहाय हूं. जैसे उस घर पर उसका अधिकार ही न रहा हो. बहनों के विवाह हो चुके थे. भाई कोई दूसरा न था. बेचारा अकेले घर में जाते भी डरता था. मां के लिए रोता था, पर मां की परछाई से डरता था. जिस कोठरी में उसमे देह-त्याग किया था, उधर आंखें तक न उठाता. घर में एक बुआ थी, वह हरिधन को बहुत दुलार करती. हरिधन को अब दूध ज़्यादा मिलता, काम भी कम करना पड़ता. बुआ बार-बार पूछती-बेटा! कुछ खाओगे? बाप भी अब उसे ज़्यादा प्यार करते. उसके लिए अलग एक गाय मंगवा दी. कभी-कभी उसे कुछ पैसे देते कि जैसे चाहे ख़र्च करे. पर इन मरहमों से वह घाव न पूरा होता था, जिसने उसकी आत्मा को आहत कर दिया था. वह दुलार और प्यार बार-बार मां की याद दिलाता. मां की घुड़कियों में जो मज़ा था, वह क्या इस दुलार में था? मां से मांगकर, लड़कर, ठुनककर, रूठकर लेने में जो आनन्द था, वह क्या भिक्षादान में था? पहले वह स्वस्थ था, मांग-मांगकर खाता था, लड़-लड़कर खाता; अब वह बीमार था, अच्छे-से-अच्छे पदार्थ उसे दिए जाते थे, पर भूख न थी.
सालभर तक वह इसी दशा में रहा. फिर दुनिया बदल गई. एक नई स्त्री, जिसे लोग उसकी माता कहते थे, उसके घर में आई और देखते-देखते एक काली घटा की तरह उसके संकुचित भूमंडल पर छा गई-सारी हरियाली, सारे प्रकाश पर अंधकार का परदा पड़ गया. हरिधन ने इस नकली मां से बात तक न की, कभी उसके पास न गया तक नहीं. एक दिन घर से निकला और सुसराल चला आया.
बाप ने बार-बार बुलाया, पर उसके जीते-जी वह फिर उस घर में न गया. जिस दिन उसके पिता के देहान्त की सूचना मिली, उसे एक प्रकार का ईर्ष्यामय हर्ष हुआ. उसकी आंखों में आंसू की एक बूंद भी न आई.
इस नए संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर मातृ-स्नेह का आनन्द मिला. उसकी सास ने ऋषि-वरदान की भांति उसके शून्य जीवन को विभूतियों से परिपूर्ण कर दिया. मरुभूमि में हरियाली उत्पन्न हो गई. सालियों की चुहल में, सास के स्नेह में, सालों के वाक्-विलास में और स्त्री के प्रेम में उसके जीवन की सारी आकांक्षाएं पूरी हो गईं. सास कहती-बेटा, तुम इस घर को अपना ही समझो, तुम्हीं मेरी आंखों के तारे हो. वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती. वह दिल में समझता था, सासजी मुझे अपने बेटों से भी ज़्यादा चाहती हैं.
बाप के मरते ही वह घर गया और अपने हिस्से की जायदाद को कूड़ा करके रुपयों की थैली लिए फिर आ गया. अब उसका दूना आदर-सत्कार होने लगा. उसने अपनी सारी सम्पत्ति सास के चरणों पर अर्पण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया. अब तक उसे कभी-कभी घर की याद आ जाती थी, अब भूलकर भी उसकी याद न आती, मानो वह उसके जीवन का कोई भीषण कांड था, जिसे भूल जाना ही उसके लिए अच्छा था. वह सबसे पहले उठता, सबसे ज़्यादा काम करता. उसका मनोयोग, उसका परिश्रम देखकर गांव के लोग दांतों उंगली दबाते थे. उसके ससुर का भाग्य बखारते, जिसे ऐसा दामाद मिल गया. लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते गए, उसका मान-सम्मान घटता गया. पहले देवता था, फिर घर का आदमी, अन्त में घर का दास हो गया. रोटियों में भी बाधा पड़ गई! अपमान होने लगा. अगर घर के लोग भूखों मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता, तो उसे ज़रा भी शिकायत न होती. लेकिन जब वह देखता, और लोग मूंछों पर ताव दे रहे हैं, केवल मैं ही दूध की मक्खी बना दिया गया हूं, तो उसके अन्तस्तल से एक लम्बी, ठंडी आह निकल जाती. अभी उसकी उम्र कुछ पच्चीस साल की तो थी. इतनी उम्र इस घर में कैसे गुज़रेगी? और तो और, उसकी स्त्री ने भी आंखें फेर ली! यह उस विपत्ति का सबसे क्रूर दृश्य था.

