जब भी लिंग भेद या जेंडर डिस्क्रिमिनेशन की बात आती है हमेशा स्त्रियों के साथ हो रहे भेदभाव या स्त्रियों के लिए समाज द्वारा तय कर दी गई भूमिकाओं की ही बात प्रमुखतः कही जाती है. मगर मुद्दे के हर पहलू पर विचार करें तो यह सवाल सामने आता है कि यह भेदभाव क्या केवल स्त्री के साथ ही होता आया है या बदलती परिस्थितियों में अब पुरुष भी इसके शिकार बनने लगे हैं? क्या स्त्रियों के लिए जिस तरह की तय भूमिकाओं के निर्वाह की बात की जाती है, पुरुष भी उन्हीं तयशुदा भूमिकाओं में बंधे रहने और उनका निर्वाह करने के लिए बाध्य नहीं किए जाते? इसी संबंध में कुछ युवकों से बातचीत कर भारती पंडित ने इस मुद्दे को क़रीब से समझने की कोशिश की है.
यदि आप भी यही सोचते रहे हैं कि जब बात लिंग भेद को मिटाने की होती है तो इसका अर्थ केवल महिलाओं के पक्ष में काम किए जाने से है तो यह बात जान लीजिए कि आप लिंग भेद की समस्या को समग्रता में नहीं देख रहे हैं. दरअसल, जब सही मायनों में बराबरी आएगी, तभी तो लिंग भेद हट सकेगा. महिलाओं, पुरुषों और हर इंसान को उस आज़ादी के साथ जीने देना, जो उसका हक़ है और किसी दूसरे के अधिकारों का हनन नहीं करता, यही तो बराबरी लाता है और लिंग भेद को मिटाता है. इन युवकों से की गई बातचीत को पढ़िए और जानिए कि युवक भी किस तरह लिंग भेद और स्टीरियोटाइप का शिकार होते हैं. इन्हें सुन कर ही हम यह तय कर सकते हैं कि हम सही मायनों में लिंग भेद को कैसे दूर किया जा सकता है.
मेरा रंग/तेरा रंग
‘‘मुझे बचपन से ही लाल-गुलाबी रंग के सारे शेड्स बेहद पसंद हैं, मगर जब भी ये शेड्स पहनता हूं, घर-बाहर सभी, यहां तक कि मां और गर्लफ्रेंड भी कमेंट करते हैं- क्या लड़कियों का रंग पहन कर घूम रहे हो…अब भला बताइए, रंगों की भी टेरिटरी तय हो सकती है क्या कि फलां रंग के तय शेड्स लड़की के और फलां शेड्स लड़कों के होंगे? अब हालत् ये हैं कि या तो ऑड वन बनकर सबके कमेन्ट को नज़रंदाज़ करता रहूं या इन शेड्स को नाईटवेयर के रूप में पहनूं…’’ एमबीए के छात्र सुमित कुछ इस अंदाज़ में अपनी परेशानी बयान करते हैं.
रफ़-टफ़-डैशिंग
‘‘लड़कों को रफ़-टफ़ और डैशिंग होना ही चाहिए. लड़कियों को ऐसे ही लड़के पसंद होते हैं जो उनकी सुरक्षा कर सकें यह भी आम धारणा है और हमारी फ़िल्में, धारावाहिक सभी इन धारणाओं को बल देते नज़र आते हैं, जिसके चलते कितने ही लड़के हीन भावना का शिकार होते हैं. अब आप ही बताएं, यदि मेरी जेनेटिक संरचना दुबले-पतले रहने की ही है तो क्या इसके लिए मुझे लगातार कमतर महसूस कराया जाना चाहिए? नहीं न? मगर हमारे समाज में ऐसा ही किया जाता है और इसी के चलते शारीरिक रूप से कमज़ोर लड़के फ़िल्मी सितारों की तर्ज़ पर फटाफट बॉडी बिल्डिंग संस्थानों और खाद्य विकल्पों का सहारा लेने लगते हैं. अब इसके नुक़सान कितने हैं, यह तो आगे जाकर ही पता चलता है…’’ एक स्वयंसेवी संस्था के प्रबंधक इमरान ने बड़े ही रोष के साथ लिंग भेद की स्थिति का खुलासा किया था.
