यह सच है कि महिलाओं को सदियों से ग़ैर-बराबरी का सामना करना पड़ा है, जिसकी वजह से आज भी अधिकांश महिलाएं अपने अधिकारों से वंचित ही हैं या रह जाती हैं. अब जबकि वे बराबरी के लिए धीरे-धीरे जागृत हो रही हैं और उन्हें उनके अधिकार दिए जाने की शुरुआत हो चुकी है, महिलाओं को चाहिए कि वे अपने अधिकार लड़ कर लें, लेकिन साथ ही अपने कर्तव्य भी जम कर निभाएं. आख़िर अधिकारों के साथ ज़िम्मेदारियां भी तो आती हैं, फिर चाहे मामला संपत्ति में बराबरी के हिस्से का ही क्यों न हो… बराबरी चाहने वाली हम सभी महिलाओं से इन ज़िम्मेदारियों को बराबरी से निभाने की उम्मीद करना भी तो बेमानी नहीं.
सोशल मीडिया से गुज़रते हुए किसी पोस्ट पर एक महिला की टिप्पणी पढ़ी कि घर की प्रॉपर्टी पर तो शादी के बाद महिलाओं को समान अधिकार लड़-झगड़ कर लेना पड़ता है, कोई मर्ज़ी से नहीं देता. बात सौ फ़ीसदी सच है! लेकिन क़ानून ने तो अब हर महिला को संपत्ति में बराबर का अधिकार दे दिया है तो मेरा कहना है कि आप लड़िए और अपना अधिकार ज़रूर लीजिए. लेकिन यहां यह कहना ज़्यादा तर्क संगत है कि अधिकार हक़ से लीजिए और अपने कर्तव्य भी जम कर निभाइए.
चलिए इसे विस्तार से समझते हैं: कल्पना कीजिए कि एक परिवार में माता-पिता के साथ एक बेटा और एक बेटी रहते हैं. बेटे और बेटी दोनों की शादी हो गई है. हमारे समाज में माता-पिता बेटे के साथ रहते हैं, वह उनकी हर तरह की देखरेख करता है (हो सकता है ऐसा न हो, लेकिन मैं आदर्श स्थिति की बात कर रही हूं). जब संपत्ति का बंटवारा दोनों में बराबर होता है तो क्या बेटी को ख़ुद आगे बढ़ कर अपने माता-पिता से यह नहीं कहना चाहिए कि आपने मुझे प्रॉपर्टी में से आधा हिस्सा दिया है तो भाई के पास ही क्यों रहेंगे आप लोग? साल में छह महीने मेरे पास भी रहिए, जहां आपकी तीमारदारी, बीमारी का पूरा ख़र्च मैं उठाऊंगी. और चूंकि आपने मुझे मेरा हक़ दिया है आप यह बिल्कुल नहीं कह सकते कि हम अपनी विवाहित बेटी के साथ नहीं रहेंगे.
अधिकार (संपत्ति में हिस्सा) आपने ले लिया, आपको लेना चाहिए था, आपने बिल्कुल सही किया, लेकिन कर्तव्य (माता-पिता की देखभाल) आपका भी तो है, वह भी तो निभाइए. तब इस बात का या रूढ़ियों का हवाला मत दीजिए कि हमारे माता-पिता विवाहित लड़की के साथ नहीं रहना चाहते या आपके पति या ससुराल वालों को उनका आपके साथ रहना पसंद नहीं है. अधिकार लिया है तो ज़िम्मेदारी निभाने का जज़्बा भी रखिए, फिर चाहे उसके लिए आपको अपने पति से लड़ना पड़े या ससुराल वालों से. क्योंकि अधिकार अकेल नहीं मिलते वे कर्तव्य के गठबंधन के साथ आते हैं. यदि आप केवल अधिकार ही मांगेंगी और कर्तव्य से विमुख हो जाएंगी तो हमारे देश में रिश्तों के बीच जो स्नेह की डोर है वह टूट जाएगी.
अब इसी का दूसरा पक्ष देखते हैं मान लेते हैं कि भाई-भाभी आपके माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उन्हें अच्छे से नहीं रखते. तब तो आपको उनसे संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मांगने के लिए और भी लड़ जाना चाहिए, क्योंकि जब आपके पास पैसे या संपत्ति होगी तभी तो आप अपने मात-पिता का ख़्याल रख सकेंगी. यदि आप शादीशुदा हैं तो अपने पति और ससुराल वालों को मनाना भी आपकी ही ज़िम्मेदारी होगी और यदि आपके पास माता-पिता की देखभाल के लिए कुछ पैसे या संपत्ति होगी तो वे आपको ऐसा करने के लिए मना भी नहीं करेंगे (यह बात मैं उस स्वाभाविक मानव सोच को साथ में रखते हुए लिख रही हूं, जिसे चाहे आप कितना भी नकार लें, लेकिन वह एक बड़ा सत्य है, जिससे आप मुंह नहीं फेर सकते: जिसकी जितनी मज़बूत आर्थिक स्थति होती है, वह चीज़ों का अपने पक्ष में उतनी आसानी से कर सकता है. हालांकि आदर्श समाज की बात करें तो वहां ऐसा होना नहीं चाहिए, लेकिन यह भी तो सच है कि हम आदर्श समाज में नहीं रहते हैं.)
