दो अलग-अलग उम्र की महिलाओं की एक ही कहानी. पढ़ें, गुलशेर ख़ान शानी की रचना ‘एक नाव के यात्री’.
कीर्ति मारे उत्सुकता के फिर खड़ी हो गई. यह पांचवी मरतबा था, लेकिन इस बार लगा कि सीटी की आवाज सचमुच दूर से काफी नजदीक होती आ रही है और गाड़ी प्लेटफार्म में प्रवेश करे, इसमें अधिक देर नहीं…
घबराहट से चेहरे का पसीना पोंछने के लिए उसने रूमाल टटोला. नहीं था. बेंच पर छूटने की भी कोई संभावना नहीं थी. जल्दी-जल्दी यही होता है, उसने सोचा. वह साड़ी से ही मुंह पोंछना चाहती थी, लेकिन तभी यक-ब-यक सारे प्लेटफार्म में मुसाफिरों तथा सामान लदे कुलियों की भगदड़ मच गई,’हेलो!’ सहसा उसी समय अपने कंधे पर पड़े स्पर्श से कीर्ति चौंकी. चौंकी ही नहीं, धक्क-सी रह गई. क्षण के छोटे से खंड में लगा था कि कहीं रज्जन ही न हो, पर थीं वे मिसेज मित्तल. रॉ-सिल्क की आसमानी साड़ी में अच्छी तरह कसी-कसाई और चुस्त. किसी विदेशी सेंट की बहुत भीनी खुशबू एक क्षण के लिए हवा में ठहर गई थी.
‘अरे!’ कीर्ति ने जल्दी से हाथ जोड़े, ‘कहां जा रही हो?’
‘भोपाल,’ मिसेज मित्तल ने इतने सहज भाव में कहा जैसे उनका भोपाल जाना रोज-रोज की बात हो, ‘और तुम!’ उनकी आंखें बार-बार कंपार्टमेंट की ओर बढ़ते अपने कुली की ओर लगी हुई थीं.
‘रज्जन आ रहा है.’ मिसेज मित्तल के नए रूप वाले प्रभाव से मुक्त होने के लिए कीर्ति एक सांस में कह गई. वैसे पिछले कई घंटे से यह वाक्य उसे भीतर-भीतर तंग जरूर कर रहा था लेरकिन इस पल मिसेज मित्तल के अतिरिक्त वह और कोई बात नहीं सोच रही थी. बरसों बाद उन्हें इतना सिंगार-पटार किए कीर्ति देखे और खुद उनकी जबानी भोपाल जाने की बात सुने तो फिर अविश्वास की कहां गुंजाइश रह जाती है!
‘अच्छा!’ रज्जन की बात सुनकर एक पांव से जमीं और दूसरे से उखड़ती हुई मिसेज मित्तल ने अपनी आंखों को और फैला लिया, पूछ रही थीं, ‘इस गाड़ी से?’
‘हां?’
‘लेकिन रज्जन को लैंड किए तो कई दिन हो गए न, जाने कौन कह रहा था कि…’
‘उसे दिल्ली रुकना पड़ गया.’ आगे कुछ अप्रिय न सुनना पड़े, सोचकर कीर्ति ने जल्दी से कह दिया. फिर उन्हें देखती हुई जबरन मुस्कराई. गाड़ी तब बेतरह चिंघाड़ती हुई प्लेटफार्म में प्रवेश कर रही थी.
‘अच्छा! लौटकर मिलेंगे…’ कहकर मिसेज मित्तल कब बढ़ गईं, यह कीर्ति ने गाड़ी की हड़बड़ी में नहीं देखा. उसकी घबराहट अब पहले की अपेक्षा कई गुना बढ़ गई थी -पसीना, गले का सूखना और हलक में चुभने वाले कांटे. उसे अपनी स्थिति उस दिन जैसी लग रही थी जब अंतिम परीक्षा का परिणाम आने वाला था और उसे अखबार आने की प्रतीक्षा थी. उत्सुकता की मारी वह उस दिन भी स्टेशन आ गई थी.
वह आगे चली जाए? क्या भीड़ या धक्कमपेल की परवाह किए बिना निकल जाए? एक बार कीर्ति ने सोचा, लेकिन एक सिरे से दूसरे किरे तक उमड़ते लोगों के सैलाब को देखकर हिम्मत छूट गई. वहां भी एक जगह खड़े रहने के बावजूद वह नाहक कई धक्के खा चुकी थी.
और रज्जन को वह पहचान भी सकेगी? पिछले कई दिनों की तरह आज फिर आशंका उठी-अथवा क्या उसे दूर से ही देखकर रज्जन पहचान लेगा? सात साल का अरसा कम नहीं होता – इतने में कल तक की बच्ची जवान हो जाती है. जवान के पांव ढलान तक पहुंच जाते हैं और बूढ़े…
वह कई दिनों के चुने हुए उस स्थान पर खड़ी थी जहां से ट्रेन के लोग और बाहर जाने का रास्ता, दोनों ठीक-ठाक दिखाई दे सकें.
