आज जब बच्चे अपने माता-पिता से पूछते हैं कि आसमान नीला क्यों दिखाई देता है? पानी हाथ में आने पर साफ़ दिखता है, लेकिन समुद्र नीला दिखता है, आख़िर क्यों? यदि इसका जवाब माता-पिता दे पाते हैं तो इसकी वजह है रमन प्रभाव. रमन प्रभाव खोज थी, आधुनिक भारत के महान वैज्ञानिकों में एक सर वीवी रमन की. इसी खोज के दिन को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है. वरिष्ठ पत्रकार सर्जना चतुर्वेदी इस दिन के महत्व के साथ-साथ उस महान वैज्ञानिक के जीवन के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर रही हैं.
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस हमें उन वैज्ञानिकों की याद दिलाता है, जिनके आविष्कारों और सिद्धांतों ने भारत को विश्व पटल पर एक विशेष पहचान दिलाई है. जिनकी खोज देश के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए कार्यकारी सिद्ध हो रही हैं. आज के दिन भारत में एक ऐसे ही महान वैज्ञानिक की खोज ने विज्ञान के एक अनसुलझे रहस्य से पर्दा उठाया. वो थे, आधुनिक भारत के महान भौतिक शास्त्री और वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकटरमन जिन्हें सर सीवी रमन के नाम से भी जाना जाता है.
भारत में प्रतिवर्ष 28 फ़रवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है. प्रोफ़ेसर सीवी रमन ने सन् 1928 में कोलकाता में इसी दिन एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक खोज की थी, जो ‘रमन प्रभाव’ के रूप में प्रसिद्ध है. रमन की यह खोज 28 फ़रवरी 1930 को प्रकाश में आई थी. इस कारण 28 फ़रवरी राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस कार्य के लिए उनको 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. वर्ष 1986 में राष्ट्रीय विज्ञान एवं तकनीकी संचार परिषद ने भारत सरकार को अनुशंसा की कि 28 फ़रवरी राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाए. 28 फ़रवरी 1987 को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस घोषित किया गया और पहली बार इसे 28 फ़रवरी 1987 को मनाया गया. इस दिवस का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों को विज्ञान के प्रति आकर्षित करना, विज्ञान के क्षेत्र में नए प्रयोगों के लिए प्रेरित करना तथा विज्ञान एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों के प्रति सजग बनाना है. इस दिन, विज्ञान संस्थान, प्रयोगशाला, विज्ञान अकादमी, स्कूल, कॉलेज तथा प्रशिक्षण संस्थानों में वैज्ञानिक गतिविधियों से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता हैं. वैज्ञानिकों के भाषण, निबंध, लेखन, विज्ञान प्रश्नोत्तरी, विज्ञान प्रदर्शनी, सेमिनार तथा संगोष्ठी आदि कार्यक्रम ज़ोर-शोर से आयोजित किए जाते हैं. विज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए पुरस्कारों की घोषणा की जाती है. रसायनों की आणविक संरचना के अध्ययन में ‘रमन प्रभाव’ एक प्रभावी साधन है.
क्या है रमन प्रभाव?
विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले डॉ सीवी रमन पहले एशियाई वैज्ञानिक थे. रमन प्रभाव की बात करें तो इसकी कहानी भी बहुत ही रोचक है. 1920 में सीवी रमन समुद्री मार्ग से स्वदेश लौट रहे थे. तब उन्होंने भूमध्यसागर के जल में अनोखा नीला और दूधियापन का नज़ारा देखा था. कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुंचते ही रमन ने वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने का गहन अध्ययन शुरू कर दिया. लगभग सात वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद रमन इफ़ेक्ट की खोज की गई.
