किसी को दिल की गहन परतों से चाहना और उसके बाद उसकी प्राथमिकताओं में ख़ुद को कहीं न देख पाना, दिल ही नहीं तोड़ता, बल्कि जीने की इच्छा भी ख़त्म कर देता है. लेकिन ऐसा कुछ न करके ज़िंदगी को अपने परिजनों के साथ जीने का चुनाव करना चाहिए. इस जीवन के कई रंग हैं, जो हमें समय-समय पर देखने मिलते हैं और हां, अंधेरे से गुज़रकर ही तो रौशनी की राहें निकलती हैं. यही बात बयां करती है यह कहानी.
मैं पूजा. आज आपको एक अपने आपबीती सुनाती हूं, जिसका मकसद आप ख़ुद ब ख़ुद समझ जाएंगे. यूं तो हम सभी की ज़िंदगी में एक न एक लम्हा ऐसा आता है जब ज़िंदगी बहुत कुछ सिखा कर चली जाती है. आपने न जाने कितने लोगों से यह कहावत सुनी होगी कि मेरे बाल धूप में ही सफ़ेद नहीं हुए हैं यानी अनुभवों से सफ़ेद हुए हैं. बस, इसी तर्ज़ पर आपसे कुछ कहने जा रही हूं.
मुझे हमेशा पर्वतों को देखकर एक अजीब सा आकर्षण होता था. मुझे वह दार्जिलिंग की वो वादियां आज भी याद हैं, जहां से मेरे जीवन में एक नया बदलाव आया. औरों का तो नहीं पता, लेकिन मुझे तो उन पहाड़ों को देखकर हमेशा ऐसा लगा जैसे वह मुझे बाहें फैलाकर अपनी ओर बुला रहे हों. मैं हमेशा पहाड़ों को देखती और सोचती कि ऐसा क्या है इनमें? इतने विशाल कि जैसे यह सब कुछ अपने अंदर समा लेंगे और ऐसा लगता था जैसे ये पहाड़ ही मेरी हर चीज़ से रक्षा कर रहे हों.
इसी बीच मेरी मुलाकात एक लड़की से हुई जो आगे जाकर मेरी सलाहकार बनी. उसका नाम था सुधा. हालांकि उम्र में वह मुझसे बड़ी थी और मैं भी उसे अपनी बड़ी बहन का दर्जा देती थी. पर मुझे क्या पता था कि आगे जाकर कुछ ऐसा होगा कि मैं उससे कभी बात ही ना कर पाऊंगी.
सुधा का एक दोस्त था प्रदीप. उसने कई बार मुझे प्रदीप से मिलाने की कोशिश की. पता नहीं क्या सोच कर वह मुझे उससे दोस्ती करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करती और फिर तो सिलसिला चलता रहा कभी किसी बहाने और कभी किसी बहाने. एक बार हम तीन लोग घूमने भी गए, वह भी पहाड़ों पर. आज मुझे ऐसा लगता है कि यह भी मुझे उसकी ओर आकर्षित करवाने का बहान ही था. उस दिन जब भी मैं लड़खड़ाई, तब-तब प्रदीप ने मुझे सहारा दिया. यह भी सच है कि इससे मैं उसकी ओर थोड़ा-बहुत आकर्षित हुई भी, लेकिन मुझे यह पता था कि इससे ज़्यादा आगे बढ़ना अच्छा नहीं है और थैंक यू बोल कर मैं आगे चल पड़ी.
कुछ समय बाद सुधा के पापा का ट्रांस्फ़र हो गया और वह वहां से चली गई, पर मेरी हर दो-तीन महीने के अंतराल पर प्रदीप से मुलाकात होती रही. एक आम लड़की की तरह मेरा भी मन करता था कि मेरा भी कोई साथी हो, जिससे मैं प्रेमिल संवाद कर सकूं. लेकिन मेरा अहम् यह भी गवारा नहीं करता था कि मैं किसी के बहुत ज़्यादा करीब जाऊं. तब शायद इन बातों से मुझे बहुत फ़र्क पड़ता था कि कोई मेरे बारे में क्या सोचता है.