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***
हरिधन तो उधर भूखा-प्यासा चिन्ता-दाह में जल रहा था, इधर घर में सासजी और दोनों सालों में बातें हो रही थी. गुमानी भी हां-में-हां मिलाती जाती थी.
बड़े साले ने कहा-हम लोगों की बराबरी करते हैं. यह नहीं समझते कि किसी ने उसकी ज़िंदगी-भर का बीड़ा थोड़े ही लिया हैं. दस साल हो गए. इतने दिनों में क्या दो-तीन हज़ार न हड़प गए होंगे?
छोटे साले ने कहा-मजूर हो तो आदमी घुड़के भी, डांटे भी, अब इनसे कोई क्या कहें. न जाने इनसे कब पिंड छूटेगा भी या नहीं? अपने दिल में समझते होंगे, मैंने दो हज़ार रुपए नहीं दिए हैं? यह नहीं समझते कि उनके दो हज़ार रुपए कब के उड़ चुके हैं. सवा सेर तो एक जून को चाहिए.
सास गम्भीर भाव से बोली-बड़ी भारी खोराक है!
गुमानी माता के सिर से जूं निकल रही थी. सुलगते हुए हृदय से बोली-निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और काम ही क्या रहता है!
बड़े-खाने की कोई बात नहीं हैं. जिसको जितनी भूख हो उतना खाए लेकिन कुछ पैदा करना चाहिए. यह नहीं समझते कि पहुनई में किसी के दिन कटे है!
छोटे-मैं तो एक दिन कह दूंगा; अब आप अपनी राह लीजिए, आपका करजा नहीं खाया है.
गुमानी घरवालों की ऐसी-ऐसी बातें सुनकर अपने पति से द्वेष करने लगी थी. अगर वह बाहर से चार पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान-सम्मान होता, वह भी रानी बन कर रहती. न जाने क्यों कहीं बाहर जाकर कमाते उसकी नानी मरती है. गुमानी की मनोवृत्तियां अभी तक बिल्कुल बालपन की-सी थी. उसका अपना कोई घर न था. उसी घर का हित-अहित उसके लिए भी प्रधान था. वह भी उन्हीं शब्दों में विचार करती, इस समस्या को उन्हीं आंखों से देखती, जैसे उसके घरवाले देखते थे. सच तो है, दो हज़ार रुपए में क्या किसी को मोल ले लेंगे? दस साल में दो हज़ार रुपए होते ही क्या है? दो सौ ही तो साल-भर के हुए. क्या दो आदमी साल-भर में दो सौ भी न खाएंगे? फिर कपड़े-लत्ते, दूध-घी सब कुछ तो हैं. दस साल हो गए, एक पीतल का छल्ला नहीं बना. घर से निकलते तो जैसे इनके प्राण निकलते है. जानते हैं, जैसे पहले पूजा होती थी, वैसे ही जन्म-भर होती रहेगी. यह नहीं सोचते कि पहले और बात थी; अब और बात है. बहू ही पहले सुसराल जाती है, तो उसका कितना महातम होता है. उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं, गांव-मुहल्ले की औरतें उसका मुंह देखने आती हैं और रुपए देती हैं. महीनों उसे घर-भर से अच्छा खाने को मिलता है, अच्छा पहनने को, कोई काम नहीं लिया जाता; लेकिन छः महीने बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता, वह घर-भर की लौंड़ी हो जाती है. उनके घर में मेरी तो वही गति होती. फिर काहे को रोना. जो यह कहो कि मैं तो काम करता हूं, तो तुम्हारी भूल है, मजूर और बात है. उसे आदमी डांटता भी हैं, मारता भी है, जब चाहता है रखता है, जब जी चाहता है निकाल देता है. कसकर काम लेता है. यह नहीं कि जब जी में आया, कुछ काम किया, जब जी में आया, पड़कर सो रहे.

***
हरिधन भी पड़ा अन्दर-ही-अन्दर सुलग रहा था कि दोनों साले बाहर आए और बड़े साहब बोले-भैया, उठो, तीसरा पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे? सारा खेत पड़ा है.
हरिधन चट से उठ बैठा और तीव्र स्वर में बोला-क्या तुम लोगों में मुझे उल्लू समझ लिया है?
दोनों साले हक्का-बक्का हो गए. जिस आदमी ने कभी ज़बान नहीं खोली हमेशा ग़ुलामों की तरह हाथ बांधे हाजिर रहा, वह आज एकाएक इतना आत्माभिमानी हो गया, यह उनको चौका देने के लिए काफ़ी था. कुछ जवाब न सूझा.
