महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के अपने प्रयोगों को दुनिया ने न केवल जाना, बल्कि माना भी. बापू सेहत के साथ भी प्रयोग करते रहते थे. वे 125 वर्षों तक जीने की आशा रखते थे. अगर उस दिन एक सिरफिरे ने उनके सीने में गोलियां न झोंकी होती तो हो कौन जाने, बापू अपनी ज़िद और जीजीविषा के दम पर सेहत संबंधित राह भी दिखा देते. वरिष्ठ पत्रकार सर्जना चतुर्वेदी ने आपके लिए बापू द्वारा बताए गए सेहत के नुस्ख़ों का संकलन किया है.
व्यक्ति अपने विचारों से निर्मित प्राणी है. वह जो सोचता है, वही बन जाता है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का यह विचार इस बात को पुख्ता करता है कि मनुष्य स्वयं ही अपना वास्तविक निर्माता है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का 151 वां जन्मदिन संपूर्ण विश्व उस वक़्त मना रहा है, जब पूरा विश्व कोरोना जैसी सदी की सबसे बड़ी महामारी में से एक को हरा चुका है, पर वह अपनी सेहत को लेकर उतना बेफ़िक्र नहीं हुआ है. वह स्वास्थ्य को लेकर चिंताग्रस्त है. ऐसे में वह व्यक्ति, जिसने संयम और सकारात्मकता के साथ न केवल स्वयं जीवन जिया बल्कि पूरी दुनिया को उसका पाठ भी पढ़ाया, की कही बातें, उसके अनुभव बड़े काम के साबित हो सकते हैं. बापू ने कहा भी है कि ‘प्राकृतिक कारणों से अधिक लोग चिंता से मर जाते हैं.’
महात्मा गांधी की 150 वी जयंती के मौके पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘गांधी ऐंड हेल्थ@150’ में महात्मा गांधी के खान-पान संबंधी नियमों का जिक्र किया गया है. वहीं महात्मा गांधी द्वारा लिखित नवजीवन प्रकाशन मंदिर अहमदाबाद से प्रकाशित किताब आरोग्य की कुंजी मूलत: गुजराती में लिखी गई थी. इस किताब का अनुवाद उन्होंने सुशीला नैय्यर से करवाया था. ख़ास बात यह है कि 1942-44 के बीच आगाखान महल पूना में जब बापू नज़रबंद थे, तब उन्होंने यह पुस्तक लिखी थी. राष्ट्रपिता ने स्वास्थ्य के कुछ रहस्यों को देशवासियों से साझा किया था. बापू के अनुसार आरोग्य का अर्थ है सुखकारी शरीर. जिसका शरीर सामान्य काम दे सकता है, अर्थात् जो मनुष्य बग़ैर थकान के रोज़ दस बारह मील चल सकता है, बग़ैर थकान के सामान्य मेहनत मज़दूरी कर सकता है, सामान्य भोजन को पचा सकता है, जिसकी इन्द्रियां और मन स्वस्थ हैं, जैसे मनुष्य का शरीर सुखकारी कहा जा सकता है. जानते हैं उनकी सेहत से जुड़े कुछ राज जो आज महामारी के दौर में भी हमारे लिए महत्वपूर्ण हो सकते है….
कब्ज़ की समस्या को दूर करने के लिए बापू का अचूक प्रयोग
महात्मा गांधी लिखते हैं कि सन् 1901 तक मुझे कोई व्याधि हो जाती थी तो मैं डॉक्टरों के पास भागता हुआ तो नहीं जाता था, लेकिन उनकी बताई दवाओं का प्रयोग अवश्य कर लेता था. एक-दो चीज़ें मुझे डॉक्टर प्राणजीवन मेहता जी ने बताई थीं. मैं एक छोटे से अस्पताल में काम करता था तो थोड़ा बहुत अनुभव मुझे वहां से मिला और बाक़ी पढ़ने से. मुझे मुख्य तक़लीफ़ कब्जि़यत की रहती थी. उसके लिए समय-समय पर मैं फ्रूट सॉल्ट लेता था. उससे कुछ आराम तो मिलता था, मगर कमज़ोरी मालूम होने लगती. सिर में दर्द होने लगता और दूसरे भी छोटे-मोटे विकार होने लगते थे. इसलिए डॉक्टर प्राणजीवन मेहता जी की बताई दवाई लोह और नक्सवोमिका लेने लगा था. दवा में भरोसा कम था इसलिए जब बहुत ज़रूरी होता तभी दवा लेता था. खुराक को लेकर मेरे प्रयोग जारी थे और नैसर्गिक प्रयोग में मेरा भरोसा भी अधिक था. मेरी स्थित को जानने वाले भाई पोलक ने मेरे हाथ में जूस्ट को रिटर्न टू नेचर पुस्तक रख दी. जूस्ट ने कब्जि़यत में साफ़ मिट्टी को ठंडे पानी में भिगोकर बग़ैर कपड़े के पेट पर रखने के लिए कहा है. मगर मैंने पतले कपड़े पर पुल्टिस की तरह मिट्टी को रखा. सुबह उठा तो मुझे दस्त लगने लगे. वह उपाय कारगर रहा. उस दिन से कभी फ्रूट सॉल्ट नहीं छुआ. आवश्यकता होती है तो कभी-कभी अरंडी का तेल दो या तीन चम्मच सुबह-सुबह पी लेता हूं. यह मिट्टी की पट्टी तीन इंच चौड़ी, छह इंच लंबी और आधा इंच मोटी होती है.