कभी-कभी उन पर्वतों को देखकर जाने क्यों प्रदीप की याद आती थी शायद कोई ख़्वाहिश थी कि जैसे मेरी सभी सहेलियों के दोस्त हैं, वैसे मेरा भी कोई हो. उन दिनों मोबाइल वगैरह का इस्तेमाल ज़्यादा नहीं था तो वॉट्सऐप और वीडियो कॉल जैसी चीज़ होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. यहां तक कि किसी को भी कॉल करने पर बहुत पैसे लगते थे और बिल जो आता था वह जाता था डायरेक्ट पापा के पास, क्योंकि बिल बहुत ज़्यादा आता था तो मैंने वहीं का एक नंबर लिया और वहीं से सिलसिला चालू हुआ बातों का. प्रदीप से बात करना मुझे बहुत अच्छा लगता था. उसका भी फ़ोन आने लगा कभी लैंडलाइन पर और कभी मोबाइल पर. सोचती थी कि यह सब तो शायद दोस्ती है, पर मुझे यह कहीं न कहीं पता था कि मैं दोस्ती से कुछ आगे बढ़ गई थी .
सालभर बाद बातों का सिलसिला बहुत ज़्यादा बढ़ गया. लगभग पूरे दिन हम फ़ोन पर लगे रहते थे बहुत सारी बातें करते थे. आज सोचती हूं तो लगता है न जाने क्या बातें करती थी मैं और हमेशा ख़ुश रहती थी. याद है मुझे कि रात भर नींद न भी पूरी हो, लेकिन फिर भी सारा जोश था काम करने का. रोज़ सुबह ऑफ़िस जाना ऑफ़िस जाने से पहले बात करना, ऑफ़िस में काम करके आने के बाद फिर से बात करना, फिर रात में फिर बात करना देर देर रात तक. कभी-कभी तो सुबह 4:00 बजे तक भी बात किया करती थी. हालांकि मुझे याद नहीं कि मैं क्या बात करती थी, पर यह जानती हूं कि उसे मुझसे बात करना और मुझे उससे बात करना बहुत अच्छा लगता था.
कभी-कभी मुझे डर भी लगता था कि कहीं मैं कुछ गलत तो नहीं कर रही और इस रिश्ते का क्या भविष्य क्या होगा. और हां, यह भी लगता था कि कोई मुझे धोखा तो नहीं दे रहा है या मेरा फ़ायदा तो नहीं उठा रहा मैं कोशिश करती थी बातों को संतुलित रखने की. कभी आशा, कभी बहुत सारा डर, कभी खुशी और कभी प्यार बस इसी सब के बीच झूल रही थी.
फिर वह समय भी आया कि मैं समझ गई कि अब मैं प्रदीप को दोस्त से ज़्यादा कुछ समझने लगी हूं और अब दोस्ती ज़्यादा दिन चल नहीं पाएगी, क्योंकि यह तो मुझे मालूम था कि दोस्त क्या थे और प्रदीप क्या था मेरे लिए. मैंने अपने घर पर सब को बताया और सलाह ली. एक दिन बहुत हिम्मत जुटाकर मैंने कह भी दिया प्रदीप से कि इस रिश्ते को हम आगे तभी बढ़ाएंगे जब यह शादी तक जाएगा नहीं तो हम यही बात करना बंद कर देते हैं. बुरा लगा था मुझे, लेकिन फिर भी वह समय ठीक था. थोड़े समय, कुछ दिन बुरा लगता और सब ठीक हो जाता, पर प्रदीप नहीं माना उसने मेरे ऑफ़िस में कॉल किया मेरे साथ काम करने वालों से मेरे बारे में पूछा. मैंने तीन-चार दिन बात नहीं की और सोचती रही कि मैंने जो निर्णय लिया है वह एकदम ठीक है, क्योंकि मैं उन लड़कियों में नहीं थी, जो बहुत ज़्यादा दोस्ती-यारी में पड़ी रहें.