रौशनी की किरणें किसी पारदर्शी पदार्थ से गुज़रने के बाद बंट जाती हैं. रौशनी के अलग होने के प्रोसेस को रमन स्कैटरिंग का नाम दिया गया और रौशनी अलग होने के कारण को रमन इफ़ेक्ट कहा गया. दूसरे शब्दों में समझें तो रमन प्रभाव के अनुसार प्रकाश की प्रकृति और स्वभाव में तब परिवर्तन होता है, जब वह किसी पारदर्शी माध्यम से निकलता है. यह माध्यम ठोस, द्रव्य और गैसीय कुछ भी हो सकता है. यह घटना तब घटती है, जब माध्यम के अणु, प्रकाश ऊर्जा के कणों को छितरा या फैला देते हैं. यह उसी तरह होता है जैसे कैरम बोर्ड पर स्ट्राइकर गोटियों को छितरा देता है.
रमन प्रभाव का विज्ञान पर पड़ा प्रभाव
यह एक अद्भुत प्रभाव है, इसकी खोज के एक दशक बाद ही 2000 रासायनिक यौगिकों की आंतरिक संरचना निश्चित की गई थी. इसके पश्चात् ही क्रिस्टल की आंतरिक रचना का भी पता लगाया गया.
रमन प्रभाव से यह पता चला कि प्रकाश ऊर्जा-कणिकाओं का बना हुआ है. प्रकाश दो तरह के लक्षण दिखाता है. कुछ लक्षणों से वह तरंगों से बना जान पड़ता है और कुछ से ऊर्जा कणिकाओं से. `रमन प्रभाव’ ने उसकी ऊर्जा के भीतर परमाणुओं की योजना समझने में भी सहायता की है, जिनमें से एक रंगी प्रकाश को गुज़ार कर रमन स्पेक्ट्रम प्राप्त किया जाता है.
हर एक रासायनिक द्रव का रमन स्पेक्ट्रम विशिष्ट होता है. किसी दूसरे पदार्थ का वैसा नहीं होता. हम किसी पदार्थ के रमन स्पेक्ट्रम पदार्थों को देख कर उसे पहचान सकते हैं. इस तरह रमन स्पेक्ट्रम पदार्थों को पहचानने और उनकी अन्तरंग परमाणु योजना का ज्ञान प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन भी है.
रमन प्रभाव का उपयोग आज भी वैज्ञानिक क्षेत्रों में किया जा रहा है. भारत से अंतरिक्ष मिशन चंद्रयान ने चांद पर पानी होने की घोषणा की तो इसके पीछे भी रमन स्पैक्ट्रोस्कोपी का ही कमाल था. फ़ॉरेंसिक साइंस में भी रमन प्रभाव काफ़ी उपयोग साबित हो रहा है. अब यह पता लगाना आसान हो गया है कि कौन-सी घटना कब और कैसे हुई थी. सीवी रमन ने जिस दौर में अपनी खोज की थी उस समय काफ़ी बड़े और पुराने क़िस्म के यंत्र हुआ करते थे. रमन ने रमन प्रभाव की खोज इन्हीं यंत्रों की मदद से की थी. आज रमन प्रभाव ने ही तकनीक को पूरी तरह बदल दिया है. अब हर क्षेत्र के वैज्ञानिक रमन प्रभाव के सहारे कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं.
बचपन से ही था समुद्र के प्रति आकर्षण
चंद्रशेखर वेंकट रमन का जन्म तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर में 7 नवम्बर 1888 को हुआ था, जो कि कावेरी नदी के किनारे स्थित है. इनके पिता चंद्रशेखर अय्यर एक स्कूल में पढ़ाते थे. वह भौतिकी और गणित के विद्वान और संगीत प्रेमी थे. चंद्रशेखर वेंकट रामन की मां पार्वती अम्माल थीं. उनके पिता वहां कॉलेज में अध्यापन का कार्य करते थे और वेतन था मात्र दस रुपया. उनके पिता को पढ़ने का बहुत शौक़ था. इसलिए उन्होंने अपने घर में ही एक छोटी-सी लायब्रेरी बना रखा थी. रमन का विज्ञान और अंग्रेज़ी साहित्य की पुस्तकों से परिचय बहुत छोटी उम्र से ही हो गया था. संगीत के प्रति उनका लगाव और प्रेम भी छोटी आयु से आरंभ हुआ और आगे चलकर उनकी वैज्ञानिक खोजों का विषय बना. जब उनके पिता तिरुचिरापल्ली से विशाखापत्तनम में आकर बस गए तो उनका स्कूल समुद्र के तट पर था. उन्हें अपनी कक्षा की खिड़की से समुद्र की अगाध नीली जलराशि दिखाई देती थी. इस दृश्य ने इस छोटे से लड़के की कल्पना को सम्मोहित कर लिया. बाद में समुद्र का यही नीलापन उनकी वैज्ञानिक खोज का विषय बना.
संगीत, संस्कृत और विज्ञान का सानिध्य मिला
रमन संगीत, संस्कृत और विज्ञान के वातावरण में बड़े हुए. वह अपने पिता को घंटों वीणा बजाते हुए देखते रहते थे. वह हर कक्षा में प्रथम आते थे. रमन ने ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ में बीए में प्रवेश लिया. 1905 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वह अकेले छात्र थे और उन्हें उस वर्ष का ‘स्वर्ण पदक’ भी प्राप्त हुआ. उन्होंने ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ से ही एमए में प्रवेश लिया और मुख्य विषय के रूप में भौतिक शास्त्र को लिया. एमए करते हुए रामन कक्षा में यदा-कदा ही जाते थे. प्रोफ़ेसर आरएल जॉन्स जानते थे कि यह लड़का अपनी देखभाल स्वयं कर सकता है. इसलिए वह उसे स्वतंत्रतापूर्वक पढ़ने देते थे. आमतौर पर रामन कॉलेज की प्रयोगशाला में कुछ प्रयोग और खोजें करते रहते. वह प्रोफ़ेसर का ‘फ़ेबरी-पिराट इन्टरफ़ेरोमीटर’ का इस्तेमाल करके प्रकाश की किरणों को नापने का प्रयास करते. रमन की मन:स्थिति का अनुमान प्रोफ़ेसर जॉन्स भी नहीं समझ पाते थे कि रमन किस चीज़ की खोज में है और क्या खोज हुई है. उन्होंने रमन को सलाह दी कि अपने परिणामों को शोध पेपर की शक्ल में लिखकर लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘फ़िलॉसफ़िकल पत्रिका’ को भेज दें. सन् 1906 में पत्रिका के नवम्बर अंक में उनका पेपर प्रकाशित हुआ. विज्ञान को दिया रमन का यह पहला योगदान था. उस समय वह केवल 18 वर्ष के थे.
महान बनाने में भी है पत्नी का भी योगदान
एक दिन वेंकटरमन ने एक युवती को वीणा बजाते देखा और उस धुन पर मोहित हो गए. लोकसुंदरी नामक उस युवती का वीणा वादन उन्हें इतना अधिक प्रिय लगा कि उन्होंने तुरन्त ही उसके माता-पिता के पास जाकर लोकसुंदरी के विवाह की इच्छा ज़ाहिर की, जिसके लिए लोकसुंदरी के माता-पिता राज़ी हो गए और इस तरह चंद्रशेखर वेंकटरमन से उनकी शादी हो गई. रमन की खोजों में उनकी युवा पत्नी भी अपना सहयोग देतीं और उन्हें दूसरे कामों से दूर रखतीं. वह यह विश्वास करती थीं कि वह रमन के सहयोग के लिए ही पैदा हुई हैं. रमन को महान बनाने में उनकी पत्नी का भी बड़ा योगदान है.