भीड़ रोज जैसी थी, गए साल जैसी या शायद गुजरे हुए उन सातों बरस जैसी. कोई भी मौसम हो, चाहे जैसा दिन या घड़ी, यात्राओं का क्रम कभी नहीं टूटता. जब भी स्टेशन आओ, भीड़ का एक ही रूप दिखाई देता है – अपने-अपने सामान, मित्र या परिवार से लदे-फंदे लोग जो जाने कब से चढ़ या उतर रहे हैं. प्लेटफार्म में प्रतीक्षा करते वही आत्मीय और प्रियजन, कुछ तो खिल उठते हैं और अनेक…
‘रज्जन!’ फर्स्ट क्लास के एक कंपार्टमेंट से एक किसी स्वस्थ से युवक को उतरते देख, कीर्ति के मुंह से न केवल यह आवाज निकली, बल्कि वह झपटती हुई उधर भी बढ़ गई थी, पर झेंपकर दूसरी ओर देखना पड़ा. …और भला कुली के पीछे-पीछे कौन जा रहा है? वह ग्रे कलर के सूट वाला… ठेले के पास खड़ी स्कर्ट वाली लड़की के पीछे… ब्बो…ब्बो…? और फिर हर गुजरने वाले चेहरे को जल्दी-जल्दी झांकती आंखों से पकड़ने की कोशिश और पीछा…
क्या आज फिर अकेले लौटना होगा? अंत में गेट के पास खड़े आखिरी समूह को देखते हुए कीर्ति ने सोचा, फिर पापा की उन्हीं आंखों का सामना, जिनसे कीर्ति को दहशत होती है… फिर मां का वही बिसूरना, जिसे सुनकर उसकी आंखें गीली होती हैं, फिर वही तनाव…
‘क्यों?’
थोड़ी देर बाद जब गाड़ी रेंगने लगी तो बावजूद भीड़-भाड़ के जाने कैसे मिसेज मित्तल ने उसे देख लिया था. खिड़की के बाहर सिर निकालकर वह हाथ के इशारे से पूछ रही थीं, ‘क्यों?’ अर्थात – रज्जन नहीं आया?
कीर्ति कई पल निरुत्तर-सी खड़ी मिसेज मित्तल को देखती रही. फिर जब कुछ नहीं सूझा तो हिलते सैकड़ों रूमालों के बीच एक हाथ अपना भी उठाकर वह यों हिलाने लगी जैसे मित्तल को ही छोड़ने स्टेशन आई हो… गुड लक-गुड लक…
और कीर्ति ही नहीं, पिछले कई दिनों से सारा घर इसी तनाव में लटका हुआ जी रहा है. तेरह दिन पहले मंगलवार को रज्जन ने बंबई में लैंड किया था और उस दिन यहां घर की बेचैनी सीमा पर पहुंच चुकी थी.
‘बेटी, कितने बजे हैं?’ पापा ने उस दिन कीर्ति के कमरे में तीसरी बार आकर पूछा था.
‘चार.’
‘बस नौ घंटे और हैं,’ पापा ने अपनी ज्योतिहीन आंखों से एक ओर ताकते हुए कहा था, ‘छह बजे रज्ज्न का जहाज किनारे आ लगेगा?’
‘तो कौन तुमसे वह तुरंत आ मिलेगा?’ यही बात जब उन्होंने जब आधे घंटे के बाद और सातवीं बार दुहराई तो मां एकाएक झल्ला पड़ी थीं, क्योंकि पापा की बेचैनी उनसे देखी नहीं जा रही थी. अपने नगर से सात सौ मील दूर रज्जन बंबई में उतर रहा था. चाहने पर भी उसके लिए इस भौगोलिक दूरी को लाँघकर फौरन आ मिलना संभव नहीं था, लेकिन घर में ऐसी व्याकुलता समाई हुई थी मानो छह बजे की ट्रेन से वह सीधे यहीं पहुंच रहा हो. यों रोज सुबह सबसे पहले पापा ही उठते थे, लेकिन, लेकिन उस दिन उन्होंने अपने साथ-साथ सभी को जल्दी जगा दिया था – पहले मां, कीर्ति, फिर शोभा और यहां तक कि छड़ी टेकते-टेकते जाकर आउट हाउस में रहने वाले श्यामलाल को भी उन्होंने सोने नहीं दिया था.
‘आज रज्जन पहुंच रहा है.’ इस वाक्य से वह दिन शुरू हुआ था और सारा दिन घिसे हुए रेकार्ड की तरह से छूटने के बाद पति-पत्नी के बीच रज्जन की पुरानी स्मृतियां दुहराई गई थी, उसकी कुछ आदतों, विशेषताओं और गुणों आदि के चर्चे हुए थे और रात कीर्ति को बड़ी देर तक पापा के जागने की आहट मिलती रही थी.
सात वर्ष पहले जब रज्जन इंजीनियरिंग के एक डिप्लोमा के लिए इंग्लैंड जाने लगा था तो किसी को कल्पना भी न थी कि वह इतने अरसे के लिए वहां रह जाएगा. केवल दो-ढाई वर्ष में लौट आने की बात थी. तब ब्याह हुए सिर्फ छह माह गुजरे थे. रत्ना को उसने इसलिए साथ कर लिया था कि विदेश के अकेलेपन से डर लगता था. फिर अध्ययन के दौरान इधर या उधर का कोई तनाव न रहे और पति-पत्नी दोनों मिलकर वह समय काट आएं; एक उद्देश्य शायद यह भी था.