मैंने प्रदीप से साफ़-साफ़ बात कर ली थी, पर बार-बार उसका फ़ोन ऑफ़िस में आ रहा था तो मेरी एक सहेली ने कहा, ‘तुम उससे बात कर लो वरना रोज़-रोज़ फ़ोन आता रहता है और ऑफ़िस में अच्छा नहीं लगता.‘
हारकर मैंने फ़ोन कर ही लिया और उसे फिर समझाया कि मुझे कोई भी कन्फ़्यूज़न नहीं है और अगर तुम्हें है तो तुम देख लो. मुझे लगा शायद मुझे प्रदीप को थोड़ा टाइम देना चाहिए. उन्हीं दिनों मैंने लाइब्रेरी में एक किताब देखी और उसे पढ़ा भी था- मेन आर फ्रॉम मार्स ऐंड विमेन आर फ्रॉम वीनस. उसे पढ़कर संदर्भ निकाला कि शायद प्रदीप को मैं भी पसंद हूं, पर वह निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा है.
फिर हमारी बातचीत का सिलसिला जारी रहा. पता नहीं मैं एक आशा के साथ आगे बढ़ चली थी. अपनी मां और पिताजी को कह दिया कि देखते हैं थोड़ा और समय. इधर पापा मेरे लिए रिश्ते ढूंढ़ रहे थे और मैं ना करती रही कभी किसी वजह से और कभी किसी वजह से. एक दिन प्रदीप ने मुझसे कहा कि वह किसी काम से आगरा जाना चाहता है और वह मेरे घर भी आएगा. मैंने छुट्टियां ली और मैं घर चली गई और इस बात से मैंने अपने माता-पिता को भी अवगत करा दिया. उन्होंने कहा- ठीक है आने दो बात करते हैं. प्रदीप जब घर आया तो उसने मेरे माता-पिता से यह कहा कि मैं उसको पसंद हूं, पर एक दोस्त की तरह.
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर यह दोस्ती क्या है? मेरी मां, जो मेरी बहुत अच्छी सहेली भी हैं, उन्होंने उसने प्रदीप के साथ मुझे बाहर भेजा. कहा- थोड़ा समय उसके साथ बिताओ और उसे आगरा घुमा के लाओ. हम साथ घूमे और पहली बार एक दूसरे को आमने-सामने परखा. हम दो-तीन दिन आगरा घूम कर अपनी अपनी जगह वापस आ गए और ऑफ़िस जॉइन कर लिया. फिर से 6 महीने तक हमारी बातचीत चलती रही. इस बार जब छुट्टी पर घर जा रही थी तो प्रदीप ने मुझसे कहा कि मैं उसके घर गुजरात होकर आऊं. पहले तो यह बात मुझे बहुत अजीब लगी, क्योंकि अभी तक अपने मां-बाप से मैंने कुछ छुपाया नहीं था पर यह बात कैसे कहूं? मेरी मां तो मुझे बचपन में भी अपने दोस्त के घर भी रहने नहीं जाने देती थीं, यहां तो यह कुछ नया ही था.