नौकरी के साथ करते रहे वैज्ञानिक प्रयोग
विज्ञान के प्रति प्रेम, कार्य के प्रति उत्साह और नई चीज़ों को सीखने का उत्साह उनके स्वभाव में था. इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे. सीवी रमन के बड़े भाई ‘भारतीय लेखा सेवा’ में कार्यरत थे. रमन भी इसी विभाग में काम करना चाहते थे इसलिए वे प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित हुए. इस परीक्षा से एक दिन पहले एमए का परिणाम घोषित हुआ जिसमें उन्होंने ‘मद्रास विश्वविद्यालय’ के इतिहास में सर्वाधिक अंक अर्जित किए और वे लेखा सेवा की परीक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त कर कलकत्ता में उपमहालेख अधिकारी बन गए. एक दिन वे अपने कार्यालय से लौट रहे थे कि उन्होंने एक साइन-बोर्ड देखा-इंडियन एसोसिएशन फ़ॉर कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस. इसे देख उनके अंदर की वैज्ञानिक इच्छा जाग गई. डॉ. महेन्द्र लाल सरकार द्वारा इस संस्थान को स्थापित किया गया था. वे दिनभर अपने दायित्व का निर्वाह करने में व्यस्त रहते और शाम से देर रात तक प्रयोगशाला में समय बिताते. उनका प्रारंभिक कार्य वाद्य यंत्रों की कार्यप्रणाली से जुड़े विज्ञान के अन्वेषण से संबद्ध रहा. रमन का विज्ञान के प्रति समर्पण इतना तीव्र था कि 1917 में जब पहली बार कलकत्ता विश्वविद्यालय में फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर का चयन होना था. वहां के कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने इसके लिए सीवी रमन को आमंत्रित किया. रमन ने उनका निमंत्रण स्वीकार करके अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर लगभग आधी तन्ख्वाह पर इस पद को स्वीकार कर लिया. रमन की संपूर्ण शिक्षा भारत में ही हुई थी और अभी तक दुनिया के अन्य वैज्ञानिकों के साथ उनका संपर्क पुस्तकों और अंतरराष्ट्रीय शोधपत्रिकाओं में छपे लेखों के माध्यम से ही था. एक शोधार्थी के रूप में भी रमन ने कई महत्वपूर्ण कार्य किए थे. वर्ष 1906 में रमन का प्रकाश विवर्तन (डिफ्रेक्शन) पर पहला शोध पत्र लंदन की फ़िलोसोफ़िकल पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. कुछ दिनों के बाद रमन ने एक और शोध पेपर लिखा और लन्दन में विज्ञान की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रिका ‘नेचर’ को भेजा. उस समय तक वैज्ञानिक विषयों पर स्वतंत्रतापूर्वक खोज करने का आत्मविश्वास उनमें विकसित हो चुका था. रमन ने उस समय के एक सम्मानित और प्रसिद्ध वैज्ञानिक लॉर्ड रेले को एक पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने लॉर्ड रेले से अपनी वैज्ञानिक खोजों के बारे में कुछ सवाल पूछे थे. लॉर्ड रेले ने उन सवालों का उत्तर उन्हें प्रोफ़ेसर सम्बोधित करके दिया. वह यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि एक भारतीय किशोर इन सब वैज्ञानिक खोजों का निर्देशन कर रहा है. रमन के अंशकालिक अनुसंधान का क्षेत्र ‘ध्वनि के कंपन और कार्यों का सिद्धांत’ था. रमन का वाद्य-यंत्रों की भौतिकी का ज्ञान इतना गहरा था कि 1927 में जर्मनी में छपे बीस खंडों वाले भौतिकी विश्वकोश के आठवें खंड का लेख रमन से ही तैयार कराया गया था. इस कोश को तैयार करने वालों में रमन ही ऐसे पहले व्यक्ति थे, जो जर्मनी से नहीं थे.