लेकिन ढाई के बदले तीन वर्ष हो गए और रज्जन अभी नहीं लौटा. एक पत्र आया कि उसे कोई टेंप्रेरी जॉब मिल गया है. सोचा, क्यों न कर ले? कुछ नहीं तो यात्रा का खर्च ही निकल आएगा और संभव हुआ तो थोड़े-बहुत पैसे भी बच जाएंगे… फिर यह सूचना आई कि रत्ना को भी यहां रेडियों में नौकरी मिल गई है और दोनों मिलकर काफी कमा लेते हैं. रज्ज्न के शुरू-शुरू के पत्रों से अवश्य लगता था कि उसे कहीं-न-कहीं वापस लौटने की उत्सुकता है, पर बाद में वह इस टर्म में सोचने लगा था कि भारत में अगर वैसी अच्छी नौकरी न मिली तो?
और इस बीच कई बड़ी-बड़ी अप्रत्याशित घटनाएं हो गईं थीं. शोभा के बाद वाला भाई जाता रहा था. कीर्ति से बड़ी बहन नलिनी ब्याह कर बनारस चली गई थी, पापा सरकारी नौकरी से रिटायर होकर घर बैठ गए थे और इनमें सबसे बड़ा हादसा यह हुआ था कि पापा की आंखें अकस्मात जाती रहीं.
‘मुझसे बड़ा अभागा और कौन होगा,’ इस खबर के मिलते ही रज्जन ने बेहद दुखी स्वर में लिखा था, ‘कि इतनी बड़ी बात हो जाए और मैं आपके पास ना होऊं. सचमुच मैं नराधम हूं या यह मेरे पूर्व जन्म के पापों का फल है कि इतना सब होने के बाद भी मैं आपसे हजारों मील दूर पड़ा हूं… लेकिन पापा, आप चिंता मत करें – मैं आज-कल में यहां के आई-स्पेशलिस्ट से कन्सल्ट कर रहा हूं और और मुझे विश्वास है जिस दिन आपको यहां ले आऊंगा, सब ठीक हो जाएगा.’
खत सुनकर पापा रो पड़े थे. कीर्ति से पत्र लेकर कुछ देर वे उस पर यूँ हाथ फेरते रहे थे, मानों ऊंगलियों में आंखें उतर आई हों, फिर भर्राए कंठ से उन्होंने इतना ही कहा था, ‘कीर्ति की मां, ईश्वर की सौगंध! अब मुझे आंखों का अफसोस नहीं रहा…’
और उस दिन कई महीनों के बाद समूचे घर के लोग पापा के पास इकट्ठा हुए थे. उन्हें घेरकर कीर्ति, शोभा और मां सभी बैठ गई थीं और पापा ने आदत अनुसार नौकरी के दिनों वाले पुराने किस्से सुनाए थे – वे किस्से जिन्हें इससे पहले भी कई बार उन्होंने सारे घर को सुनाया था.
गेट के बाहर कीर्ति ठिठक गई.
तीन-चार दिनों से यही हो रहा था. स्टेशन से लौटने में पैदल तय करने वाला रास्ता चाहे जल्दी से कट जाए, घर आते-आते अक्सर कदम धीरे पड़ जाते थे. गेट में से गुजरते वक्त लगता जैसे किसी ने पांवों में पत्थर बाँध दिए हों और…
बात बिल्कुल नई न थी, लेकिन आज से पहले कीर्ति ने अपने को इतना अवश कभी भी महसूस किया था. उसे लगा कि और दिन भले ही भ्रम होता रहा हो, आज की स्थिति दूसरी है. आधारहीन ही सही, जाने क्यों वह बहुत जोर से महसूस कर रही थी कि रज्जन जरूर आ गया है और भीतर प्रवेश करते ही वह पापा के पास बैठा हुआ है. बहुत मुमकिन है कि स्टेशन की भीड़-भाड़ में वह मिस कर गई हो, या उसने पहचाना ही न हो और रज्जन निकल आया हो!
मटियारे अंधेरे में घिरी हुई शाम… हवा में हल्की सी खुनकी थी. छिटपुट या इक्का-दुक्का घरों की बत्तियां मुहल्ले के सभी अंधेरे और निर्जन कोनों को घूर रही थीं. ऐसे में बेहद मद्धिम रोशनी में डूबा हुआ अपना मकान एक क्षण के लिए कीर्ति को ही भुतहा और रहस्मय-सा लगा! …यह सारे घर में अंधेरा क्यों रखा है? वह मन-ही-मन झल्लाई, इतने दिनों बाद रज्जन आए और फिर भी उजाला न हो तो और कब होगा? …और आज श्यामलाल बेवक्त कैसे? वह चौंकी, साइकिल लेकर दूसरे गेट से जल्दी-जल्दी वह कहां निकल गया?
कीर्ति का जी अचानक जोर-जोर से धड़कने लगा. लंबे-लंबे डग से धड़धड़ाती हुई वह अहाते का भीतर वाला मैदान, छोटा बगीचा और दालान पार करती हुई भीतर चली गई. पर कहीं कोई न था. न कोई होलडाल-सूटकेस और न किसी की विदेशी स्लिपों वाली अटैची… वही रोज का मद्धिम रोशनी वाला बड़ा मकान, जिसमें तीन-चार लोग ऐसे खो जाते थे पता ही नही लगता था.
