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दिवाली की सफ़ाई: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
November 10, 2023
in नई कहानियां, बुक क्लब
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दिवाली की सफ़ाई: डॉ संगीता झा की कहानी
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त्यौहारों की सफ़ाई कई बार हमारे मन की सफ़ाई भी कर जाती है. डॉ संगीता झा की यह कहानी बड़े दिलचस्प अंदाज़ में एक कपल की ज़िंदगी में दिवाली की सफ़ाई के बाद आई ख़ुशहाली की दास्तां सुनाती है.

दिवाली आने वाली है और सभी बड़े व्यस्त हैं. कोई बात करने को भी तैयार नहीं है. बड़े दिनों बाद एक कज़िन को फ़ोन किया उसने कहा,“जिज्जी जल्दी बात ख़त्म करो. बिलकुल समय नहीं है. दिवाली की सफ़ाई चल रही है.” मैंने भी झल्ला कर फ़ोन पटक दिया. ये भी कोई बात हुई सारा साल कचरे से खेलते रहो और दिवाली पास आते ही लग जाओ अपने ही घर की सफ़ाई में. मुझे सफ़ाई का पागलपन है इसलिए मुझे सफ़ाई के लिए दिवाली का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं रहती. ख़ैर पति भी मुझे ऐसे मिले है जिनमे गांधी जी के तीनो बंदरों की आत्मा घुसी हुई है बस फ़र्क़ इतना है कि ये अच्छा भी नही देखते ना बोलते बस हम तो चुप्पे चाप वाला ऐटिट्युड अपनाए रहते हैं. घर और इनके सारे पैसों की मालकिन मैं ही हूं. ये बस अपनी रीसर्च और अपनी पुस्तकों में सर घुसाए रहते हैं, पेशे से वैज्ञानिक जो ठहरे. इसलिए मेरे लिए भी सफ़ाई अपने आप को मसरूफ़ रखने का एक ज़रिया है. ख़ैर सोचा इस दिवाली मैं भी सफ़ाई में लग जाती हूं. सुबह-सुबह ही कुक से खाना जल्दी बना ख़त्म कर सफ़ाई की बात की. कुक ने मुझे ऊपर से नीचे देखा और पूछा,“सफ़ाई? कहां की?”
मैंने भी जवाब दिया,“ज़ाहिर है घर की.”
कुक हंसने लगी,“अब अगर सफ़ाई की तो घर का फ़र्श ही उखड़ जाएगा. दीवालों का डिसटेम्पर निकल जाएगा. अलमारियों की सफ़ाई तो आप रोज़ ही कराती हैं.”
मैं भी सोचने लगी कि कोई तो जगह होगी जहां सफ़ाई की जा सकती है. मैंने ग़ुस्से से दोनों हेल्पर को डांटा,“ठीक है, तुम लोग अपना काम करो, मैं ही देखती हूं.”
दोनों साड़ी का पल्लू मुंह में ले हंसने की ऐक्टिंग करने लगीं. पर मैं कहां हार मानने वाली थी. अचानक अंधे को बटेर मिल गयी की तरह मुझे भी सफ़ाई की एक जगह मिल गयी जो थी पति की टेबल और उनकी किताबों की आलमारी जो वो कभी छूने ही नहीं देते थे, मानो कारो का ख़ज़ाना रखे हुए हों.