हरिधन ने देखा, इन दोनों के क़दम उखड़ गए हैं, तो एक धक्का और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका. उसी ढंग से बोला-मेरी भी आंखें हैं, अन्धा नहीं हूं, न बहरा ही हूं. छाती फाड़कर काम करूं और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊं, ऐसे गधे कहीं और होंगे.
अब बड़े साले भी गरम पड़े-तुम्हें किसी ने यहां बांध तो नहीं रखा है.
अबकी हरिधन लाजवाब हुआ. कोई बात न सूझी.
बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा-अगर तुम यह चाहो कि जन्म-भर पाहुने बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहेगे तो हमारे बस की बात नहीं है.
हरिधन ने आंखें निकाल कर कहा-क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूं?
बड़े-यह कौन कहता है?
हरिधन-तो तुम्हारे घर की यही नीति है कि जो सबसे ज़्यादा काम करे, वही भूखों मारा जाय?
बड़े-तुम ख़ुद खाने नहीं गए. क्या कोई तुम्हारे मुंह में कौर डाल देता?
हरिधन नें होंठ चबाकर कहा-मैं ख़ुद खाने नहीं गया! कहते तुम्हें लाज नहीं आती.
‘नहीं आई थी बहन तुम्हें बुलाने?’
हरिधन की आंखों में ख़ून उतर गया, दांत पीसकर रह गया.
छोटे साले ने कहा-अम्मा भी आई थी. तुमने कह दिया, मुझे भूख नहीं हैं, तो क्या करती.
सास भीतर से लपकी चली आ रही थी. यह बात सुनकर बोली-कितना कहकर हार गई, कोई उठे न तो मैं क्या करूं!
हरिधन ने विष, ख़ून और आग से भरे हुए स्वर में कहा-मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिए हूं! मै कुत्ता हूं कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रुखी रोटी का टुकड़ा फेंक दो?
बुढ़िया नें ऐंठकर कहा-तो क्या तुम लड़कों की बराबरी करोगे?
हरिधन परास्त हो गया! बुढ़िया के एक ही वाक्प्रहार ने उसका का काम तमाम कर दिया. उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गई, आंखों की आग बुझ गई, फड़कते हुए नथने शान्त हो गए. किसी आहत मनुष्य की भांति वह जमीन पर गिर पड़ा. ‘क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे?’ यह वाक्य एक लम्बे भाले की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था-न हृदय का अन्त था, न उस भाले का!

***
सारे घर ने खाया, पर हरिधन न उठा. सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनों साले मनाकर हार गए. हरिधन न उठा, वहां द्वार पर एक टाट पड़ा था. उसे उठाकर सबसे अलग कुएं पर ले गया और जगत पर बिछाकर पड़ा रहा.
रात भीग चुकी थी. अनन्त आकाश में उज्जवल तारे बालकों की भांति क्रीड़ा कर रहे थे. कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हंसता था, कोई आंखें मींचकर फिर खोल देता था. रह-रहकर कोई साहसी बालक सपाटा भरकर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहां छा जाता था. हरिधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था. उसकी बाल-स्मृतियां उन्हीं चमकीले तारों की भांति प्रज्वलित हो गईं. वह अपना छोटा-सा घर, वह आम का बाग़, जहां वह केरियां चुना करता था; वह मैदान, जहां कबड्डी खेला करता था, सब उसका याद आने लगे. फिर अपनी स्नेहमयी माता की सदय मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गई. उन आंखों में कितनी करुणा थी, कितनी दया थी. उसे ऐसा जान पड़ा, मानो माता की आंखों में आंसू भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिए हाथ फैलाए उसकी ओर चली आ रही हैं. वह उस मधुर भावना में अपने को भूल गया. ऐसा जान पड़ा, मानो माता ने उसे छाती से लगा लिया हैं और उसके सिर पर हाथ फेर रही हैं. वह रोने लगा, फूट-फूटकर रोने लगा. उसी आत्म-सम्मोहित दशा में उसके मुंह से यह शब्द निकले-अम्मा, तुमने मुझे इतना भुला दिया. देखो, तुम्हारे प्यारे लाल की क्या दशा हो रही है? कोई उस पानी को भी नहीं पूछता. क्या जहां तुम हो, वहां मेरे लिए जगह नहीं हैं!
सहसा गुमानी ने आकर पुकारा-क्या सो गए तुम, ऐसी भी क्या राच्छसी नींद! चल कर खा क्यों नहीं लेते? कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे.