‘कीर्ति!’
लंबा और सँकरा गलियारा पार करके वह दूसरे छोर वाले कमरे की ओर जाना चाहती थी कि चौंक गई. अंधेरे गलियारे में मां प्रेत की तरह खड़ी थीं.
‘कौन?’ उसी समय पापा के कमरे से अधीर-सी आवाज आई, ‘क्या कीर्ति आ गई? कीर्ति…’
‘हां, कीर्ति आ गई!’ दो क्षणों की चुप्पी के बाद भी मां ने घसीटते हुए शब्दों में जवाब दिया. इसी बीच केवल एक बार उन्होंने कीर्ति की ओर देखा था, फिर हट गई.
और बस. किसी ने न कुछ कहा, और न कुछ सुना. जैसे न अब तक कीर्ति की प्रतीक्षा थी और न उसके साथ बँधी हुई आशा थी.
पिछले बारह दिनों से इस समय सारा घर कंठ में अब प्राण लिए बैठा रहता था. पल-पल कीर्ति की बाट देखी जाती थी. पहले दो दिन पापा स्वयं स्टेशन तक चले गए थे. बंबई से आने वाली कई गाड़ियां उन्होंने देखी थीं. वह तो बाद में पता चला था कि रज्जन यहां आने के बदले सीधा दिल्ली चला गया था – रत्ना के घर. और कई बार बदले हुए तथा स्वयं निर्धारित किए कार्यक्रम के बावजूद आज तेरहवें दिन भी रज्जन का पता नहीं.
अपने कमरे में पहुंचकर बड़ी देर तक कीर्ति को लगता रहा कि आज भी मां जरूर दबे पांव आएंगी. शायद और दिनों की तरह पापा के कान बचाकर धीरे से कहें, ‘कीर्ति, जा, रज्जन को एक तार कर आ… इसने तो खेल बना रखा है. अरे, अगर यहां न आना था तो न आता. लिख-लिखकर सबको परेशान करने की क्या जरूरत थी!’
पिछले दो तार ऐसे ही हुए थे और गर दिन जो ‘ट्रंक’ लगाया जा रहा था, उसके पीछे भी यही था.
पर सचमुच मां नहीं आईं, खाने की सूचना लेकर भी शोभा पहुंची थी.
‘आज मिसेज मित्तल मिल गई थीं.’
खाने की मेज पर भी जब वही तनाव गिद्ध के डैनों की तरह मँडराता रहा तो कीर्ति ने केवल बात करने के लिए सप्रयास बात शुरू की.
‘कहां?’
‘स्टेशन पर.’
‘अच्छा!’
‘वे भोपाल जा रही थीं.’ कहकर कीर्ति ने तत्काल मां की ओर देखा. उसका अनुमान ठीक था. मिसेज मित्तल के साथ भोपाल का नाम सुनते ही वह बेतरह चौंकीं, मुंह की तरफ बढ़ता उनका हाथ सहसा रुक गया, जैसे किसी अचरज-भरी घटना की खबर दी गई हो. साश्चर्य पूछा, ‘किसने कहा?’
‘वे खुद कह रही थीं.’
विश्वास करने के प्रयास में मां कीर्ति को घूरती रहीं. एक क्षण के लिए उनकी आंखों में अजीब-सा भाव तैर आया. जाने वह छोटी सी खुशी का था या अचानक लगे हल्के-से धक्के का. कीर्ति से आंखें हटाकर, ठिठका हुआ झूठा हाथ लिए दो-एक पल वे एक अंधेरे कोने को घूरती रहीं, फिर ‘यही होता है’ का भाव लिए चुपचाप खाने लगीं.
जिसने मिसेज मित्तल का दृढ़ स्वरूप देखा हो, उसके लिए यह सचमुच विश्वास करना कठिन है कि आखिर वह उसी बिंदु पर आ गईं, जिसका बरसों से वे अकेले दम पर विरोध करती रही हैं.
यों पड़ोस जैसी पड़ोसी मिसेज मित्तल नहीं थीं. एक तो घर उनका दूर था और दूसरे स्वभाव से रूखी और घमंडी लगती थीं. शायद इसीलिए, आने के बाद भी काफी अरसे तक सभी से अपरिचय बना रहा. लेकिन जब कार्ति से परिचय हुआ तो सारी दूरी तो जाती रही, वह रहस्य भी नहीं रह गया, जो उनके बारे में पहले दिन से, मुहल्ले में ही नहीं सारे नगर में बना हुआ था. विवाहिता और पराए शहर की होते हुए भी उन्होंने इस नई जगह में आकर नौकरी कर ली थी. यहां उनका न कोई रिश्तेदार था न कोई परिचित. बहुत सीधे-साधे ढंग से एक कमरा लेकर वे अकेली रहती थीं – अकेली ही नहीं अलग-अलग और सभी से कटी हुई. शायद इसीलिए लोगों में कानाफूसियां थीं कि क्या कोई भी जवान औरत किसी नए शहर में अकेली-जान रह सकती है? मिसेज मित्तल अगर सच में विवाहिता या सुहागन हैं तो कभी उनका पति उनके पास क्यों नहीं आता अथवा पिछले तीन बरसों में एक बार भी वे अपने पति के पास भोपाल क्यों नहीं गईं?