पता नहीं कैसे इतनी हिम्मत आ गई थी मुझमें कि मैं प्रदीप की बात मान जाऊं. उसनेन मुझे इस तरीके से मनाया कि मैं गुजरात चली गई. वहां पर उसकी मम्मी ने मुझे रिसीव किया. बहुत अजीब लग रहा था समझ नहीं आ रहा था कि क्या सही किया या गलत. सबसे पहले उसके घर बाथरूम में जाकर मैं बहुत रोई. लग रहा था जैसे मैंने अपने मां-बाप का विश्वास तोड़ा है, क्या होगा जब उन्हें पता चलेगा कि उनकी बेटी उनसे छुपा कर कहीं गई है. प्रदीप अपनी मां को सब बताता रहा कि मुझे क्या क्या पसंद है. मां से कहता रहा- इसको वहां ले जाओ, इसको यहां घुमा दो और यह खिला दो. मैंने उसका पूरा शहर देख लिया. फिर जब मैं आगरा पहुंची तो पापा मुझे लेने आए थे. उन्होंने जब यह बताया कि आज प्रदीप के पापा का फ़ोन आया था. वह पूछ रहे थे कि तुम आगरा पहुंची या नहीं? ऐसा लगा जैसे मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया हो. पापा ने मुझे समझ लिया और बोले कि बेटा रिश्ते तोड़ना बहुत आसान होता है और उन्हें निभाना बहुत मुश्किल. इसमें कोई हर्ज नहीं, अगर तुम प्रदीप के घर गई थीं. कोई भी इंसान अपनी तरफ़ से प्रयास ही करता है रिश्तों को बढ़ाने के लिए. यह जवाब सुनकर मेरी सांस में सांस आई. अब तो मैंने हमेशा के लिए मन बना लिया था कि मैं अपने मां-बाप की इज़्ज़त पर कोई आंच नहीं आने दूंगी.
पापा-मम्मी ने पूछा कि क्या वह प्रदीप के घर वालों से बात करें तो मैंने न जाने क्या सोचकर मना कर दिया, कहा- अभी रुक जाओ. उन्हें भी बहुत चिंता थी मेरी, क्योंकि उनके मुताबिक शादी की उम्र निकलती जा रही थी मेरी और शादी कहीं तय नहीं हो रही थी. माता-पिता का दिल तो देखो कि उन्होंने मेरे लिए और मेरी खुशी के लिए यह स्वीकार कर लिया कि वह प्रदीप के मां-बाप से जाकर गुजरात में मिलेंगे.
दार्जिलिंग वापस आकर मैंने प्रदीप को इस बारे में बताया, पर प्रदीप का जवाब सुनकर मेरी सारी आशाएं नष्ट हो गई और उम्मीदों पर पानी फिर गया. उसने कहा- ऐसा नहीं करो, क्योंकि मेरे खानदान में मैं सबसे बड़ा हूं, अगर मैंने ऐसा किया तो मेरे मां-बाप की नाक कट जाएगी.
भला यह कौन सा तर्क था? जब मैंने मना किया तो उसने मुझे ख़ुद से दूर जाने नहीं दिया. मुझे वे दिन याद आए, जब मैं प्रदीप का फ़ोन नहीं उठाती थी तो वह मुझे 80-90 बार भी कॉल कर लेता था. और तो और, प्रदीप एक गुरु को मानता था अपने गुरु को भी उसने मेरी फ़ोटो भेजी थी. इतना सब होने के बाद भी वह मेरे लिए कुछ कर क्यों नहीं पा रहा था? उसने अपने भाई से भी मुझे मिलवाया था, जो कि दार्जिलिंग में ही पढ़ रहा था.
इतना कुछ होने के बाद, जब उसने मुझे यह बताया कि उसके पिताजी ने उससे कहा है कि पूजा बहुत अच्छी लड़की है और उसको एकदम से मना मत करना, बल्कि धीरे-धीरे बात करना छोड़ देना. यह सुनकर मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई. मैंने उसी दिन सबसे पहले फ़ोन नंबर ब्लॉक किया डिलीट किया. ठान लिया कि मुझे अपनी ज़िंदगी में यह सब भूल कर आगे बढ़ जाना है.
बुरा तो बहुत लगता था ऐसा लगता था जैसे यह क्या हो गया मेरे साथ. कभी-कभी दिल में आया कि अपनी ज़िंदगी का अंत कर लूं. जब यह बात मैंने अपनी मां को बताई तो वह बोलीं- ठीक है, जो तेरी इच्छा है कर ले, लेकिन याद रखना किसी को कोई फ़र्क पड़े न पड़े, पर तेरे घर वालों को सबसे ज़्यादा पड़ेगा सच ही कहा है किसी ने अगर आपका परिवार साथ हो तो हर मुश्किल से आप निकल सकते हो. उसी दिन से बस परिवार का हाथ थामा और बाकी सब छोड़ दिया.