महात्मा को सिरदर्द में भी राहत देती थी मिट्टी की पट्टी
मेरा अनुभव है कि सिर में दर्द होता हो, तो मिट्टी की पट्टी सिर पर रखने से बहुत फ़ायदा होता है. यह प्रयोग मैंने सैंकड़ों पर किया है. मैं जानता हूं कि सिरदर्द के अनेक कारण हो सकते हैं, परन्तु सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि किसी भी कारण से सिर में दर्द क्यों न हो, मिट्टी की पट्टी सिर पर रखने से तत्काल लाभ तो होता ही है. सामान्य फोड़-फुंसी में भी आराम मिल जाता है. मैंने तो मवाद बहते हुए फोड़े पर भी मिट्टी पर रखी है ऐसे फोड़े पर रखने के लिए मैं साफ़ कपड़े को परमेगनेंट के लाल पानी में भिगोता हूं, उसमें मिट्टी लपेटकर फोड़े को साफ़ करके उस पर मिट्टी वाला कपड़ा रख देता हूं. इससे अधिकांश फोड़े अच्छी तरह ठीक हो जाते हैं. सेवाग्राम में बिच्छू का उपद्रव आम बात थी, ऐसे में उसके डंक से राहत के लिए कई बार मिट्टी के लेप का प्रयोग करता था. बुखार और टाइफाइड में भी मिट्टे के लेप से मरीज को राहत मिलती है. इन प्रयोगों के लिए मैंने लाल मिट्टी का प्रयोग किया, लेकिन अगर वह न मिले तो चिकनी मिट्टी और सूखी हो. कंकड़ हो तो छान लें एवं गीली हो तो सेंक लेनी चाहिए.
बापू की मानें तो मुंह से सांस नहीं लेना चाहिए
हवा हम नाक से लेते हैं और बाहर छोड़ते हैं. जो हवा फेफड़ों से बाहर आती है, वह इतनी ज़हरीली होती है कि अगर इधर-उधर न फैले तो व्यक्ति उससे मर भी सकता है. घर ऐसा हो जिसमें हवा और सूर्य का प्रकाश दोनों आता हो. कुछ लोगों को ठीक से सांस लेना नहीं आता वे मुंह से सांस लेते हैं. जिसकी वजह से उन्हें कई बीमारियां होती हैं. उनका रक्त भी शुद्ध नहीं हो पाता है. यह एक बुरी आदत है. नाक में कुदरत ने एक तरह की छलनी लगाई है, जिससे हवा छनकर भीतर जाती है और साथ ही साथ गरम होकर फेफड़ों में पहुंचती है. मुंह से सांस लेने से न तो हवा स्वच्छ होती है और न ही गरम होती है. चलते-फिरते, सोते वक्त अपना मुंह बंद रखें तो नाक अपने आप अपना काम करेगी. सुबह उठकर जैसे हम अपना मुंह साफ़ करते हैं, नाक में मैल हो तो उसे निकाल ही डालना चाहिए. इसके लिए सबसे अच्छा पानी है. जो ठंड पानी सहन न कर सके वह गुनगुने पानी का इस्तेमाल कर सकता है.