हरिधन उस कल्पना जगत् से क्रूर प्रत्यक्ष में आ गया. वही कुएं की जगत थी, वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी-कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे!
हरिधन उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला-भला, तुम्हें मेरी सुध तो आई! मैंने कह तो दिया था, मुझे भूख नहीं है.
गुमानी-तो कितने दिन तक न खाओगे?
‘अब इस घर का पानी भी न पीऊंगा. तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं?’
दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी. बोली-कहां जा रहे हो?
हरिधन ने मानो नशे में कहा-तुझे इससे क्या मतलब? मेरे साथ चलेगी या नहीं? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं.
गुमानी आपत्ति के भाव से बोली-तुम बताते क्यों नहीं, कहां जा रहे हो?
‘तू मेरे साथ चलेगी या नहीं’
‘जब तक बता न दोगे, मैं न जाऊंगी.’
‘तो मालूम हो गया, तू नहीं जाना चाहती. मुझे इतना ही पूछना था, नहीं तो अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता.’
यह कहकर उठा और अपने घर की ओर चला. गुमानी पुकारती रही,‘सुन लो, सुन लो’ पर उसने फिरकर भी न देखा.

***
तीस मील की मंज़िल हरिधन ने पांच घंटों में तय की. जब वह अपने गांव की अमराइयों के सामने पहुंचा, तो उसकी मातृ-भावना उषा की सुनहरी गोद में खेल रही थी. उन वृक्षों को देखकर उसका विह्वल हृदय नाचने लगा. मन्दिर का सुनहरा कलश देखकर वह इस तरह दौड़ा, मानो एक छलांग में उसके ऊपर जा पहुंचेगा. वह वेग में दौड़ा जा रहा था, मानो उसकी माता गोद फैलाए उसे बुला रही हो. जब वह आमों के बाग़ में पहुंचा, जहां डालियों पर बैठकर वह हाथी की सवारी का आनन्द पाता था, जहां के कच्चे बेरों और लिसोड़ों में एक स्वर्गीय स्वाद था, तो वह बैठ गया और भूमि पर सिर झुकाकर रोने लगा, मानो अपनी माता को अपनी विपत्ति-कथा सुना रहा हो. वहां की वायु में, वहां के प्रकाश में, मानो उसकी विराट्-रूपिणी माता व्याप्त हो रही थी. वहां की अंगुल-अंगुल भूमि माता के पद-चिह्नों से पवित्र थी, माता के स्नेह में डूबे हुए शब्द अभी तक मानो आकाश में गूंज रहे थे. इस वायु और इस आकाश में न जाने कौन-सी संजीवनी थी, जिसने उसके शोकार्त्त हृदय को फिर बालोत्साह से भर दिया. वह एक पेड़ पर चढ़ गया और उधर से आम तोड़-तोड़कर खाने लगा. सास के वह कठोर शब्द, स्त्री का वह निष्ठुर आघात, वह सारा अपमान उसे भूल गया. उसके पांव फूल गए थे, तलवों में जलन हो रही थी; पर इस आनन्द में उसे किसी बात का ध्यान न था.
सहसा रखवाले ने पुकारा-वह कौन ऊपर चढ़ा हैं रे? उतर अभी नहीं तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूंगा कि वही ठंडे हो जाओगे.
उसने कई गालियां भी दी. इस फटकार और इन गालियों में इस समय हरिधन को अलौकिक आनन्द मिल रहा था. वह डालियों मे छिप गया, कई आम काट-काट नीचे गिराए, और ज़ोर से ठट्टा मारकर हंसा. ऐसी उल्लास से भरी हुई हंसी उसने बहुत दिन से न हंसी थी.
रखवाले को यह हंसी परिचित मालूम हुई. मगर हरिधन यहां कहां? वह ससुराल की रोटियां तोड़ रहा हैं! कैसा हंसोढ़ा था, कितना चिबिल्ला. न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ? पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था. अब गांव में ऐसा कौन है?
डांटकर बोला-वहां से बैठे-बैठे हंसोगे, तो आकर सारी हंसी निकाल दूंगा, नहीं तो सीधे उतर आओ.
वह गालियां देते जा रहा था कि एक गुठली आकर उसके सिर पर लगी. सिर सहलाता हुआ बोला-यह कौन शैतान हैं, नहीं मानता. ठहर तो, मैं आकर तेरी ख़बर लेता हूं.
उसने अपनी लकड़ी नीचे रख दी और बंदरों की तरह चट-पट ऊपर चढ़ गया. देखा तो हरिधन बैठा मुस्करा रहा हैं. चकित होकर बोला-अरे हरिधन, तुम यहां कब आए? इस पेड़ पर कब से बैठे हो?