उसके बाद मैं तत्परता से अपने अभियान में जुट गयी. सबसे पहले किताबें जो मैं शादी के बीस सालों बाद पहली बार छू रही थी. पता नहीं आलमारी साफ़ करने के नाम से ही बेज़ुबान पति चिल्लाने लगते थे. ख़ैर मैंने भी ठान लिया था कि जहां की चीज़ वहीं रख दूंगी. अभी तीन किताबें ही खोली कि एक गुलाबी लिफ़ाफ़ा मेरी गोद में गिरा जो बहुत सारे काग़ज़ों से भरा था. उत्सुकतावश खोलने पर पाया अंदर चिट्ठियों की भरमार थी. मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी अपनी पत्नी और बच्चों से गज भर दूरी बनाए रखने वाले इस मिट्टी के माधव को कौन पत्र लिखता होगा. हां मिट्टी का माधव यही तो मेरी सखियां उन्हें कहती थीं जो अपने पतियों की हर तरह की फ़रमाइशों से परेशान थीं. भाभी ने भी एक बार कहा था,“लकी हो सीमा तुम अनिमेष तो बिलकुल अल्ला की गाय हैं. अपने भैय्या को ही लो हर समय सर पर चढ़े रहते हैं. पाई पाई का हिसाब भी मांगते हैं. तुम ख़ुद को देखो, एक से एक महंगी साड़ियां और गहने, कभी भी जमाई ने रोका?”
मैं किस मुंह से कहती मैं कितनी भी बन संवर जाऊं कभी अनिमेष ने मुझे देखा ही नहीं. मेरा आईना ही मेरा प्रियतम है, जो मेरे चेहरे पर हंसी लाता है. पति की डिपार्टमेंटल पार्टी में इनके सहयोगी मुझे कई बार ललचाई नज़रों से देखते हैं. कईयों ने तो इनके मुंह पर ही मेरी तारीफ़ की, पर क्या मजाल चेहरे पर शिकन भी आई हो कि ‘मेरी बीबी सिर्फ़ मेरी है’. मुझे ही पर पुरुषों की प्रशंसा से घबराहट होने लगती थी क्योंकि संस्कारों में था कि शादी के बाद पति छोड़ हर पुरुष पराया है और आंख उठा कर किसी पराए मर्द को देखना पाप है. घर गृहस्थी अच्छी चल रही थी, पति आंख उठा कर भी दूसरी स्त्रियों को क्या मुझे भी नहीं देखते, सारी की सारी तनख़्वाह घर बैठे मेरे हाथ में तो क़िससे शिकायत करती और क्या करती.
अब तो शादी के बीस बरस बीत गए. रिश्ता मेरी फुफेरी बहन निशा दी ने कराया था. उन्होंने इनकी खूब तारीफ़ की थी. निशा दी इनकी क्लासमेट थी और मुझसे पूरी आठ साल बड़ी और हम सबका आदर्श. उन्होंने माइक्रो बायोलोजी में एमएससी की थी. घर में सबसे बड़ी थीं, ख़ानदान की शान थीं. हम लोगों को बचपन से निशा दी का ही इग्ज़ाम्पल दिया जाता थी. दी ऑलराउंडर थी, पढ़ाई, खेल, पेंटिंग, सिंगिंग कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं था. ना केवल बुआ बल्कि सभी रिश्तेदारों के यहां निशा दी की बनाई पेंटिंग विद्यमान थी. गर्मी की छुट्टियों में हम सारे कज़िन एक जगह इकट्ठे होते थे, वहां भी निशा दी के लिए एक अलग कमरा होता था, जहां जाने से पहले हमें खटखटाना पड़ता था और अंदर से एक गम्भीर आवाज़ आती,“यस कम इन”. तब कहीं जा कर एंट्री मिलती थी. मैं सबसे छोटी थी और सबकी लाड़ली थी, ख़ासकर निशा दी की. बाक़ी सब दी से दो, तीन या चार साल ही छोटे थे और मैं पूरे पौने आठ.