‘मेरी समझ में नहीं आता कि लोगों को दूसरों की जिंदगी में इतनी दिलचस्पी क्यों होनी चाहिए?’ कीर्ति से पहली या दूसरी भेंट पर ही अत्यंत दुखी होकर मिसेज मित्तल ने कहा था, ‘क्या मैं हर किसी से ये बताती फिरूँ कि मैं ब्याहता या सुहागन हूं… कि पति-पत्नी में कितना प्यार था… महेश ने अचानक कैसे मेरे साथ धोखा करना शुरू कर दिया और कैसे अलग होकर मैं इसी बात पर आज भी उससे लड़ रही हूं?’
और उस दिन कीर्ति ने पहली बार जाना था कि इस दुख-भरी दुनिया में आज भी ऐसे लोग हैं जो टूट भले ही जाएं, मगर झुकना या समझौता करना नहीं जानते. अगर प्रेम-विवाह के साल-दो साल बाद ही कोई महेश किसी रूप-जाल में उलझकर नए ‘अफेयर’ में फंस जाए तो मिसेज मित्तल जैसी कोई भी स्वाभिमानी औरत क्या कर सकती है…!
कीर्ति को लगा जैसे वह अकेली नहीं. चुपचाप कौर उठाती हुई मां भी आज उसी दिन की बात सोच रही हैं – उस दिन शोभा के बर्थ-डे के बाद मिसेज मित्तल आईं थीं. घर में बीते हुए एक छोटे से उत्सव के अवशेषों के बीच उस दिन मां को जाने क्या सूझी कि ट्रंकों में एक जमाने के बंद ढेर-से पुराने और कीमती कपड़े वह निकाल लाई थीं. फिर उन्हें मिसंज मित्तल के सामने फैलाकर बैठते हुए पूछा था, ‘तुम्हे रफू करना आता है?’
मिसेज मित्तल ने हंसकर नहीं कर दी थी.
‘ये कपड़े मेरी शादी के हैं,’ मां बोली थी, ‘कुछ शायद उससे भी पहले के. रखे-रखे फटते देख जी दुखता है, तो जानती हो क्या करती हूं? रफू करके फिर सहेज देती हूं. मेरी तो अब पहनने की उम्र नहीं रही, कीर्ति, नलिनी से पहनने को कहती हूं, तो ये लोग हंसते हैं.’
मिसेज मित्तल एक-एक साड़ी का पल्ला लेकर उन पर किया हुआ सोने-चांदी का काम देखने लगी थीं.
‘तुम भोपाल कब जा रही हो?’ और बीच में बिल्कुल अचानक, बिना किसी प्रसंग के मां ने पूछ लिया तो कीर्ति ने स्पष्ट देखा कि मिसेज मित्तल का चेहरा एकदम उतर गया है. अपने को जैसे-तैसे सँभालकर उन्होंने सूखे होंठों से जवाब दिया था, ‘अभी तो ऐसी बात नहीं… क्यों?’
‘क्यों क्या?’ मां बोली थीं, ‘दुनिया में यह सब तो चलता रहता है, तुम अकेली कहां तक लड़ोगी?’ …किसी चीज से अगर सचमुच प्यार हो या वह कीमती हो तो टूट-फूट जाने पर भी उसका मोह नहीं जाता. मुझे देखो…’
और फिर पुराने कपड़ों वाले उदाहरण के अतिरिक्त उनकी ढेरों दुनियादारी की बातें, जिनमें से हर एक का इशारा बस एख ही ओर जाता था. यहां तक कि अंत में मिसेज मित्तल घबराकर किसी बहाने से कीर्ति के कमरे में उठ आईं थीं. एकांत में कीर्ति के सामने उन्होंने आंसू पोंछे थे. क्रोध और अपमान से तमतमाया चेहरा लिए वे बड़ी देर तक चुप रही थीं और जब मां के ही स्वर में जब कीर्ति ने तसल्लियां देनी चाही थीं तो आवेश में आकर उन्होंने अपने जूड़े में घुसा फूल निकाल लिया था. कछ देर वे उसकी पंखुड़ियों को सहलाती रहीं थीं, मानो कोई गहरा सा जवाब देने से पहले अपने शब्दों को तोल रही हों. अंत में उसकी एक पंखुड़ी को नाखून से चीरकर भरे गले से पूछा, ‘इसे रफू कर सकती हो?’
और कीर्ति को हाथ खींचते हुए देखकर मां ने सहसा टोक दिया, ‘तूने तो कुछ खाया ही नहीं.’ ‘सोने से पहले बत्ती बुझा देना,’ जाती हुई कीर्ति को मां ने रोज की तरह हिदायत दी, ‘नाहक मुझे परेशान होना पड़ता है… और शोभा अगर जिद करे तो अपने पास ही सुला लेना, अच्छा?’
रज्जन के बारे में कोई बात नहीं, एक भी शब्द नहीं…
रात कई बार कीर्ति को भ्रम होता रहा कि मां उसके कमरे में आई है. वह कई बार अचकचाकर उठी लेकिन रात के सन्नाटे में पाया कि कमरे से खाँसने और बार-बार बेचैन करवटें बदलने के अतिरिक्त और कोई आवाज नहीं आ रही थी.
