रबिन्द्रनाथ टैगोर की यह लघुकथा लौकिक और अलौकिक सुख और इच्छाओं की बड़े ही संक्षेप में क्या अद्भुत व्याख्या करती है.
शीतकाल के दिन थे. शीतकाल की प्रचंडता के कारण पौधे पुष्पविहीन थे. वन-उपवन में उदासी छाई हुई थी. फूलों के अभाव में पौधे श्रीहीन दिखाई दे रहे थे.
ऐसे उदास वातावरण में एक सरोवर के मध्य कमल का फूल खिला हुआ देखकर उसका माली प्रसन्न हो उठा. उस माली का नाम सुदास था. ऐसा सुंदर फूल तो कभी उसके सरोवर में खिला ही नहीं था. सुदास उस फूल की सुंदरता पर मुग्ध हो उठा. उसने सोचा कि मैं यदि यह पुष्प राजा साहब के पास लेकर जाऊंगा, तो वह प्रसन्न हो उठेंगे. राजा साहब पुष्पों की सुंदरता के दीवाने थे. इस शीतकाल में जब पुष्पों का अभाव है, तब इतना सुंदर पुष्प देखकर उसे इसका मनचाहा मूल्य मिलने की उम्मीद थी.
उसी समय एक शीत लहर आई. सुदास को लगा कि यह पवन भी कमल के खिलने पर अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रही है. माली को यह सब शुभ लक्षण लगे.
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वह सहस्त्रदल कमल के फूल को देखकर मन-ही-मन फूला नहीं समा रहा था. वह उस फूल को लेकर राजमहल की ओर चल पड़ा. वह मनचाहे पुरस्कार की कामना में डूबा हुआ था. राजमहल पहुंचकर उसने राजा को समाचार भिजवाया. वह विचारमग्न था कि अभी उसे राजा बुलाएंगे. राजा इस सुंदर पुष्प को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो उठेंगे. अच्छे मूल्य की अभिलाषा में वह यत्नपूर्वक उस पुष्प को पकड़े हुए उसे प्रेमपूर्वक निहार रहा था.
राजमहल के बाहर खड़ा वह राजा द्वारा बुलाए जाने की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि तभी राजपथ पर जाता हुआ एक सभ्य पुरुष कमल के फूल की सुंदरता पर मुग्ध होकर सुदास के पास आकर पूछने लगा,“फूल बेचोगे?’’
“मैं तो यह फूल राजा जी के चरणों में अर्पित करना चाहता हूं.” सुदास यह उत्तर देकर चुप हो गया.
“तुम यह फूल राजा जी को देना चाहते हो, किंतु मैं तो यह फूल राजाओं के भी राजा जी के चरणों में अर्पित करना चाहता हूं. भगवान तथागत यहां पधारे हैं. बोलो, तुम इसका क्या दाम लेना चाहते हो?”
“मैं चाहता हूं कि मुझे इसके बदले एक माशा स्वर्ण मिल जाए.”
उस पुरुष ने तत्काल यह मूल्य स्वीकार कर लिया.
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तभी शहनाइयां बज उठीं. मंगल बाद्य बज उठे. सुंदर थाल सजाए हुए सुंदर युवतियों का झुंड उधर ही चला आ रहा था. राजा प्रसेनजीत पैदल ही भगवान बुद्ध के दर्शनों के लिए जा रहे थे. नगर के बाहरी भाग में वे विराजमान थे. सुदास के पास कमल का फूल देखकर वे प्रसन्न हो उठे. इस प्रचंड शीत में फूल कहीं ढूंढ़ने से भी नहीं मिल रहे थे. ऐसे में इतने सुंदर पुष्प को देखकर उनका मोहित होना स्वाभाविक ही था. उनकी पूजा की थाली में पुष्प की ही कमी थी.
राजा जी ने सुदास से पूछा,“इस फूल का क्या मूल्य लोगे?”
सुदास बोला,“ महाराज, फूल तो यह सज्जन ले चुके हैं.”
“कितने में?’’
“एक माशा स्वर्ण में.’’
“मैं तुम्हें इस पुष्प के बदले दस माशा स्वर्ण दूंगा.’’
राजा जी की वंदना करके उन सज्जन ने कहा,“सुदास, मेरी तरफ़ से बीस माशे स्वर्ण ले लो.’’
राजा जी से निवेदन करते हुए वह सज्जन बोला,“महाराज, आप तथा मैं दोनों ही तथागत के चरणों में यह पुष्प अर्पित करना चाहते हैं. इसलिए आप और मैं इस समय राजा या प्रजा न होकर दो भक्तों की तरह ही व्यवहार करें तो ज़्यादा उचित रहेगा. भगवान की दृष्टि में सभी भक्त एक समान होते हैं.’’
मधुर वाणी में राजा प्रसेनजीत ने कहा,“भक्तजन, मैं आपकी बात सुनकर प्रसन्न हुआ. आप इस पुष्प के लिए बीस माशा दे रहे हैं, तो मैं इसका मूल्य चालीस माशा स्वर्ण देने के लिए तैयार हूं.’’
‘‘तो मेरे…’’
भक्त के वाक्य पूरा करने से पहले ही सुदास बोल पड़ा,“हे राजन् एवं भक्तजन, आप दोनों ही मुझे क्षमा करें. मुझे यह पुष्प नहीं बेचना है.” इतना कह कर वह यहां से चल पड़ा. वे दोनों आश्चर्यपूर्वक उसे देखते रह गए.
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सुदास पुष्प लेकर गौतम बुद्ध के स्थान की ओर चल पड़ा. वह सोच रहा था कि जिस बुद्ध देव को देने के लिए यह दोनों इस पुष्प की इतनी क़ीमत देने को तैयार हैं, यदि मैं स्वयं ही उन्हें यह पुष्प अर्पित करूं, तो मुझे और अधिक धन की प्राप्ति होगी.
वह महात्मा बुद्ध के स्थान की ओर चल पड़ा. उसने देखा कि एक वट वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध ध्यानमग्न पद्मासन्न अवस्था में बैठे थे. उनके मुख पर एक अद्भुत आभा थी, चेहरे पर अद्भुत तेज था, ओठों पर हास्य की स्मित रेखा थी. पूरा व्यक्तित्व एक अनूठा प्रभाव लिए हुए था.
सुदास उन्हें देखकर अपने होशो-हवास भूलकर आदरपूर्वक निर्निमेष भाव से उन्हें निहारने लगा. आगे बढ़कर उसने आदरपूर्वक उनके चरणों में वह फूल अर्पित कर दिया. उसका तन-मन एक अलौकिक सुख का अनुभव कर रहा था.
महात्मा बुद्ध ने उससे प्रश्न किया,‘‘हे वत्स! क्या चाहिए? आपकी क्या इच्छा है?’’
सुदास मधुर स्वर में बोला,‘‘कुछ नहीं, बस आपका आशीर्वाद चाहिए.’’
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