रुचियों में भी लिंग भेद
नाम न छापने की शर्त पर इंटीरियर डेकोरेशन कोर्स के एक छात्र ने बताया, ‘‘अरे यार यदि मुझे किचन में काम करना पसंद है या घर को सजाना-संवारना पसंद है तो इसके लिए मुझे लड़की जैसे होने का, घर-घुस्सा होने का तमगा दिया जाता है…और पता है ये तमगे देता कौन है? मेरे घरवाले और मेरे क़रीबी लोग… ख़ैर मैंने भी किसी की परवाह न करते हुए इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स ही जॉइन किया है. और मैंने तो सोचकर रखा है कि शादी के बाद भी घर के सारे काम करूंगा. मैं वही करूंगा जो मुझे अच्छा लगेगा.’’
रोना मना है
अंजुम सॉफ़्टवेयर इंजीनियरिंग कर रहे हैं. वे लिंग भेद से जुड़ी अपनी व्यथा कुछ ऐसे बताते हैं, ‘‘मैं स्वभाव से ही भावुक हूं. फ़िल्मों के इमोशनल सीन हों या वास्तविक जीवन में अत्यधिक ख़ुशी या दुःख के क्षण…मेरी आंखों से आंसू बहने ही लगते हैं. बचपन से लेकर आज तक न जाने मुझे कितनी बार कहा गया होगा- क्या लड़कियों जैसे टसुए बहाने लगते हो…अरे भाई अब क्या हंसने-रोने की भावनाओं पर भी लड़कियों का कॉपी राइट है?’’
डर का भी जेंडर होता है!
अपने पिता का व्यवसाय संभालने वाले राजीव अलग ही परेशानी बयां करते हैं. उनका कहना है, ‘‘लड़का होने के नाते ही यह मान लिया जाता है कि आप डर नहीं सकते या आपने डर को जीत लिया है. अब मेरी बात करूं तो मुझे अंधेरे से, चूहे से, छिपकली से, मारपीट से सबसे डर लगता है और यही डर सालों से मुझे हंसी का पात्र बनाने, मेरी खिल्ली उड़ाए जाने का कारण बन जाता है. ये तो अच्छा है कि मेरी पत्नी बड़ी दिलेर है अतः मेरी राहें आसान हो जाती हैं,’’ उन्होंने भेदभरी मुस्कान के साथ अपनी बात ख़त्म की.
क्या चाहती हैं युवतियां?
इसी सन्दर्भ में मैंने कॉलेज की कुछ युवतियों से भी बात की कि उन्हें कैसा साथी चाहिए और बातचीत के नतीजे हैरान करने वाले थे. अधिकांश युवतियों का यही मानना था कि लड़के रफ़-टफ़, डैशिंग, साहसी, ऐड्वेंचर पसंद करने वाले, ख़ूब कमाने वाले और खुलकर ख़र्च करने वाले होने चाहिए. केवल कुछ ही लड़कियों ने अपनी पसंद में लड़कों की संवेदनशीलता और भावुकता को महत्त्व दिया.
तो क्या निकला लिंग भेद को ले कर की गई इस पूरी बातचीत का सार?
इस सारी बातचीत से यह स्पष्ट हुआ कि न केवल महिलाएं वरन पुरुष भी समाज द्वारा उनके लिए तय कर दी भूमिकाओं की बेड़ियों में कसे गए हैं, हम सभी उन्हें उन्हीं मान्य भूमिकाओं में देखना चाहते हैं, उनमें ज़रा सा भी फेर-बदल उन्हें हंसी का पात्र बना देता है. अतः जब भी हम समाज के नज़रिए में बदलाव की बात करते हैं, तय भूमिकाओं के पुनरीक्षण की बात करते हैं तो महिला–पुरुष दोनों के ही लिए गढ़े गए मिथ्या प्रतिमानों को ध्यान में रखना होगा और दोनों की भूमिकाओं, व्यक्तित्व को लेकर प्रचलित रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने की दिशा में काम करना होगा. तभी सही मायने में हम लिंग भेद को दूर कर एक समानता वाला समाज गढ़ सकेंगे.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट