डिज़्नी हॉटस्टार पर हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म गुलमोहर के बारे में भारती पंडित का कहना है कि इस फ़िल्म के संवाद इसकी जान हैं. एक-एक संवाद बड़ी नफ़ासत से लिखा गया है. अर्पिता मुखर्जी की कहानी को राहुल चित्तेला ने निर्देशित किया है. एक-एक फ्रेम को बहुत बारीक़ी से उभारा गया है और इसीलिए शायद फ़िल्म की गति धीमी रखी गई है. इसे पूरे परिवार के साथ बैठकर देखा जा सकता है.
फ़िल्म: गुलमोहर
प्लैटफ़ॉर्म: डिज़्नी हॉटस्टार
सितारे: शर्मिला टैगोर, मनोज बाजपेयी, अमोल पालेकर, सूरज शर्मा, सिमरन
निर्देशक: राहुल चित्तेला
रन टाइम: 132 मिनट
ज़िंदगी हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग रूप में प्रस्तुत होती है. किसी के लिए यह पद और प्रतिष्ठा हासिल करने की चुनौती लिए आती है, किसी के लिए रिश्तों की ऊहापोह लिए, किसी के लिए प्रेम को पाने के लिए किए जा रहे संघर्ष को सामने लाती है और किसी के लिए तो यह समूचे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाती प्रकट होती है. पर यह भी सच है कि ज़िंदगी हर मोड़ पर हमारे सामने कुछ विकल्पों के रूप में प्रस्तुत होती है. हम जन्म किस घर में लेंगे यह भले ही भाग्य से तय होता हो, मगर हम किस दिशा में जाएंगे, इसका फ़ैसला हमारे द्वारा चुने गए विकल्प पर निर्भर होता है.
दिल्ली की गुलमोहर विला में सालों से रह रहे एक परिवार के हर सदस्य की ज़िंदगी में चल रही इसी ऊहापोह को दर्शाती हुई है यह फ़िल्म गुलमोहर जिसे हाल ही में डिज़्नी हॉटस्टार ने प्रदर्शित किया है. इसे एक बेहद ही ख़ूबसूरत फ़िल्म की श्रेणी में रखा जा सकता है, जो आपको हौले-हौले से ज़िंदगी के एक-एक पहलू से वाकिफ़ कराएगी, कहानी में आए हर किरदार के चरित्र की गहराई तक ले जाने की कोशिश करेगी, रुलाएगी, भावनाओं के अतिरेक की ओर ले जाएगी और होंठों पर मंद स्मित भी लेकर आएगी. फ़िल्म की गति थोड़ी धीमी है, मगर यदि भावनाओं को बेहतर तरीक़े से उभारना हो, तो समय ख़र्चना ही पड़ेगा,तो इतना समय देना बनता है…
फ़िल्म शुरू हुई तो शुरुआत के दस मिनिट में मेरे मन में आया, इतनी मुश्किलें थीं ही जीवन में, क्यों उन्हें वापस याद किया जाए और मुश्किलें क्यों बढ़ाई जाएं? उदासी की तुरपाई को क्यों उधेड़ा जाए… पर दस मिनिट बाद जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ी, टीवी बंद करना कठिन हो गया मेरे लिए. फ़िल्म के अंतिम हिस्से तक मैं अभिभूत थी कथानक से, स्क्रीन प्ले से और निर्देशन से.
हम परिवार क्यों बनाते हैं, ताकि साथ का भाव कायम रह सके, एक-दूसरे के लिए जी सकें, एक-दूसरे की मुश्क़िलों में हौसला बन सकें, पर मुश्क़िल यह है कि बच्चे बड़े होते ही परिवार में एक अजीब तरह की संवादहीनता कायम हो जाती है. इस परिवार में भी यही हुआ. बच्चों के अपने संघर्ष हैं, अपने आप को सिद्ध करने की चुनौतिययां हैं, दुनिया से लड़कर प्रेम को पाने और उसे बनाए रखने के संघर्ष हैं, बड़ों के मन में सबसे बड़ा सवाल यही कि इतने जतन से, स्नेह से पाले गए बच्चे अचानक इतनी दूर कैसे हो गए?
तीन पीढ़ियों के अपने-अपने संघर्ष को दर्शाती यह फ़िल्म जीवन के हर पक्ष से रूबरू कराती है. कुसुम जिसके पति की मौत के बाद परिवार को जोड़े रखना उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती है, अरुण और इंदु (बेटा-बहू) जो पहली और अगली दोनों पीढ़ियों में सामंजस्य बनाने के लिए परेशान हैं, बाप-बेटे के बीच एक अजीब सी संवादहीनता है. यहीं नहीं, इस घर में काम करने वाली नौकरानी के भी अपने संघर्ष हैं, प्यार को पाने की जद्दोजहद है.