लेकिन तेरह दिनों से जिस रज्जन के आने की इतनी धूम थी, वह आया तो तब जबकि उसे लेने के लिए घर की दहलीज पर भी कोई नहीं था.
सुबह के तीन बजे थे और सारा घर सो रहा था. कीर्ति से खबर सुनते ही पापा हड़बड़ाकर उठ बैठे, अपनी छड़ी के लिए एक पल वे हवा में हाथ चलाते रहे, फिर केला के जवान पत्तों की तरह बांहें फैलाकर थरथराते हुए खड़े हो गए.
रज्जन ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए. पीछे-पीछे रत्ना थी.
‘तूने तो बड़ा इंतजार कराया,’ अपने चरण छुए जाने के बीच मां कहना चाहती थीं – ‘यहां तो कई दिनों से यह हाल है कि…’ पर कहा नहीं गया. तभी वहां शोभा आ गई और बरसों बाद हम-उम्र भाई-बहनों के मिलने का शोर सारे घर में गूंजता हुआ पास-पड़ोस तक जा पहुंचा.
‘अरे शोभा! तू इतनी बड़ी हो गई?’
‘और क्या उतनी ही बनी रहेगी?’ मां बोलीं.
‘रत्ना, तुम्हें याद है,’ रज्जन ने कहा, ‘यह कितनी सी थी. और कीर्ति को तो देखो, कंबख्त बड़ी-अच्छी खासी महिला बन गई है.’
‘और जो मैंने एम.ए. पास कर लिया है वो?’ कीर्ति बोली, ‘लेक्चरर हो गई हूं, वो? तुम लोगों के बराबर कमाने लगी हूं, वो? इनमें से किसी की बधाई नहीं? रज्जन, इस बार तो मुझे भी अपने साथ इंग्लैड ले चल.’
‘अच्छा! अच्छा!’ रज्जन ने चिढ़ाया, ‘कभी आईने में अपनी शक्ल देखी है?’
और उस धमाचौकड़ी में कीर्ति के अतिरिक्त किसी ने नहीं देखा कि पापा की उठी हुई बांहें कैसे नीचे गिरीं.
‘देखो, मैं तुम सबके लिए क्या-क्या लेकर आया हूं.’ फिर बीच में उठकर रज्जन ने ट्रंक खोला और मां के मना करने तथा यह कहने के बावजूद कि दिन में देख लेंगे, उसने एक-एक करके सारी सारी चीजें उत्साहपूर्वक फैला दीं – पापा के लिए कार्डिगन, शोभा के लिए नए प्रकार के खिलौने और कीर्ति-नलिनी के लिए स्वेटर तथा स्कार्फ!
रत्ना यह बताती रही कि उन प्रजेंट्स के एक-एक पीस के लिए उन्होंने लंदन की कितनी-कितनी दूकानें देखी थीं और कितने अंबार में से पसंद किया था.
पापा ज्योतिविहीन आंखों से अपने परिवार को घूरते हुए अपरिचितों की तरह सुन रहे थे.
अगला दिन कीर्ति के घर ऐसे आया जैसे बरसों कभी आया करता था. सुबह से मिलने-बैठने वालों का तांता लग गया – उनमें पापा के मित्र थे, मां की परिचित महिलाएं थीं, कीर्ति-शोभा की सहेलियां थीं और सबसे अधिक संख्या थी रज्जन के दोस्तों की, जिनके साथ उसने बचपन और स्कूल के दिन गुजारे थे.
‘अब तो तुम्हारा साथ ही फिजूल है!’ दोपहर को दिन-रात के संग बैठने वाले शर्माजी ने कहा तो पापा एकदम चौंके, ‘क्यों?’
‘अरे भाई अब तुम यहां हो ही कितने दिन!’ दूसरे मित्र सक्सेना ने कहा ‘चंद दिन ही तो न? रज्जन आ गया है. तुम्हें अपने साथ ले जाए बगैर थोड़े ही मानेगा.’
‘अच्छा वोह…’ पापा सांस छोड़कर धीरे से राहत भरी हंसी हंसने लगे, ‘देखो, क्या होता है! पीछे तो वह बहुत दिनों से पड़ा है. मैं ही अब तक चुप बैठा रहा. कभी सोचता हूं कि रज्जन की बात मान लूँ, कभी हिम्मत नहीं होती. इसी चक्कर में मैंने यहां किसी डाक्टर को भी नहीं दिखाया… सच पूछिए तो शर्मा जी, अपना देश छोड़ने के नाम पर ही जी कचोटता है.’
‘तो कौन आपको हमेशा के लिए जाना है!’ शर्माजी बोले, ‘आंखें वापस मिल जाएं, चले आना.’
