हिंदी साहित्य के चार स्तंभ सुमित्रानंदन पंत, जय शंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहलाते हैं. हिंदी साहित्य में अपना अमिट योगदान देने वाले इन चारों स्तंभ के बीच भाषा और साहित्य के रिश्ते के अलावा एक और रिश्ता था और यह रिश्ता था भाई-बहन के प्रेम का रिश्ता. जिसके बारे में हमें बता रही हैं सर्जना चतुर्वेदी.
केवल रक्षाबंधन ही नहीं, भाई दूज भी वह पावन पर्व है जिसका भाई-बहन के रिश्ते से बड़ा गहरा नाता है. रक्षाबंधन के दौरान रेशम की कच्ची डोर भाई-बहन के स्नेह पर जो कुछ कहती है, वही बाद दूज का टीका भी बयां कर जाता है… भाव को समझने का प्रयास किया जाए तो दोनों में वही भाव है. इन त्यौहारों में भाई के प्रति बहन का स्नेह दिखाता है तो बहन के प्रति भाई के मन में भरा प्यार, कर्तव्य और परवाह के रूप में नजर आता है. बचपन में छोटी-छोटी बातों पर भाई-बहनों के बीच तकरार होती है और फिर शाम तक वे संग-संग नज़र आते हैं. वाकई इस रिश्ते की महक हमेशा यूं ही बनी रहे तो कितना अच्छा लगता है.
कितना अलग होता है यह रिश्ता
हर नाते से जुदा रहता है
नि: स्वार्थ प्रेम इसमें होता है
बिना तकरार के अधूरा सा लगता है
कभी गुस्सा कभी शरारत तो कभी प्यार
कभी सारी दुनिया इस रिश्ते में सिमटी लगती है
कितना अजीब होता है यह रिश्ता
यह कहलाता है भाई-बहन का रिश्ता
हिंदी साहित्य के चार स्तंभ सुमित्रानंदन पंत, जय शंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहलाते हैं. हिंदी साहित्य में अपना अमिट योगदान देने वाले इन चारों स्तंभ के बीच भाषा और साहित्य के रिश्ते के अलावा एक और रिश्ता था, यह चारों एक-दूजे से राखी के बंधन में बंधे हुए थे यानी भाई-बहन थे. हिंदी साहित्य की मीरा कहलाने वाली डॉ महादेवी वर्मा से राखी बंधवाने वालों में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत थे. बताया जाता है कि निराला, जयशंकर प्रसाद और सुमित्रा नंदन पंत देश के किसी भी हिस्से में रहें, लेकिन वह रक्षा बंधन पर महादेवी वर्मा से राखी बंधवाने ज़रूर पहुंच जाते थे.
हिंदी साहित्यकारों पर संस्मरण से जुड़ी पुस्तक याद आते हैं में आधुनिक मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा के बारे में लेखक राजशेखर व्यास ने लिखा है- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला उनकी श्रद्धा, आदर और स्नेह के पात्र सदैव बने रहे. ब्रिटेन की प्रधामंत्री मार्गरेट थैचर के हाथों जब श्रीमती महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो संयोगवश भारतीय दूरदर्शन की तरफ़ से मुझे साक्षात्कार लेने का अवसर मिला था. उनसे परिचय पुराना था. अत: स्मरण कराते हुए पूछ बैठा, ‘‘दीदी ज्ञानपीठ पुरस्कार पाकर कैसा लग रहा है? क्या करेंगी आप एक लाख का?’’ तीर तो छूट चुका था. मुझे मालूम भी नहीं था कि मेरे इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न का उन पर क्या असर होगा? वे एकदम से भावुक हो आईं और हृदय भर आया, आंखें डबडबा रहीं थी. कहने लगीं क्या करूंगी, ‘‘अब इस पुरस्कार का? अब ये कोई उम्र तो रही नहीं कि साड़ी, चूड़ी या शृंगार-पटार करूं या ऐश्वर्य वैभव के सामान खरीदूं. दु: ख तो इसी बात का है कि अगर ये पुरस्कार पहले मिल गया होता तो भाई को यूं मरने न देती. बगैर इलाज और दवाई के भाई यूं चले गए.’’ कहते-कहते वे फफक पड़ीं और मैं सकते में आ गया. दिल को छू लेने वाला प्रसंग आ गया था कैमरा ऑफ़ करवाया और रिकॉर्डिंग रोकी गई.