फिर हमारी सर्वगुण सम्पन्न दी की आलीशान शादी एक डॉक्टर से हुई. दी के नाना-दादा दोनों ने ख़ूब धन लुटाया और लोगों ने भी ख़ूब आनंद लिया. बरसों तक इस शादी की चर्चा होती रही और इसलिए भी कि दी चार महीने बाद ससुराल से आयीं और फिर कभी गयीं ही नहीं. बाद में मुझे अम्मा से पता चला डॉक्टर साहेब ने अपनी नर्स को अपने साथ ही रखा था. दी जब आयीं तो गर्भवती थीं. सबने सोचा बच्चा होने के बाद शायद सब ठीक हो जाएगा. बेटी ईशा के जन्म पर डॉक्टर साहेब दी को लेने भी आए पर दी ने जाने से इनकार कर दिया. दी ने यूनिवर्सिटी में बतौर असिस्टेंट प्रोफ़ेसर ज्वाइन कर लिया और अब तो डीन बन गयी है. हमेशा कॉन्फ़्रेन्स के लिए देश विदेश जाती रहती है और बेटी भी अमेरिका में पढ़ रही है. अभी भी मैं अपनी बेटियों को निशा दी का ही उदाहरण देती रहती हूं.
मेरी शादी के बाद जब ऐसे उदासीन पति मिले तो अम्मा ने समझाया,“अरे वैज्ञानिक लोग ऐसे ही होते हैं. मां-बाप का अकेला बेटा है, बाप के पास भी ख़ूब पैसा है. कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. निशा का देखा भाला है. उस बेचारी की ज़िंदगी देख.”
मेरी हालत देख भाई ने हनीमून के कश्मीर के टिकिट गिफ़्ट लिए. वहां जाकर मैं ही इन पर बर्फ़ फेंकती रही. हर जगह मेरी सौतन एक पुस्तक ज़रूर हमारे साथ रही. मैं मन ही मन सोचती,‘कैसा आदमी है ये एक भी दोस्त नहीं.’ मैंने सोचा अपने घर वालों से कहूं कि मेरी और निशा दी की दुनिया में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं. लेकिन उन्हें दुःख ही पहुंचता. क्या हुआ अगर मुझे ‘मेरे अपने’ वाला विनोद खन्ना सा पति नहीं मिला. किसी के साथ पति बांटना तो नहीं पड़ रहा है.
एक लिफ़ाफ़े ने मेरी सोच को कहां-कहां दौड़ा दिया. बड़े दिनों बाद बीते कल की जुगाली हो गयी. अब बारी थी खुल जा सिम सिम की तरह लिफ़ाफ़ा खोलने की. पहला पत्र कुछ इस तरह था, पर आश्चर्य इस बात का था कि लिखाई बहुत पहचानी-पहचानी सी लग रही थी
“प्रियतम
तुम्हारा प्यार पाकर मैं धन्य हो गयी और एक दूसरी ही दुनिया में चली गई. तुम्हारे वादे, साथ खाई क़समें मुझे मजबूर करती हैं कि ये जीवन मैं तुम्हारे नाम कर दूं…

केवल तुम्हारी ही”

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मैं तो धक से रह गयी. समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या करूं? रोऊं, शिकायत करूं तो किससे? लाइन से ऐसे कई पत्र थे. सब पत्र पच्चीस साल पहले लिखे गए थे यानी हमारी शादी के भी पांच साल पहले. सोचा सब ऐसे ही प्रेम प्रदर्शन के होंगे. क्या फ़ायदा खुद को दुःख पहुंचाने का सो सारे पत्र पढ़ने का इरादा छोड़ दिया. अभी लिफ़ाफ़ा बड़े उदास मन से सहेज ही रही थी कि एक पत्र इनकी हैंड राइटिंग वाला नीचे गिरा. उसे खोलने पर वह इस प्रकार था

प्रिय निशा