पापा कुछ सोचने लगे, मानो उसी समय निर्णय कर रहे हों कि उन्हें रज्जन के साथ जाना है अथवा नहीं. निश्चय ही शर्माजी, सक्सेना या सभी लोगों को यह लग रहा था कि रज्जन के आने का अर्थ ही उनका जाना है. पत्नी, बच्चे ही नहीं स्वयं उन्होंने यह बात कई लोगों से कह रखी थी. लेकिन आज जिस वास्तविकता का पता शर्माजी, सक्सेना या बाहर वालों में से किसी को नहीं पता था, उसे याद कर उन्हें अजीब सी व्याकुलता हो रही थी. मन की चिकनी और बेहद बिछलन भरी दीवार पर जो सांप की तरह चढ़ और गिर रहा था, वह यह भय था कि रज्जन कहीं अपने पत्र की बात भूल तो नहीं गया! आने के बाद से आंखों के बारे में औपचारिक-सी पूछताछ के अलावा और कोई बात नहीं हुई थी. ऊंह, होगी… लड़का है. बरसों बाद आया है, पहले उसे दम मारने की फुरसत तो मिले!
रात को जब मां ने उनसे खाने के लिए कहा, ‘सैर-सपाटे को गए हैं. जाने कब तक आते हैं.’
‘आखिर आएंगे तो,’ पापा बोले ‘कीर्ति-शोभा को भूख लगी हो तो खिला दो.’
पर जाने क्यों, भूख किसी को नहीं थी. पिछली रात की तरह सभी उस रात भी ग्यारह बजे तक रज्ज्न-रत्ना की प्रतीक्षा करते रहे. इस कोशिश में शोभा भूखी ही सो गई और तब भी उठाए नहीं उठी, जबकि वे लौट आए.
पार्टियां और पिक्चरें…
पहली दोपहर को छोड़कर तीन दिनों में न कोई रात खाली गई और न कोई दिन. पार्टियों और पिक्चरों का सिलसिला मुतवातिर चला और रज्जन को लगता रहा कि कुछ देर से घर आकर उसने सचमुच गलती की है. नगर में दोस्त या मिलने-जुलने वाले क्या एक-दो थे कि उन्हें आसानी से निबटा दिया जाता! यहां तो जिसके साथ कोताही करो उसे ही शिकायत हो रही थी.
‘रज्जन जाने की कह रहा था!’ उस रात कीर्ति ने पापा के कमरे में मां को कहते हुए सुना.
‘किसके जाने की?’ पापा ने चौंककर पूछा, ‘मेरे?’
‘नहीं,’ दूसरी ओर देखकर मां धीरे से बोलीं, ‘उसने अपने ही जाने की बात कही थी. कह रहा था, उसे जल्दी लौटना है और दिल्ली में भी एक-दो दिन का काम है.’
बड़ी देर तक पापा ने कुछ नहीं कहा.
‘ये लोग नलिनी के पास बनारस जा रहे थे न?’
‘अब नहीं जा रहे.’
‘क्यों?’
‘वक्त नहीं है,’ मां बोलीं, ‘मामा के पास जयपुर जाने वाला प्रोग्राम भी सुना है रद्द कर दिया है. रत्ना कह रही थी कि उनके प्रेजेंट्स भिजवा दें. देखते हो, इतने बरसों बाद आया है और बहन से मिले बिना चला जाना चाहता है. सोचो नलिनी क्या कहेगी!’
कुछ देर पापा चुप रहे.
‘रज्जन और कुछ कह रहा था?’
‘कब?’ कहकर मां ने पापा की ओर देखा तो, लेकिन दूसरे ही क्षण सँभल भी गईं. अपने ही प्रश्न को समेटती हुई बोलीं, ‘अरे, उसे मेरे पास बैठने या बात करने की फुरसत कहां है. कल यह जरूर पूछ रहा था कि पापा को कोट पसंद आया!’
और तब चारपाई बजने की आवाज से कीर्ति ने अनुमान लगाया कि पापा ने फिर वही बेचैन करवट बदली है.
स्टेशन से बाहर आकर कीर्ति ने मुक्तदि की सांस ली. उसे लग रहा था जैसे एक लंबे समय के बाद किसी भयंकर तनाव से छुटकारा मिला हो. अजीब बात यह कि रज्जन और रत्ना को गाड़ी में बैठता देख उसे जरा भी कचोट महसूस नहीं हुई थी. उसे कुछ वैसे हल्केपन का एहसास हो रहा था जैसे किसी छोटी हैसियत के आदमी को बड़े मेहमानों के विदा करने पर होता है.
चलने से पहले रज्जन और रत्ना दोनों ने अलगाव और बिछोह के औपचारिक शब्द कहे थे लेकिन कीर्ति से कुछ भी कहते नहीं बना था. उसने लाख चाहा कि रज्जन की बात रख ले. कई बार रत्ना के सामने उसने भूमिका भी बांधी थी, लेकिन लगा था जैसे भीतर कहीं से विद्रोह हो रहा है, और वह उसके सामने घुटने टेककर अवश हो गई.
‘कीर्ति, तू मेरी एक बात मानेगी?’ प्लेटफार्म पर रज्जन ने किसी बहाने उसे रत्ना से अलग ले जाकर कहा था.
‘क्या?’
