एक ठुमरी गायिका के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म को निर्देशक श्याम बेनेगल ने जैसे पर्दे पर जीवंत कर दिया है. एक शास्त्रीय संगीत गायिका के जीवन के उत्थान और पतन की इस कहानी में संगीत साधना के प्रति उसका जुनून और दीवानगी प्रभावित करते हैं. फ़िल्म में सरदारी के जीवन के कई पहलू सामने आते हैं. फ़िल्म में उसकी ख़ासियत के साथ उसकी कमज़ोरियों और उसकी गलतियों को भी बख़ूबी दर्शाया है. पूरी फ़िल्म में दस गाने हैं सब के सब बाकमाल. बकौल अंजू शर्मा, जो लोग एक समय देश विदेश में चर्चित और पुरस्कृत ये फ़िल्मों के शौक़ीन हैं इसे देख सकते हैं.
फ़िल्म: सरदारी बेगम
सितारे: किरण खेर, सुरेखा सीकरी, अमरीश पुरी, रजित कपूर
निर्देशक: श्याम बेनेगल
कहानी व पटकथा: खालिद मोहम्मद
रन टाइम: 135 मिनट
सरदारी बेग़म… एक ठुमरी गायिका के जीवन पर आधारित ये फ़िल्म सच है या फ़साना ये तो नहीं मालूम पर श्याम बेनेगल जैसे ब्रिलियंट निर्देशक ने इसे पर्दे पर जीवंत ज़रूर कर दिया.
कहानी हिन्दू मुस्लिम दंगे के साथ शुरू होती है. कमरे में रियाज़ कर रही सरदारी बेग़म (किरण खेर) कुछ आवाज़ें सुनकर जब अपने छज्जे पर जाकर नीचे झांकती हैं तो किसी दंगाई का फेंका एक बड़ा पत्थर उनके माथे पर लगता है, वे चीख़ते हुए अपनी बेटी सकीना (राजेश्वरी सचदेव) को पुकारती हैं और उसकी गोद में दम तोड़ देती हैं.
एक पत्रकार लड़की तहज़ीब जब दंगों को कवर करने पहुंचती है तो सरदारी बेग़म तक पहुंचती है वहां देखती है घर में जनाज़े की तैयारी हो रही है. तभी उसे पता चलता है कि सरदारी बेग़म के भाई जब्बार उसके वालिद हैं और सरदारी दरअसल उसकी फूफी थीं. इस रहस्योद्घाटन पर वह चौंक उठती है. रात में अपने पिता से वह उसके पीछे की कहानी का उनका वर्शन सुनती है.
अपने वालिद से ज़िदकर इत्तन बाई (सुरेखा सीकरी) से संगीत सीखने वाली युवा सरदारी (स्मृति मिश्रा) को जब सामाजिक बदनामी के डर से महफ़िलों में गाने से रोका जाता है तो वह दीवानगी में अपना घर छोड़कर एक रईस हेमराज (अमरीश पुरी) की रखैल बन जाती है. बाद में एक लालची आदमी सादिक़ मूसवी (रजित कपूर) से उसका निकाह, उसकी संगीत यात्रा, उसका शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचना, शौहर का छलावा और बेटी के प्रति उसकी पसेसिवनेस यानी पूरी फ़िल्म में सरदारी के जीवन की कहानी चलती है. एक शास्त्रीय संगीत गायिका के जीवन के उत्थान और पतन की इस कहानी में संगीत साधना के प्रति उसका जुनून और दीवानगी प्रभावित करते हैं, पर उसके इसी जुनून की क़ीमत उसे गलत लोगों को चुनकर चुकानी पड़ती है.
विशेष बात यह है कि इस कहानी में पत्रकार तहज़ीब जो कि सरदारी के जीवन पर एक लेख लिखना तय करती है, उससे जुड़े अलग-अलग लोगों यानी भाई जब्बार अब्बासी (श्रीवल्लभ व्यास), हेमराज की पत्नी (उत्तरा बावरकर), उसके साज़िंदे फ़तह ख़ान (एस एम ज़हीर), पति सादिक मूसवी, एक युवा प्रशंसक आमोद बजाज (कुमुद मिश्रा), म्यूज़िक कम्पनी मालिक मिस्टर सेन (सलीम ग़ौस) और उसकी बेटी सकीना से मिलती है और सब उसे अपने तरीक़े से सरदारी बेग़म के बारे में बताते हैं.
फ़िल्म में सरदारी के जीवन के कई पहलू सामने आते हैं. उसकी शख़्सियत की भी कई परतें हैं, जिन तक तहज़ीब पहुंचती है तो वह असल सरदारी को जानती है. ठीक ज़ुबैदा की तरह सरदारी को कोई महान शख़्सियत न बनाकर फ़िल्म राइटर ख़ालिद मोहम्मद ने हर आदमी की तरह उसकी ख़ासियत के साथ उसकी कमज़ोरियों और उसकी गलतियों को भी बख़ूबी दर्शाया है और यही बात इस फ़िल्म को एक आम वृतचित्र टाइप फ़िल्म बनने से अलग करती है.
अंत अच्छा है जब तहज़ीब अपनी फूफी के जीवन से सबक लेकर अपने विवाहित प्रेमी को, जो उसे महज़ एक्स्प्लॉइट कर रहा होता है, छोड़कर अपने करियर में आगे बढ़ जाने का फ़ैसला करती है, उसके पिता जो उसकी फूफी के साथ खड़े न हो सके, उसके साथ खड़े होते हैं और सकीना, जो मां के कारण गायन छोड़ चुकी होती है, आगे बढ़कर फिर से रियाज़ शुरू कर देती है.
पूरी फ़िल्म में दस गाने हैं सब के सब बाकमाल. वनराज भाटिया और अशोक पातकी द्वारा स्वरबद्ध की गई इन ठुमरियों को सुनना एक अलग दुनिया में होने का एहसास कराता है. ‘चली पी के नगर’ और ‘मोरे कान्हा जो आए’ को तो जितनी बार सुनो मन नहीं भरेगा.
फ़िल्मों के जो शौक़ीन एक समय देश विदेश में चर्चित और पुरस्कृत ये फ़िल्म देखना चाहें, इसे अमेज़ॉन प्राइम पर देख सकते हैं.
फ़ोटो साभार: गूगल