हमें कौन राखी बांधेगी: हिंदी साहित्य की मीरा महादेवी वर्मा ने अपनी किताब पथ के साथी में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के जीवन पर संस्मरणात्मक आलेख निराला भाई/जो रेखाएँ न कह सकेंगी में लिखा है कि, एक युग बीत जाने पर भी मेरी स्मृति से एक घटाभरी अश्रुमुखी सावनी पूर्णिमा की रेखाएं नहीं मिट सकी हैं. उन रेखाओं के उजले रंग न जाने किस व्यथा से गीले हैं कि अब तक सूख भी नहीं पाए- उड़ना तो दूर की बात है. उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निराला जी से पूछ बैठी थी, “आपको किसी ने राखी नहीं बांधी?” अवश्य ही उस समय मेरे सामने उनकी बंधन-शून्य कलाई और पीले, कच्चे सूत की ढेरों राखियां लेकर घूमने वाले यजमान-खोजियों का चित्र था. पर अपने प्रश्न के उत्तर में मिले प्रश्न ने मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया. ‘कौन बहन हम जैसे भुक्खड़ को भाई बनावेगी?’ में, उत्तर देने वाले के एकाकी जीवन की व्यथा थी या चुनौती यह कहना कठिन है. पर जान पड़ता है किसी अव्यक्त चुनौती के आभास ने ही मुझे उस हाथ के अभिषेक की प्रेरणा दी, जिसने दिव्य वर्ण-गंध-मधु वाले गीत-सुमनों से भारती की अर्चना भी की है और बर्तन माँजने, पानी भरने जैसी कठिन श्रम-साधना से उत्पन्न स्वेद-बिंदुओं से मिट्टी का शृंगार भी किया है. मेरा प्रयास किसी जीवंत बवंडर को कच्चे सूत में बांधने जैसा था या किसी उच्छल महानद को मोम के तटों में सीमित करने के समान, यह सोचने विचारने का तब अवकाश नहीं था. पर आने वाले वर्ष निराला जी के संघर्ष के ही नहीं, मेरी परीक्षा के भी रहे हैं. मैं किस सीमा तक सफल हो सकी, यह मुझे ज्ञात नहीं, पर लौकिक दृष्टि से नि: स्व निराला हृदय की निधियों में सब से समृद्ध भाई हैं, यह स्वीकार करने में मुझे द्विविधा नहीं. उन्होंने अपने सहज विश्वास से मेरे कच्चे सूत के बंधन को जो दृढ़ता और दीप्ति दी है वह अन्यत्र दुर्लभ रहेगी.
महादेवी और निराला चूंकि दोनों ही इलाहाबाद में रहते थे और उम्र में महादेवी जी से बड़े भले थे लेकिन महादेवी को वह दीदी ही संबोधित करते थे, तो अपनी दीदी से हक से पैसे भी मांग लिया करते थे. एक बार रक्षाबंधन के दिन सुबह-सुबह अपनी दीदी के घर पहुंचे और आवाज़ दी, ‘‘दीदी, ओ दीदी ज़रा जल्दी आओ, मुझे 12 रुपए देना तो.’’
‘‘किस बात के भैया?’’
‘’अरे, ये दुई रुपए रिक्शेवाले को देना है.’’
‘‘मगर फिर ये 12 रुपए क्यों?’’
निराला और सहजता से बोले, ‘’यह 2 रुपए तो रिक्शेवाले को और 10 रुपए तुम्हें जो देना है. आज रक्षाबंधन है न, राखी बंधाई के.’’
दोनों एक-दूजे को बांधते थे राखी: महादेवी राखी को रक्षा का नहीं स्नेह का प्रतीक मानती थीं. सुमित्रानंदन पंत को भी राखी बांधती थीं और सुमित्रानंदन पंत उन्हें राखी बांधते थे. कुमाऊं विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ के अनुसार, ज़माने के साथ-साथ रक्षा बंधन मनाने के तौर-तरीकों में भी बदलाव आया है. अब रिश्ते की प्रगाढ़ता पर कम और दिखावे पर ज़्यादा ज़ोर है. साहित्य जगत में महादेवी जैसी स्नेहमई दीदी की कमी आज भी खल रही है. रक्षा बंधन पर सुमित्रा नंदन पंत और महादेवी वर्मा ने एक-दूसरे को राखी बांधकर साहित्य जगत में स्त्री-पुरुष बराबरी की नई प्रथा शुरू की थी. महादेवी के इसी स्नेहपूर्ण व्यवहार के चलते ही उन्हें ‘आधुनिक काल की मीराबाई’ कहा जाता है. कवि निराला ने उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती’ की उपाधि दी थी.
फ़ोटो साभार: पिंटरेस्ट