दोनों बचपन के सखा वहीं गले मिले.
‘यहां कब आए? चलो, घर चलो. भले आदमी, क्या वहां आम भी मयस्सर न होते थे?’
हरिधन ने मुस्कराकर कहा-मंगरू, इन आमों में जो स्वाद है, वह और कहीं के आमों में नहीं हैं. गांव का क्या रंग-ढंग है?
मंगरू- सब चैनचान है भैया! तुमने तो जैसे नाता ही तोड़ लिया. इस तरह कोई अपना गांव-घर छोड़ देता हैं? जब से तुम्हारे दादा मरे, सारी गिरस्ती चौपट हो गई. दो छोटे-छोटे लड़के हैं. उनके लिए क्या होता है?
हरिधन-अब उस गिरस्ती से क्या वास्ता है भाई? मैं तो अपना ले-दे चुका. मजूरी तो मिलेगी न? तुम्हारी गैया ही चरा दिया करूंगा; मुझे खाने को दे देना.
मंगरू ने अविश्वास के भाव से कहा-अरे भैया, कैसी बातें करते हो, तुम्हारे लिए जान हाजिर है. क्या ससुराल में अब न रहोगे? कोई चिन्ता नहीं. पहले तो तुम्हारा घर ही है. उसे संभालो! छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनको पालो. तुम नयी अम्मा से नाहक डरते थे. बड़ी सीधी है बेचारी. बस, अपनी मां समझो. तुम्हे पाकर तो निहाल हो जाएगी. अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे?
हरिधन-उसका अब मुंह न देखूंगा. मेरे लिए वह मर गई.
मंगरू-तो दुसरी सगाई हो जाएगी. अबकी ऐसी मेहरिया ला दूंगा कि उसके पैर धो-धोकर पियोगे, लेकिन कहीं पहली भी आ गई तो?
हरिधन-वह न आएगी.

***
हरिधन अपने घर पहुंचा तो दोनों भाई,‘भैया आए! भैया आए!’ कहकर भीतर दौड़े, और मां को ख़बर दी.
उस घर में क़दम रखते ही हरिधन को ऐसी शांत महिमा का अनुभव हुआ मानो वह अपनी मां की गोद में बैठा हुआ हैं. इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका हृदय कोमल हो गया था. जहां पहले अभिमान था, आग्रह था, हेकड़ी थी, वहां अब निराशा थी, पराजय और याचना थी. बीमारी का ज़ोर कम हो चला था, अब मामूली दवा भी असर कर सकती थी. क़िले की दीवारें छिद चुकी थी. अब उसमें घुस जाना असाध्य न था. वही घर जिससे वह एक दिन विरक्त हो गया था, अब गोद फैलाए उसे आश्रय देने को तैयार था. हरिधन का निरवलम्ब मन यह आश्रय पाकर मानो तृप्त हो गया.
शाम को विमाता ने कहा-बेटा, तुम घर आ गए, हमारे धन्य भाग. अब इन बच्चों को पालो. मां का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही. मुझे एक रोटी दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी. तुम्हारी अम्मा से मेरी बहन का नाता है. उस नाते से तुम मेरे लड़के होते हो.
हरिधन ने मातृ-विह्वल आंखों से विमाता के रूप मे अपनी माता के दर्शन किए. घर के एक-एक कोने से मातृ-स्मृतियों की छटा चांदनी की भांति छिटकी हुई थी, विमाता का प्रौढ़ मुंखमंड़ल भी उसी छटा से रंजित था.
दूसरे दिन हरिधन फिर कंधे पर हल रखकर खेत को चला. उसके मुख पर उल्लास था और आंखों में गर्व. वह अब किसी का आश्रित नहीं, आश्रयदाता था, किसी के द्वार का भिक्षुक नहीं, घर का रक्षक था.
एक दिन उसने सुना, गुमानी ने दूसरा घर कर लिया. मां से बोला-तुमने सुना काकी! गुमानी ने घर कर लिया.
काकी ने कहा-घर क्या कर लेगी, ठट्ठा है. बिरादरी में ऐसा अंधेर? पंचायत नहीं, अदालत तो है?
हरिधन ने कहा-नहीं काकी, बहुत अच्छा हुआ. ला, महावीरजी को लड्डू चढ़ा आऊं. मैं तो डर रहा था, कहीं मेरे गले न आ पड़े. भगवान् ने मेरी सुन ली. मैं वहां से यही ठानकर चला था, अब उसका मुंह न देखूंगा.

Illustration: Pinterest

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