तीन महीने बाद मन बहुत विचलित हुआ और प्रदीप से बात करने का मन हुआ तो मैंने जैसे-तैसे नंबर किसी से ढूंढ़कर निकलवाया तो पता चला कि प्रदीप की शादी होने वाली है. मन तो किया कि शादी में जाकर सामने खड़ी हो जाऊं और पूछूं कि मुझे किस चीज़ की सज़ा दी गई है?
उस दिन काम नहीं हो पाया मुझसे और मैंने ऑफ़िस से छुट्टी ले ली, झूठ बोलकर कि मेरे घर में किसी की डेथ हो गई है. मन परेशान था, शरीर अंदर से टूट रहा था और बुखार जैसा लग रहा था. मैं टूटकर बिखर ही गई थी. ऐसा क्या था जो मेरी कमी बनकर इस रिश्ते में खड़ा हो गया? अपनी मां को फ़ोन किया मैंने और पूछा कि मां मेरी क्या गलती है, मैंने तो अपना 100% उस रिश्ते को दिया सही और गलत हर चीज पहले से ही बता रखी थी. मां ने मुझसे कहा- तुम सही हो पूजा और वो गलत है. मां की इस बात ने मेरे भीतर जैसे आत्मबल फूंक दिया और मैं फिर उठ खड़ी हुई ज़िंदगी का सामना करने के लिए.
सही कहा है किसी ने कि ज़िंदगी जीने का नाम है, लोग आते हैं और चले जाते हैं, पर सीख देकर जाते हैं. बहुत समय तक मैं माफ़ नहीं कर पाई प्रदीप को. पर कहते हैं न कि समय बहुत बलवान है समय के साथ-साथ सब फीका पड़ जाता है. मैंने भी समय के साथ जीवन को समझा तब यही लगा यह सब एक ड्रामा है, जो हम सब खेल रहे हैं और शायद प्रदीप का मेरे जीवन में उतना ही रोल था.
यह ठोकर खाने के बाद काफ़ी समझदार हो गई थी मैं और दूसरों को भी प्रेरणा देने लगी कि जीवन किसी के पीछे नहीं सबसे आगे निकल जाने का नाम है, हर मुश्किल का सामना करके कुछ न कुछ सीख ज़रूर मिलती है जो जीवन जीने में आगे के काम आती है. आज मैं पलट कर देती हूं तो आज कितने ही लोग छोटी उम्र मैं तकलीफ़ से गुज़र रहे हैं और उन्हें कोई संभाले वाला भी नहीं है. कुछ लोग सुसाइड कर लेते हैं और कुछ दिमागी संतुलन खो बैठते हैं. मैं उनसे यही कहना चाहूंगी कि जान है तो जहान है. ज़िंदगी इतनी भी बुरी नहीं कि किसी कि जाने से उसे ख़त्म कर दिया जाए.
जब कभी ऐसा लगे तो अपने माता-पिता के बारे में, अपने परिवार के बारे में सोच लो जो तुम्हारे बिना अधूरे हैं. माफ़ कर देने में ही भलाई है शायद… क्योंकि कितना बोझ रखे इंसान अपने दिल पर. अरे, जाने दो जिसको जहां जाना है. सोच लो हमारी मंज़िलें अलग थीं और आगे हमारे लिए बहुत कुछ है. आज मेरी शादी हो चुकी है, दो बच्चे हैं. हंसता खेलता परिवार है. कभी-कभी सोचती हूं कि जो आज मेरा जीवनसाथी है उससे बेहतर कोई भी नहीं. उसके आने के बाद मुझे किसी चीज़ का डर नहीं, कोई परेशानी नहीं क्योंकि मुझे पता है कि मेरे पीछे मुझे संभालने के लिए कोई है. सच में, जोड़ियां तो ऊपर से तय होकर आती हैं और जो होता है वह अच्छा होता है, क्योंकि जो होता है वही सही है और जो नहीं हुआ वह हमारे लिए था ही नहीं.
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट