दलित कौन हैं? भारत के इतिहास में उनकी जगह कहां है? उनकी कथा और व्यथा क्या है? इन सवालों का सिलसिलेवार ढंग से जवाब देती है दीपक वोहरा की कविता ‘दलित’.
वो हिंदू थे न मुसलमान
वो थे मेहनतकश इंसान
वो कहीं बाहर से नहीं आए थे
वो मूलनिवासी थे
वो आदिवासी थे
वो जुलाहा थे बंजारा थे
वो भंगी थे तेली थे
वो धोबी थे कुर्मी थे
वो कोरी थे खटीक थे
वो लुहार थे सुनार थे
वो चर्मकार थे महार थे
वो मल्लाह थे कुम्हार थे
ब्राह्मण कहते थे:
वे शुद्र थे, वो अछूत थे
वो म्लेच्छ थे वो राक्षस थे
हां, वो शुद्र थे अछूत थे
लेकिन भोलेभाले इंसान थे
चालाकी और धोखे से अनजान थे
जब मनु ने कहा वो ब्रह्मा के पैरों से जन्में
उन्होंने पलटकर नहीं कहा
ब्रह्मा कहां से जन्मा
उनकी अपनी कहानियां थीं
शासक से शूद्र बनने की
अतिशुद्र बनने की
अछूत बनने की
वो नगर औ’ गांव से दूर थे
जंगलों में रहने को मजबूर थे
हिंदुओं को डर था
उनकी परछाई से भी
वो नगर में आते थे
गले में मटके टांगे
पीछे झाड़ू बांधे
ढोल बजाते हुए
जब सूरज ठीक
सिर पर हो
परछाई लंबी न हो
वो इतने पीटे गए
इतने डराए धमकाए गए
कि वो कभी सिर न उठाए
वो शुद्र थे
अतिशुद्र थे
वो अछूत थे
वो हिंदू थे न मुसलमान
वो यहीं के मूल निवासी थे
वो जानवरों की खाल उतारते थे
चमड़ा तैयार करते थे
वो भंगी थे
वो विद्रोही थे
वो बुनकर थे
वो कपड़ा तैयार करते थे
वो कपड़े सिलते थे
वो लोहे को पिघलाते थे
वो चट्टानों को तोड़ते थे
वो मेहनत करते थे
उनके जिस्म फ़ौलादी थे
वो इरादों में इस्पाती थे
वो संगतराश थे
वो संगीतकार थे
वो दस्तकार थे
वो थे तो हिंदुस्तान था
वो न होते तो
हिंदुस्तान हिंदुस्तान न होता
संविधान न होता
बड़े बड़े महल न होते
ताजमहल लालकिला न होते
वो हिंदू थे न मुसलमान
वो थे मेहनतकश इंसान
रचनाकार: दीपक वोहरा
करनाल, हरियाणा के दीपक वोहरा प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ से जुड़े हैं. उनकी रचनाएं समाज के दबे-कुचले और पिछड़े वर्ग की पीड़ा को स्वर देती हैं.
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