साहित्य अकादमी विजेता कवि-लेखक कैलाश वाजपेयी की यह चर्चित कविता भाग्य के भरोसे रहनेवाले, आसानी से हार मान लेनेवाले और पुरानी बातों को पकड़कर उनका रोना रोनेवालों के लिए एक संदेश है कि निराशा को छोड़कर आगे बढ़ने को ही जीवन कहते हैं.
ऐसा कुछ भी नहीं ज़िंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए
कांटों बीच उगी डाली पर कल
जागी थी जो कोमल चिंगारी
वो कब उगी खिली कब मुरझाई
याद न ये रख पाई फुलवारी
ओ समाधि पर धूप-धुआं सुलगाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए…
चाहे मन में हो या राहों में
हर अंधियारा भाई-भाई है
मंडप-मरघट जहां कहीं छाएं
सब किरणों में सम गोराई है
पर चन्दा को मन के दाग दिखाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं चांदनी में कि जलता मस्तक शबनम से धोया जाए…
सांप नहीं मरता अपने विष से
फिर मन की पीड़ाओं का डर क्या
जब धरती पर ही सोना है तो
गांव-नगर-घर-भीतर- बाहर क्या
प्यार बिना दुनिया को नर्क बताने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए…
सूरज की सोनिल शहतीरों ने
साथ दिया कब अन्धी आंखों का
जब अंगुलियां ही बेदम हों तो
दोष भला फिर क्या सुराखों का
अपनी कमज़ोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए…
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