नाक को पूरा ढंककर नहीं सोना चाहिए
ठंड कितनी भी हो कभी भी मुंह को पूरा ढंककर नहीं सोना चाहिए. ओढ़ने का कपड़ा गले से ऊपर नहीं जाना चाहिए. मस्तक ठंड को बर्दाश्त न कर सके तो उस पर एक रूमाल बांध लेना चाहिए. आशय यह है कि ठंड कितनी भी हो उसको कभी नहीं ढंकना चाहिए.
भोजन को औषधि की तरह लेना चाहिए
महात्मा गांधी लिखते हैं कि जो स्वाद भूख पैदा करती है वह छप्पन भोगों में भी नहीं मिलता है. भूखा मनुष्य सूखी रोटी भी बहुत स्वाद से खाएगा. जिसका पेट भरा हुआ होगा वह अच्छे से अच्छा पकवान भी नहीं खा सकेगा. हमें भोजन औषधि के रूप में लेना चाहिए, स्वाद के लिए हरगिज नहीं. जन्मदाता माता-पिता भी त्यागी संयमी नहीं होते, इसलिए उनकी आदतें कुछ प्रमाण में बच्चों में आती हैं. गर्भधारण के कारण बाद जो माता खाती है, उसका असर बालक पर पड़ता ही है. फिर बचपन में मां बच्चे को जो स्वाद सिखाती है, जो कुछ वह स्वयं खाती है. वही बच्चे को खिलाती है, परिणाम यह होता है कि बचपन से ही पेट को बुरी आदत लग जाती है. इन आदतों को सुधारने वाले कम ही होते हैं. इसलिए मनुष्य को तेल, घी का कम प्रयोग करते हुए, चोकर युक्त आहार संयमित मात्रा में लेना चाहिए. महात्मा गांधी के मुताबिक व्यक्ति को तीन बार खाना चाहिए सुबह काम पर जाने से पहले, दोपहर में और रात में. कुछ लोग हर समय कुछ न कुछ खाते रहते हैं, यह नुक़सानदेह है, क्योंकि आमाशय को भी आराम चाहिए.
जो शारीरिक मेहनत नहीं करते उन्हें व्यायाम करना चाहिए
जिस तरह से व्यक्ति को मन को काम में लगाने की आवश्यकता है, उसी तरह शरीर को भी काम में लगाए रखे रहना ज़रूरी है. रात को शरीर इतना थका हुआ होना चाहिए कि बिस्तर में जाते ही नींद आ जाए. ऐसी नींद जिन्हें शांत और नि:स्वप्न होती है. जितना समय में खुले में मेहनत का मिले उतना ही अच्छा है. जिन्हें ऐसी मेहनत करने को न मिले उन्हें पर्याप्त कसरत करना चाहिए. सबसे उत्तम कसरत खुली हवा में तेजी से घूमना है. घूमते समय मुंह बंद होना चाहिए और नाक से ही श्वास लेना चाहिए. चलते-बैठते शरीर बिल्कुल सीधा होना चाहिए. बिना सही ढंग के बैठना, उठना, चलना आलस्य की निशानी है और आलस्य रोग की निशानी है.
शरीर आहार के लिए नहीं आहार शरीर के लिए है
जैसा आहार होता है, वैसा ही आकार होता है. जो मनुष्य अत्याचारी है, जो आहार लेते समय विवेक या मर्यादा का ध्यान नहीं रखता है. वह अपने विकारों का ग़ुलाम है. जो स्वाद को नहीं जीत सकता वह इन्द्रियों को भी नहीं जीत सकता है. इसलिए मनुष्य को युक्ताहारी और अल्पाहारी बनना चाहिए. शरीर स्वयं को पहचानने के लिए बना है और स्वयं को पहचानना यानी ईश्वर को पहचानना है.
धूप लेना है ज़रूरी
कोविड-19 के समय में भी कहा गया कि रोजाना 30 मिनट की धूप लेना चाहिए. इससे न केवल मानसिक अवसाद को दूर करने में मदद मिलती है बल्कि इम्यूनिटी बढ़ाने और कई रोगों में भी यह लाभदायक है. बापू ने अपनी किताब में धूप लेने के महत्व के बारे में लिखा है कि सूर्य स्नान करके हम साफ़ और तंदुरूस्त भी हो सकते हैं. दुर्बल मनुष्य या जिसका ख़ून सूख गया हो, वह यदि सुबह के सूर्य की किरणें ले तो, उसके चेहरे का फीकापन और दुर्बलता दूर हो जाएगी और पाचन क्रिया यदि मंद हो तो वह जाग्रत हो जाएगी.