‘सच तो यह है कि यह मैं तुझी से कह सकता हूं, इसलिए कि तू बहन भी है और समझदार भी… ये मदर-फादर को क्या हो गया? हम लोग इतने-इतने बरसों बाद आए, लेकिन लगा जैसे किसी को खुशी ही नहीं हुई. सारा वक्त पापा उखड़ी-उखड़ी बातें करते रहे और मां का मुंह सूजा रहा. मैं तो खैर घर का हूं, शिकायत करके भी कहां जाऊंगा. रत्ना के दिल को इससे बड़ा धक्का लगा है. वह कह रही थी कि इतनी भावना से लाए हुए प्रेजेंट्स किसी ने एप्रिशियेट तक नहीं किए. पापा ने तो कोट को छूकर भी नहीं देखा. तू अगर उसे बातों ही बातों में यह विश्वास दिला दे कि उन प्रेजेंट्स से घर भर के लोगों को कितनी खुशी हुई है तो…’
उसे क्या हो गया था! कीर्ति ने सोचा – रज्जन का इतना सा आग्रह रखते उससे क्यों नहीं बना? झूठ ही सही, क्या वह रत्ना से नहीं कह सकती थी कि…
‘और भला क्या तुमसे कह गई थीं?’ अचानक उसके कंधे पर हाथ रखकर रमा सेन पूछ रही थीं. कीर्ति सहम गई. उसे खीझ-सी हुई कि जो रमा सेन स्टेशन पर से उसके साथ-साथ टैक्सी में चली आ रही थीं, उनकी उपस्थिति इतनी देर से वह कैसे भुला बैठी थी! और क्या-क्या कह गई थीं? कौन, …हां, मिसेज मित्त्ल… स्टेशन पर मिलने के बाद से वे लोग उन्हीं के बारे में बातें करती आ रही थीं. चाहे-अनचाहे, जगह-बेजगह मिसेज मित्तल का ही प्रसंग.
‘मुझसे तो कहा था कि दो-चार रोज में आ जाएंगी.’
‘उन्होंने सभी से यही कहा था,’ रमा सेन बोलीं, ‘मुझसे भी. लेकिन मैं तब भी जानती थी कि वे लौटकर नहीं आएंगी और इसी तरह एक दिन उनका इस्तीफा आ जाएगा. असल में, कीर्ति जहां तक मैं जानती हूं अपने किसी प्रियजन से प्रेम करना जितना आसान है, चोट लगने के बाद भी उससे घृणा करके रह सकना उतना ही मुश्किल. जिस दिन मैंने मिसेज मित्तल जैसी पढ़ी-लिखी महिला को चूड़ियों वाले एक छोटे से अपशकुन से घबराते देखा था उसी दिन मैं समझ गई थी कि उनके सारे बंद टूट गए हैं.’
घर के लिए और कितना रास्ता बाकी है? ऊबी हुईई कीर्ति ने खिड़की के बाहर सिर निकालकर देखा. उसे कम-से-कम उस समय मिसेज मित्तल वाली चर्चा में जरा भी रुचि नहीं रह गई थी और रमा सेन की बातें बेतरह थका रही थीं.
फिर वही अपने ही घर में प्रवेश करने का भय…
गेट में से गुजरते हुए आज कीर्ति के पांव ठिठके नहीं, लेकिन कहीं अचेतन मन में बैठे हुए भय ने अपना सिर उठा लिया था. वही मटियाले अंधेरे से घिरी हुई शाम, छिटपुट या इक्का-दुक्का घरों की बत्तियां, मुहल्ले के सूने तथा निर्जन कोने… और बेहद मद्धिम रोशनी में डूबा हुआ मकान…
बरामदे में चोरों की तरह प्रवेश करते हुए कीर्ति को याद आया कि आज घर में शोभा भी नहीं है. रज्जन-रत्ना से मिलने आई मासी के साथ ही वह चली गई थी. घर और उजाड़ हो गया. वह जानती थी कि घर की क्या तस्वीर होगी. जो पापा रज्जन को छोड़ने के लिए दहलीज तक भी नहीं आए थे, उनसे चारपाई छोड़ उठने की उम्मीद करना फिजूल की बात थी… और मां? किसी अंधेरे कोने में चटाई डाले पड़ी होंगी.
कीर्ति थक गई थी. अच्छा हुआ कि आज शोभा भी नहीं थी. वह चाहती थी कि मां या पापा किसी का भी सामना किए बगैर सीधे अपने कमरे में भागे और बिस्तर पर टूट पड़े. उसने अंधेरा गलियारा भी पार कर लिया था, लेकिन पापा के कमरे से फूटने वाली रोशनी ने उसे सहसा चौंका दिया.
गुजरते-गुजरते भी वह पापा के कमरे के पास ठहर गई.
‘कौन?’ उसी समय भीतर से पापा की आवाज आई. कीर्ति भयभीत शेर की तरह दीवार से सटकर खड़ी हो गई.
‘कोई नहीं है,’ एक क्षण बाद इधर की आहट लेकर मां ने आश्वस्त होते हुए कहा.
‘अच्छा. मुझे लगा जैसे कीर्ति आ गई.’
सुनकर कीर्ति से बिल्कुल रहा नहीं गया. कोई पाप होता है तो हुआ करे, सोचकर चलते-चलते ही सही, उसने कमरे में झांककर देखा तो कई क्षण आश्चर्यचकित-सी देखती रह गई – पापा ने वही कोट पहन रखा था जिसे रज्जन के होते हुए उन्होंने छुआ तक नहीं था. सामने कार्डिगन पहने मां खड़ी थीं, और उन्हें कंधों से पकड़े, कार्डिगन के एक-एक हिस्से को उंगलियों से टटोलते हुए पापा पूछ रहे थे, ‘इसका रंग कैसा है, नील?’
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