तीसरी बात ये कि एक और सच्चाई है कि हमारे समाज में सामान्यत: बेटी छोटी भी हो तो भी उसकी शादी उसके भाई से पहले किए जाना का रिवाज़ है. बहन की शादी कभी भी हो, भाई से पहले या बाद में, अमूमन माता-पिता अपनी बेटी के शादी में अपनी हैसियत से बढ़ कर ख़र्च करते हैं. दहेज पर लाख पाबंदी हो, लेकिन अपनी ओर से वे कैश भी देते हैं और गहने भी. फिर जब भाई की शादी होती है तो वही मां-बाप बेटी की शादी की तुलना में बेटे की शादी में कम पैसे ख़र्च करते हैं (हालांकि हो सकता है कि बेटे की पत्नी अपने घर से बिल्कुल उसी तरह का कैश, गहने लाए, जैसे कि बेटे की बहन को दिए गए हैं, लेकिन इस मामले को फ़िलहाल नहीं छूते). इस तरह देखा जाए तो बेटे को अपनी शादी में अपने माता-पिता की ओर से कुछ नहीं मिलता, लेकिन बेटी को अपने माता-पिता से गहनों और कैश का कुछ हिस्सा मिल जाता है.
जब बात बराबरी से बंटवारे की आए तो क्या बेटी को इस बात की गणना नहीं करनी चाहिए कि मेरी शादी में भाई की शादी से ज़्यादा पैसे लगाए गए हैं तो भाई को जितना कम मिला है, उसकी भरपाई मेरे हिस्से में से की जाए? तभी तो चीज़ें बराबर होंगी. नहीं क्या? फिर जब कभी बेटियां मायके आती थीं/हैं, माता-पिता उनके आने-जाने का ख़र्च, बेटी-दामाद और बच्चों के कपड़े-लत्ते और कभी-कभी गहने भी तो बनवाते थे/हैं (पहले इसकी वजह शायद यह रही होगी कि बेटी को संपत्ति में से कोई हिस्सा नहीं दे रहे हैं तो कम से कम उसके कोई पैसे ख़र्च न करवाए जाएं), लेकिन बेटे या उसकी पत्नी के लिए ऐसा नहीं किया जाता था/है, क्योंकि वे साथ ही रहते हैं तो इसकी क्या ज़रूरत है? लेकिन जब हमें हर बात का ट्रायल-बैलेंस बनाना है तो फिर रिकॉर्ड में हर एंट्री आनी चाहिए और इसके बाद बराबरी होनी चाहिए, नहीं तो बैलेंस कैसे होगा? ऐसे में महिलाओं को ख़ुद पहल कर के कहना चाहिए कि हमें आने-जाने का ख़र्च, कपड़े-लत्ते या तो मत दो या फिर उतना ही ख़र्च भाई के परिवार पर भी करो. माता-पिता ने बतौर उपहार दिया है कि यह कह कर उसे रख लेना क्या बराबरी की परिभाषा में आएगा? बराबरी का अर्थ बराबरी है, यह बिल्कुल नहीं कि किसी भी एक को कुछ ज़्यादा मिले और दूसरे को कम. है ना?
चलिए, यह भी मान लेते हैं कि माता/पिता (या दोनों) यदि सरकारी नौकरी में हैं और उनकी पेंशन आती है तो वे बेटे के साथ रहने पर उसके घर पर थोड़ा ख़र्च भी करते होंगे. तो संपत्ति में बराबरी चाहने वाली संतानों (बेटे और बेटियों) को चाहिए कि वे अपने माता-पिता को बारी-बारी अपने साथ रखें और उनकी सुविधाओं का ध्यान रखें (इसे बागबान फ़िल्म से जोड़ने का इमोशनल ड्रामा किए बिना), या फिर उनसे कहें कि वे अपने पेंशन के पैसों को एक अकाउंट में इकट्ठा करें, जिसे बाद में बच्चे बराबरी से बांट लेंगें और अभी उनका ख़र्च बच्चे मिल कर उठाएंगे.
कहने का अर्थ यह है कि बात बराबरी की हो तो पूरी होनी चाहिए, अधूरी नहीं. लेकिन यदि समाजिक रिश्तों में गणितीय गणना करते हुए बराबरी ली, दी या पाई जाए तो वो मानवीय संवेदनाएं कहीं खो जाएंगी, जो पारिवारिक रिश्तों का मूल तत्व हैं. और इन महीन संवेदनाओं को बचाना है तो यह देखना भी ज़रूरी है कि नुक़सान न बेटी का हो, न बेटे का और न ही माता-पिता का. यह सब कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि महिलाओं को अपने माता-पिता की संपत्ति में से अपना हिस्सा नहीं लेना चाहिए, उन्हें बिल्कुल लेना चाहिए, ज़रूरत पड़े तो लड़ कर लेना चाहिए, लेकिन ऐसी स्थिति में उन्हें अधिकार के साथ आने वाले कर्तव्यों का भी जम कर पालन करना चाहिए. उससे कभी पीछे नहीं हटना चाहिए.
फ़ोटो: फ्रीपिक