तुम्हारी शादी हो गयी, तुम मुझे छोड़ कर भी चली गयी. प्यार को ठुकराने का निर्णय पूरी तरह से तुम्हारा था. अपने मां-बाप की ख़ुशी के लिए किसी अपने को ठुकराना कोई महान त्याग नहीं बल्कि मूर्खता थी. मैं उस दिन पूरी तरह से टूट गया था. कल ही तुम्हारे वैवाहिक जीवन की सच्चाई तुम्हारे ही एक कज़िन से पता चली. मैं आज भी दुनिया की रिवायतों को तोड़ तुम्हें अपनाने के लिए तैयार हूं आज तुम्हें ये शायद बहुत कठिन निर्णय लगे लेकिन समय के साथ लोगों की मान्यताएं भी बदलेंगी और आने वाली पीढ़ियों के लिए पुनर्विवाह बहुत ही सामान्य माना जाएगा…

उसके बाद ये पत्र अधूरा ही था. अब मुझे निशा दी की शादी सब याद आ रहा था. मेरी ही एक कज़िन ने बताया था कि दी किसी को पसंद करती थी लेकिन उनके पापा यानी हमारे फूफाजी अपनी इकलौती बेटी की शादी डॉक्टर से कराना चाहते थे. निशा दी ने फूफाजी की इच्छा के आगे घुटने टेक दिए. बेचारे…अनिमेष कितने उच्च विचार वाले जो उन्हें तब भी अपनाना चाहते थे पर शायद रुक गए और पत्र अधूरा छोड़ दिया. निशा दी का केवल लड़का बताना पर शादी पर ना आना, बेटी की तबियत ख़राब होने का बहाना बनाना. इन बीस सालों में मुझे सबसे ज़्यादा चाहने वाली निशा दी से मैं गिन कर चार बार ही मिल पाई, वो भी जब अकेली थी. हर बार अपनी रिसर्च का कुछ बहाना बना पति ने आने से मना कर दिया था. मुझे अब अनिमेष पर बड़ी दया आ रही थी और दी पर बड़ा गुस्सा. ऐसी भी क्या पित्रभक्ति की दूसरे को गांधी जी का बंदर बना दिया.
इस दिवाली पर केवल घर नहीं बल्कि मैंने अपने मन की सफ़ाई करने की ठान ली है. पति देव के मन में बनी सालों की गांठ को तोड़ना है और पूरे घर को दीपकों से सजाना है. शुरुआत मैंने पति देव को ऑफ़िस में फ़ोन कर के कर दी.
मैं,“हेलो”
पति,“क्या बात है बोलो जल्दी बोलो.”
मैं,“डार्लिंग, तुम्हारी आलमारी की सफ़ाई की. पता चल गया कि मेरे अनिमेष को रोमांस करना भी आता है. जल्दी आओ, तुमसे मिलने के लिए पागल हूं और हां मेरा पति सिर्फ़ मेरा है.”
पति,“क्या…”
थोड़ी देर चुप्पी छाई रही. मैंने फिर उस आइस को ब्रेक किया,“अरे आओ, तुम्हारा प्यार चाहिए.”
उसके बाद मैंने खुद से भी वादा किया कि ये राज मैं अपने तक ही रखूंगी. इस बार हम दिवाली एक नए तरीक़े से मनाएंगे. मैं खूब अच्छी तरह से सज धज पति के आने का इंतज़ार करने लगी. बेटियां भी मुझे इस तरह देख हैरान थीं.
शाम को पति थोड़ा डरते हुए ही आए, उन्हें डर था कि मैं कोई तमाशा ना खड़ा कर दूं. लेकिन मैंने तो अपने मन को अच्छी तरह से साफ़ कर लिया था. मैं तो तुरंत उनके गले लग गयी और धीरे से उनके कान में फुसफुसाया,“सालों पहले तुम भले निशा दी के अनिमेष रहे हो लेकिन अब पूरी तरह से तुम मेरे हो. मुझे तुम्हारे बीते कल से कोई शिकायत नहीं है.”
पति ने मुझे और जकड़ते हुए माथे पर एक चुम्बन भी जड़ दिया. दोनों बेटियां चिल्लाईं,“मॉम व्हाट इज़ दिस? थोड़ी शरम करो, हम अब बच्चे नहीं हैं.”
मैं और पति तो इस तरह मिल रहे थे मानो ये हमारा पहला मिलन हो. सारी बेड़ियां टूट गईं. भला हो इस दिवाली की सफ़ाई का जिसने मेरे मन की भी पूरी सफ़ाई कर दी.

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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