फ़िल्म डॉक्टर G कामकाज को लेकर प्रचलित मान्यता पर सवाल उठाती है और हल्के ढंग से मन पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती है. एमबीबीएस पास एक युवा उदय जिसकी पी.जी. की प्रवेश परीक्षा में कम रैंक आई है, उसे ऑर्थोपेडिक शाखा लेनी थी, मगर हिस्से में आती है गायनाकोलॉजी शाखा. वह इस विभाग में आया इकलौता छात्र है. कहानी को इसी ताने-बाने पर बुना गया है. फ़िल्म के बारे में भारती पंडित की राय है कि इसकी कहानी और स्क्रीन प्ले दोनों ही दमदार हैं. संवादों में हंसी का पुट लिए छोटे-छोटे दमदार पंच मज़ा देते हैं.
फ़िल्म: डॉक्टर G
सितारे: शेफाली शाह, आयुष्मान खुराना, रकुल प्रीत सिंह और अन्य
डायरेक्टर: अनुभूति कश्यप
रन टाइम: 124 मिनट
आयुष्मान एक ऐसे अभिनेता हैं जो न केवल अपनी फ़िल्में और अपने किरदार बड़ी सावधानी से चुनते हैं, वरन अभिनेता की समाज के प्रति भी बड़ी ज़िम्मेदारी होती है, इस बात को भी बख़ूबी समझते है और इसके चलते वे अपने किरदार को लेकर हर तरह की जोखिम उठाने के लिए तैयार रहते हैं चाहे वह विकी डोनर हो, ड्रीम गर्ल हो या बधाई हो, शुभ मंगल सावधान और हालिया प्रदर्शित हुई फ़िल्म डॉक्टर G हो.
हमारे समाज में जेंडर को लेकर समानता की कितनी ही बातें की जाएं मगर असमानता छोटे-छोटे रूपों में इस क़दर मान्यताओं, क्रियाकलापों का हिस्सा बन गई है कि देखते-देखते बिना सोचे-समझे हम इसे कब व्यवहार में लाते जाते हैं पता ही नहीं चलता. मसलन, भूमिकाओं का जेंडर के हिसाब से बांटा जाना, खेलों का जेंडर के हिसाब से बांटा जाना, वाहनों का या व्यवसाय का जेंडर के हिसाब से बांटा जाना, जैसे- बैडमिंटन लडकियों का खेल है और क्रिकेट लड़कों का; स्कूटी लडकियां चलाएंगी और स्पोर्ट्स बाइक लड़के; घर के काम औरतों के हिस्से और बाहर के काम मर्दों के हिस्से; प्राइमरी कक्षाओं में पढ़ाने का काम महिलाओं का; मशीनों के साथ काम पुरुषों का वगैरह वगैरह.
व्यवसाय को लेकर इसी तरह की एक प्रचलित मान्यता पर सवाल उठाती है यह फ़िल्म डॉक्टर G. एमबीबीएस पास एक युवा उदय जिसकी पी.जी. की प्रवेश परीक्षा में कम रैंक आई है, उसे ऑर्थोपेडिक शाखा लेनी थी मगर हिस्से में आती है गायनाकोलॉजी शाखा. वह इस विभाग में आया इकलौता छात्र है. यह विभाग उसके लिए मजबूरी तो है ही, बाक़ियों के लिए भी हंसी का ही विषय है, पर क्या करें? साल बर्बाद नही कर सकते, सीट रोकनी ज़रूरी है और इस विभाग से निकलने के लिए फिर से प्रवेश परीक्षा की तैयारी भी ज़रूरी है.
भले ही चिकित्सा विज्ञान अपनी प्रकृति में जेंडर निरपेक्ष हो मगर कुछ शाखाएं फिर भी जेंडर सापेक्ष ही समझी जाती हैं. उदाहरण के लिए गायनाकोलॉजी शाखा केवल लड़कियों के लिए ही है, ऐसा समझा जाता है और लड़के उसमें प्रवेश लेना अपनी तौहीन समझते हैं. इसी तरह शल्य चिकित्सा यानी सर्जरी, हड्डी रोग विभाग यानी ऑर्थोपेडिक ऐसी शाखा है, जो लड़कों के लिए अधिकृत मानी जाती रही है और इसमें किसी लड़की का प्रवेश अजूबा ही माना जाता है. और यह मान्यता समाज में भी उसी तरह से व्याप्त है जहां सामान्यतः महिलाएं अपनी जनन संबंधी समस्याओं के लिए किसी पुरुष चिकित्सकों से परामर्श लेना सहसा पसंद नहीं करतीं. उसी तरह से हड्डी टूटने पर ऑपरेशन यदि महिला चिकित्सक करने वाली हो तो उस पर एक अविश्वास सा बना रहता है. महिलाओं की समस्याओं में ऐसा होना स्वाभाविक भी है, चूंकि महिलाओं की समस्याओं को अक्सर पुरुषों की पहुंच और जानकारी से दूर ही रखा जाता रहा है. इन मुद्दों पर बात होना बहुत ज़रूरी है मगर इन्हीं पर बात करने से बचा जाता है. यह फ़िल्म इसी सब पर बात करने का, सोचने का मौक़ा देती है.
उदय की प्रोफेसर डॉ. नंदिनी उसके इस लापरवाह और नकारात्मक रवैये पर उससे नाराज़ हैं और चाहती है कि वह इस शाखा को महत्वपूर्ण माने और स्त्री-पुरुष की भूमिकाओं से निकलकर एक डॉक्टर जैसा सोचे. इसी सन्दर्भ में वह उदय से कहती हैं- मेल टच ख़त्म करके डॉक्टर का टच लेकर आओ अपने हाथ में.
यह फ़िल्म एक और अहम् मुद्दे को उठाती है, वह है- लड़के-लड़कियों की दोस्ती को लेकर व्याप्त भ्रांतियां. हमारे समाज में समान जेंडर के लोगों में दोस्ती स्वीकार्य है मगर भिन्न जेंडर यानी लड़के-लड़कियों की दोस्ती हमेशा से ही सवालों और शंका के दायरे में रखा जाता रहा है. विशेषतः लड़कों के मन में यह बात आमतौर पर रहती है कि यदि किसी लड़की ने उनसे थोड़ी निकटता दिखाई तो इसका अर्थ है वह उसके साथ अन्तरंग सम्बन्ध बनाने की इच्छुक है. उसी तरह लडकियां भी लड़कों की निकटता को इसी तरह से देखती हैं, यही समझती हैं कि उनकी नीयत ठीक नहीं है.
हमारी फ़िल्में भी इन मिथकों को पुष्ट करती नज़र आती हैं जैसे हंसी तो फंसी, कोशिश करते रहो तो ना तो हां हो ही जाती है, दबंग नायक अपनी दबंगई से नायिका को कब्ज़े में करता है आदि. इसके साथ ही प्रेम का अर्थ एक-दूसरे को जकड़ने से लगाया जाता रहा है यानी एक लड़का और लड़की यदि एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध में है तो अब उन्हें किसी और विपरीत जेंडर के व्यक्ति से दोस्ती नहीं रखनी चाहिए और इसके पीछे की मान्यता यही है कि लड़के और लड़की में खालिस दोस्ती हो ही नहीं सकती, जो भी हो, यह सम्बन्ध केवल शारीरिक अंतरंगता का ही होगा.
इस फ़िल्म का नायक उदय भी इसी भ्रान्ति का शिकार है, जो अपनी गर्लफ्रेंड के पुरुष दोस्त को लेकर परेशान है और यही परेशानी उसके ब्रेकअप का कारण बनती है. इसी तरह से कॉलेज की मित्र फ़ातिमा से निकटता को वह इसी अंतरंगता की तरह समझता है. फ़ातिमा उदय से कहती है- उदय मैं अपने जीवन में तुम्हें हमेशा बनाए रखना चाहती हूं, मगर एक अच्छे दोस्त की तरह. लेकिन उदय किसी और ही दिशा में बढ़ने की बात कर रहा होता है. उदय से दोनों ही लडकियां कहती हैं- तुम्हें लड़कियों की बात सुनाई ही नहीं देती. सच ही है, सुनना यानी केवल शब्द सुनना नहीं है, वरन कहे गए शब्दों को समझना भी है और इसके लिए उतनी संवेदशीलता, समझदारी ज़रूरी है न.
उदय की मां है जिसने पूरा जीवन अकेले बिताया है और अब वह किसी के साथ की इच्छुक है, जीवन को जीना चाहती है, डेटिंग एप पर कोई साथ खोज रही है. मगर उदय के लिए मां का यह व्यवहार अपराध है, असहनीय है. बच्चों को अकेले पालने की जद्दोजहद में जीती स्त्री के अकेलेपन पर शायद ही किसी का ध्यान जाता है, जबकि पुरुष के लिए पहली पत्नी जाते ही दूसरी की खोज जारी हो जाती है. असमानता और असंवेदनशीलता का यह भी एक बड़ा उदाहरण है.
इसी तरह से उदय का एक चचेरा भाई है जो प्रसिद्ध ऑर्थोपेडिक चिकित्सक है और उदय उसे अपना आदर्श मानता है. वह विवाहित है मगर एक नाबालिग लड़की को प्रेम जाल में फंसाता है और उसके गर्भवती हो जाने पर अवैध तरीक़े से उसके गर्भपात का प्रयास करता है. इस सबसे उदय के जीवन की दिशा ही बदल जाती है.
पूरी फ़िल्म भोपाल में शूट की गई है, अपने शहर को बड़े पर्दे पर देखना भाता है. कुछ सुन्दर स्थानों को कैमरे में क़ैद किया गया है मगर फिर भी सिनेमेटोग्राफर ने भोपाल की ख़ूबसूरती के साथ पूरा न्याय नहीं किया, ऐसा मुझे लगा.
कहानी और स्क्रीन प्ले दोनों ही दमदार हैं. संवादों में हंसी का पुट लिए छोटे-छोटे दमदार पंच मज़ा देते हैं. अनुभूति कश्यप का निर्देशन शानदार है, हरेक दृश्य बेहतर बन पड़ा है. अभिनय की बात करें तो आयुष्मान शानदार लगे हैं, डॉ. नंदिनी की भूमिका में शेफाली शाह बढ़िया लगी हैं, फ़ातिमा की भूमिका में रकुल प्रीत, उदय के मित्र चड्डी की भूमिका में अभय मिश्रा और उदय की मां की भूमिका में शीबा चड्ढा भी बेहतर लगे हैं. संवादों में भोपाली लहजे का तड़का- कर रिया है, लपक के, ओ भिया आदि अच्छा लगता है.
गीत केवल पार्श्व आधार के लिए ही डाले गए हैं अतः वहां सुनने में तो ठीक लगे, मगर कोई गीत याद नहीं रहा. तो कुल मिलाकर यही कि शानदार फ़िल्म है, जो हल्के से गहरा प्रभाव छोड़ जाएगी. ग़लती से भी चूक न जाइएगा देखने में.
फ़ोटो: गूगल