हरेक अपनी-अपनी लड़ाई अपने-अपने तरीक़े से लड़ रहा है, पर सबसे अलग होकर… यहीं परिवार की अवधारणा ख़त्म होती नज़र आती है. ऐसा नहीं कि परिवार में आपस में प्यार नहीं, मगर उस प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए कुछ प्रयास करने होंगे, अपने अहं को किनारे करना होगा, थोड़ा झुकना होगा, यही नहीं कर पा रहे हैं लोग. हमारे घरों में कभी भी भावनात्मक स्वास्थ्य पर काम नहीं होता है, हरेक व्यक्ति अलग है, उसकी भावनात्मक आवश्यकताएं अलग है, इसे न समझते हुए सभी को एक खांचे में देखने की परिपाटी समाज में चलती आई है, यही इस फ़िल्म में भी दिखाई देता है.
फ़िल्म की शुरुआत होती है एक पारिवारिक पार्टी से, जिसमें कुसुम के देवर का परिवार और उसका मित्र अविनाश और उसकी पत्नी शामिल हैं. चौंतीस साल पुरानी विला को छोड़ा जा रहा है और सभी लोग नए घर में रहने जा रहे हैं, बेटा-बहू अलग घर लेने वाले हैं, अरुण और इंदु के मन में परिवार के टूटने का दर्द है. ऐसे में कुसुम एक रहस्योद्घाटन करती है. सभी लोग हैरान हैं कुसुम के फैसले पर. कुसुम की इच्छा है कि आख़िरी होली सब साथ मनाएं और अच्छी यादें साथ लेकर जाएं.
भावनाओं की नैया में हिचकोले खाती फ़िल्म आगे बढ़ती है कि एक और भयंकर रहस्योद्घाटन होता है, जो सारे परिवार को हिलाकर रख देता है. कुसुम की भूमिका में शर्मिला टैगोर हैं, इस उम्र में गज़ब की खूबसूरती, गज़ब का आत्मविश्वास… पुरानी फ़िल्मों में उन्हें केवल सिर पर बड़ा-सा नकली जूड़ा लगाए हुए ही देखा था. इस फ़िल्म में उनकी केश सज्जा बेहद ख़ूबसूरत लगी है. संवाद बोलने की वही जानी-पहचानी, बचपना लिए हुए शैली प्यारी लगती है.
पहले और आख़िरी दृश्य में तलत अज़ीज़ कुसुम के मित्र अविनाश के रूप में आए हैं, इस उम्र में भी उनकी ऊर्जा और फ़िटनेस आकर्षित करती है, उनका गाया सुन्दर सा गीत इस फ़िल्म के पहले दृश्य की जान है.
इस फ़िल्म का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा है पति-पत्नी का आपसी प्रेम, एक-दूसरे को समझना और एक-दूसरे को मुश्क़िल घड़ी में हौसला देना… कहना कि हम साथ हैं न, सब ठीक हो जाएगा. यदि दुनिया में सारे पति-पत्नी ऐसे ही हो जाएं तो किसी के जीवन में कोई भी परेशानी नहीं रहेगी.
मनोज बाजपेयी और सिमरन ने अरुण और इंदु की भूमिका निभाई है, दोनों का अभिनय देखने लायक़ है, ख़ासकर विचलन के उन क्षणों में जब घर में हुए एक भयंकर रहस्योद्घाटन के बाद अरुण एकदम व्यथित है और इंदु उसे शांत करती है. पति-पत्नी वास्तव में हमसफ़र कैसे हो सकते हैं, इसका शानदार उदाहरण देती है यह फ़िल्म.
अमोल पालेकर इसमें नकारात्मक भूमिका में है, ठीक ही लगे हैं. कुसुम का चरित्र एक साहसी और जुझारू महिला के रूप में प्रस्तुत हुआ है. एक दृश्य में वह अपनी पोती से कहती है, मैंने जो भी साहसी फ़ैसले लिए, लोगों ने मुझे बुरा कहा, मैंने भी हमेशा सोचा ऐसा नहीं होना था, मगर अब मैं समझती हूं कि इसे घटना ही चाहिए था. और अंत में वही साहसी फ़ैसला वह अपने लिए भी लेती है.
इस फ़िल्म के संवाद इसकी जान हैं. एक-एक संवाद बड़ी नफ़ासत से लिखा गया है. आदमी कभी भी अपने अहंकार और शर्म को आसानी से छोड़कर प्यार को नहीं चुनता, महिलाओं के लिए यह आसान होता है. यादों को भी छलनी लगानी चाहिए, जिससे बुरी यादें छन जाएं और अच्छी यादों का पिटारा ही साथ रहे.
अर्पिता मुखर्जी की कहानी को राहुल चित्तेला ने निर्देशित किया है. एक-एक फ्रेम को बहुत बारीक़ी से उभारा गया है और इसीलिए शायद फ़िल्म की गति धीमी रखी गई है, ताकि क्लोज़अप शॉट्स को बेहतरी से संवारा जा सकें. चार मधुर गीत इस फ़िल्म की हलचल में ठंडी पुरवाई से लगते हैं.
कुल मिलाकर इसे एक शानदार फ़िल्म कहा जा सकता है, जिसे पूरे परिवार के साथ बैठकर देखा जा सकता है, इसमें दिए हुए मुद्दों पर चर्चा की जा सकती है और रिश्तों की उधड़ी हुई तुरपाई को फिर से पक्का किया जा सकता है.
फ़ोटो: गूगल