भारतीय कृषकों की स्थिति, परिस्थिति पर आधारित मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘किसान’ भले ही दशकों पहले लिखी गई हो, पर आज भी प्रासंगिक लगती है. यह सोच ही दुखी कर देनेवाली है कि देश कितना बदल गया है, अर्थव्यस्था कितनी आगे निकल गई है, पर किसान अभी भी पहले वाली स्थिति में हैं.
हेमन्त में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हंसता शरद का सोम है
हो जाए अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहां
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहां
आता महाजन के यहां वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आंच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अंधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
सम्प्रति कहां क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
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