आप मुझे पैसे दें, मैं आपको एक साल में नोबल पुरस्कार लाकर दूंगा
प्रतिभा ही नहीं सीवी रमन का ख़ुद के प्रति एक दृढ़ आत्मविश्वास भी था. इसकी बानगी इस घटना से मिलती है कि जब उनके पास स्पेक्ट्रोग्राफ़ ख़रीदने के लिए पैसे नहीं थे, लेकिन उनके पास एक आइडिया था जिससे नोबल पुरस्कार जीता जा सकता था. तब उन्होंने उस दौर में उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला को एक पत्र लिखा कि, आप मुझे स्पेक्ट्रोग्राफ़ ख़रीदने के लिए पैसे दीजिए, अगर आपने मुझे यह पैसे दिए तो मैं आपसे वायदा करता हूं कि मैं आपको एक साल में नोबल पुरस्कार लाकर दूंगा. जीडी बिड़ला ने उनकी मांग पूरी की. इसके बाद उन्होंने एक रिसर्च पेपर इंडियन जर्नल ऑफ़ फ़िज़िक्स और नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों नील्स बोर, अर्नेस्ट रदरफ़ोर्ड, और अन्य को भेजा. रमन ने उन्हें लिखा कि, मुझे लगता है कि यह नोबल पुरस्कार जीतने लायक खोज है, आपको मेरे नाम की अनुशंसा नोबल पुरस्कार के लिए करनी चाहिए. उसके बाद क्या हुआ यह सबको पता है. वह भी जानते थे कि पुरस्कार उन्हें ही मिलेगा. उन्होंने नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित होने से चार महीने पहले ही स्टाकहोम जाने का हवाई टिकट बुक करा लिया था. पुरस्कार लेने के लिए वे अपनी पत्नी के साथ समय के पहले ही स्टाकहोम पहुंच गए.
अहसास हुआ कि अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहा हूं
सीवी रमन को जब नोबल पुरस्कार मिला तो उन्होंने कहा था,‘जब नोबेल पुरस्कार की घोषणा की गई थी तो मैंने इसे अपनी व्यक्तिगत विजय माना, मेरे लिए और मेरे सहयोगियों के लिए एक उपलब्धि-एक अत्यंत असाधारण खोज को मान्यता दी गई है, उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जिसके लिए मैंने सात वर्षों से काम किया है. लेकिन जब मैंने देखा कि उस खचाखच हॉल मैंने इर्द-गिर्द पश्चिमी चेहरों का समुद्र देखा और मैं, केवल एक ही भारतीय, अपनी पगड़ी और बन्द गले के कोट में था, तो मुझे लगा कि मैं वास्तव में अपने लोगों और अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहा हूं. जब किंग गुस्टाव ने मुझे पुरस्कार दिया तो मैंने अपने आपको वास्तव में विनम्र महसूस किया, यह भावप्रवण पल था लेकिन मैं अपने ऊपर नियंत्रण रखने में सफल रहा. जब मैं घूम गया और मैंने ऊपर ब्रिटिश यूनियन जैक देखा जिसके नीचे मैं बैठा रहा था और तब मैंने महसूस किया कि मेरे ग़रीब देश, भारत, का अपना ध्वज भी नहीं है.’
राजनीति में नहीं थी रुचि, उपराष्ट्रपति बनने से किया था इंकार
साल 1934 में सर चंद्रशेखर वेंकटरमन को बंगलौर स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान का निदेशक बनाया गया. साल 1952 में सीवी रमन को उपराष्ट्रपति बनाने के लिए प्रस्ताव दिया गया, जिसमें उन्हें सभी दलों के द्वारा समर्थन भी दिया जा रहा था, लेकिन राजनीति में बिल्कुल भी रुचि ना होने के कारण उन्होंने बेहद सहजभाव के साथ इस पद के लिए मना कर दिया था. वे उस पद पर आराम से रहना भी नहीं चाहते थे. क्योंकि आराम से रहना उनकी प्रकृति के ख़िलाफ़ था. इसलिए उन्होंने उपराष्ट्रपति बनने से साफ़ इनकार कर दिया. सीवी रमन को साल 1954 में भारत रत्न दिया गया. 21 नवंबर साल 1970 को सर चंद्रशेखर वेंकटरमन की 82 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई.
भारतीय वैज्ञानिक प्रतिभाओं को आगे बढ़ाया
सन 1909 में जेएन टाटा ने भारत में वैज्ञानिक प्रतिभाओं के विकास के लिए बैंगलोर में भारतीय विज्ञान संस्थान की स्थापन की. इस संस्थान के लिए मैसूर नरेश ने 150 हेक्टेयर जमीन प्रदान की थी. अंग्रेज़ी हुकूमत को विश्वास में लेकर संस्थान का निर्माण कार्य शुरू हुआ निर्माण कार्य पूर्ण होने पर अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने वहां अपना निदेशक नियुक्त किया. संस्था के सदस्य भी अंग्रेज़ ही थे. सन 1933 में वेंकटरमन भारतीय विज्ञान संस्थान के पहले भारतीय निदेशक बनाए गए. उस समय संस्थान के नाम पर बहुत पैसा ख़र्च किया जा रहा था. लेकिन वैज्ञानिक प्रतिभाओं का विकास न के बराबर रहा. इस स्थिति में सीवी रमन ने अंग्रेज़ों की उस परंपरा को ओड़ते हुए पूरे देश में विज्ञान का प्रचार-प्रसार किया. उन्होंने संस्था की नीतियों व कार्यक्रमों में बहुत तेज़ी से रचनात्मक बदलाव किया. ऐसा करके वे उस संस्थान को बेहतर बनाना चाहते थे. वेंकटरमन ने उस संस्थान के स्तर को बहुत ऊंचा उठाया. इससे उस संस्थान का नाम विश्व के वैज्ञानिक संस्थानों के मानचित्र पर दर्ज हो गया. रमन ने अपनी योजनाओं के अंतर्गत विदेशी वैज्ञानिकों को भारत आने का निमंत्रण दिया. इससे भारतीय वैज्ञानिक प्रतिभाओं को लाभ मिलने की उम्मीद थी. उन दिनों जर्मन में हिटलर का शासन था. हिटलर की विज्ञान विरोधी नीतियों से वहां के वैज्ञानिक तंग आ चुके थे. उन्होंने जर्मन छोड़ने का निश्चय कर लिया था. उनमें से अधिकांश वैज्ञानिकों को रमन ने भारत बुलाया.
विज्ञान के क्षेत्र में भारत को श्रेष्ठ बनाने के लिए उन्होंने देश के नौजवानों को विज्ञान के प्रति जाग्रत किया. इसके लिए रमन को देश के कई महानगरों में तरह-तरह की सभाओं को संबोधित करना पड़ा. उनके भाषण से बहुत से नौजवानों को प्रेरणा मिली. जिसकी बदौलत विक्रम साराभाई, होमी जहांगीर भाभा और केआर रामनाथन जैसे युवा वैज्ञानिकों ने पूरे विश्व में अपना और अपने देश का नाम रोशन किया. रमन की खोज के द्वारा ही मनुष्य अपनी रैटिना का चित्र स्वयं ही देख सकता है. वह यह भी देख सकता है की उसकी आंखें कैसे काम कराती हैं? यह खोज उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ वर्ष पहले की थी. वे लगभग 82 वर्षों तक हमारे बीच रहे.
सीवी रमन इन पुरस्कारों से किए गए सम्मानित
फ़ैलो रॉयल सोसायटी 1924
नाइट बैचलर 1929
नोबल प्राइज़ फ़िज़िक्स 1930
भारत रत्न 1954
लेनिन पीस प्राइज 1957
विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले रमन पहले एशियाई और अश्वेत थे. उनका आविष्कार उनके ही नाम पर ‘रमन प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है. प्रकाश के प्रकीर्णन पर उत्कृष्ट कार्य के लिए वर्ष 1930 में उन्हें भौतिकी का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार दिया गया. 2013 में अमेरिकी केमिकल सोसाइटी ने रमन इफ़ेक्ट को अंतर्राष्ट्रीय ऐतिहासिक केमिकल लैंडमार्क का दर्जा दिया.