परिवार कहने को तो दुनिया का सबसे प्यारा शब्द है, पर क्या क़रीब से भी यह शब्द उतना ही प्यारा होता है?मीनाक्षी विजयवर्गीय की यह कहानी ‘वादा’ एक परिवार के मुखिया की मृत्यु के बाद उनकी पोती के नज़रिए से दिखाती है कि परिवार का भी एक दूसरा पहलू होता है.
तीसरे की बैठक का दिन, आज से शुरू करूं कहानी को या कहां से कहना शुरू करूं? जो कितने ही किरदारों का असली चेहरा दिखा गई. 8 दिन पहले जब मैं घर से मुंबई आ रही थी. कुछ दिनों की छुट्टियों में अपने घर आई थी. जब मेरी रवानगी थी, मैं दादा जी से मिलने पहुंची उन्होंने 500 का नोट हाथ में दबा दिया. मेरे बोलने से पहले बोले, पता है अब तुम बड़ी हो गई हो, नौकरी कर रही हो, कमाने लगी हो, पर अभी भी तू मेरी नन्ही सी गुड़िया है रख ले, गोली बिस्कुट खा लेना. मैंने बोला आप लोग कुछ दिन मेरे साथ रहने क्यों नहीं चलते, मैं भी अकेले रहती हूं इतने बड़े घर में. आप चलो मेरे साथ, आप दोनों को अच्छा लगेगा. तो दादाजी बोले, अगली बार हम दोनों का टिकट करा लेना तेरे साथ ज़रूर चलेंगे. तेरी अम्मा के लिए तो स्वर्ग से कम नहीं होगा मुंबई. अब तेरे साथ ही रहेंगे. अम्मा को गले लगा कर मैं अपने यहां वापस आ गई. दो दिन बाद ही ख़बर आई कि दादाजी गिर गए, पैर फिसल गया उनका सिर में चोट आई है, सीरियस हैं. इधर ऑफ़िस में बोला फिर से छुट्टी के लिए. तीसरे दिन ख़बर आ गई कि दादाजी नहीं रहे. फ़्लाइट का टिकट कराया और घर आ गई. समझ में ही नहीं आ रहा था कि अभी दो-तीन दिन पहले तो दादा जी से प्रॉमिस किया था कि अगली बार दोनों को साथ ले जाऊंगी, यह सब क्या हो गया. अब परिवार से मिलवाती हूं, जहां मेरी अम्मा हैं, बाबूजी हैं, मतलब दादाजी और दादी जी. एक चाचा, एक ताऊजी, मेरे पापा, एक बुआ. चार भाई-बहनों का परिवार. ताईजी, चाची जी, मम्मी सब के बच्चे. मेरा एक सगा भाई, बाक़ी घर में सबके दो-दो लड़के मिला कर सात लड़कों पर मैं अकेली लड़की. इंजीनियर बन मुंबई में नौकरी कर रही थी. सभी की लाडली खासकर अम्मा बाबूजी की… देख रही थी कि कैसे घर के बड़े बुज़ुर्ग के जाने पर इस आधुनिक परिवार के सदस्यों के रंग. सबके अभिनय लाजवाब थे. अर्थी की तैयारी से लेकर क्रिया कर्म में अपनी आन बान शान का प्रदर्शन हो रहा था. दादी की तरफ़ तो किसी का ध्यान ही नहीं जा रहा था. उनको भी कुछ रस्में निभानी थीं, सो निभा रही थीं. खाने से फुर्सत होते ही सब अपने-अपने कामों में व्यस्त दिखने लगे. तीसरे की बैठक का इंतज़ाम बड़ा रूप ले रहा था. मैं अम्मा के कमरे में गई, अम्मा बोली, आ गई नन्ही. मैं कुछ कह नहीं पाई, अम्मा को गले लगा लिया ख़ूब रोई. बोली देख अभी तो तुझे बोले थे साथ चलेंगे तेरे, यहां मुझे अकेला छोड़ गए. मैंने अम्मा को गले लगाए रखा. रोने दिया हर वह बात कहने दी, जो मन में लेकर बैठी थी. फिर उनको खाना खिलाया. समझा कर दवाई दी, फिर सोने को कहा. मेरा हाथ पकड़ कर वह सो गई और उनके पास बैठे-बैठे मैं. सुबह आंख खुली, देखा तो बड़ी भाग दौड़ मची थी. नौकरों को काम बताए जा रहे थे. तीसरे की बैठक के इंतज़ाम के लिए सफ़ेद टेंट, चादर, फूल माला, बड़े कूलर गर्मी को ध्यान में रखते हुए. ऐसा लग रहा था चाचा, पापा और ताऊजी सब शक्ति प्रदर्शन में लगे हुए है. किसी का बॉस, किसी का नेता दोस्त, बड़े-बड़े बिज़नेसमैन की लिस्ट सबको अपने व्यवहार की लगी पड़ी थी. चाचा-बुआ के तो कपड़े तय हो रहे थे, स्टेटस अपडेट हो रहे थे. मम्मी भी कुछ कम नहीं मेरे पास आई और बोली शाम को बैठक में बढ़िया कॉटन का सूट पहन लेना ज़्यादा पतली भी नहीं दिखोगी. बहुतों की नज़र होगी. शादी लायक हो गई हो तुम. लग रहा था कि क्या दिखावा है. अम्मा के दुख से किसी को कोई कुछ मतलब ही नहीं था. मां के दुख से सब बच्चे अनजान थे. सबको अपना-अपना प्रदर्शन करना था पूरे तामझाम को देखकर कहीं से कहीं तक नहीं लग रहा था कि यह मेरे सात्विक जीवन जीने वाले दादाजी की बैठक थी. लोगों की भीड़ भर भर के आ रही थी. सब अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने पर तुले हुए थे, समाज के लोग, रिश्तेदार, साथ में काम करने वाले, सब तरह के लोग. एक अमीर उद्योगपति के पिता, एक पार्षद के पिता, एक कॉलेज के प्रिंसिपल के पिता के रूप में दादाजी को याद किया जा रहे थे. अम्मा की तरफ़ तो किसी का ध्यान ही नहीं था. उनकी दुख की घड़ियां कोई कम नहीं कर पाया. एक अभिनय मंच के नाटक का दृश्य मुझे सोचने पर विवश कर रहा था. एक-एक दिन बीत रहा था, बारह दिन पूरे होने का इंतज़ार मुझे भी था और जैसे अम्मा को भी. इन एक-एक दिन में नाटक करने वाले बेटे, दामाद, बहू, बेटी सबके असली चेहरे नज़र आ रहे थे. अम्मा के लिए सबका व्यवहार बदलता जा रहा था. नौकरों की ज़िम्मेदारी हो चुकी थीं अम्मा, समझ ही नहीं आ रहा था दादाजी स्वर्ग चले गए हैं और अम्मा को नर्क में छोड़ गए हैं. अंतिम यात्रा से लेकर तेरहवीं तक की सभी रस्में, दिखावे प्रदर्शन की भेंट चढ़ चुकी थीं. एक-एक करके मेहमान विदा होते जा रहे थे, रात को अम्मा के पास गई तो बोलीं, तू कब जाएगी? मोए भी साथ ले चल. मैंने बड़े आश्चर्य से देखा उनकी तरफ़. वह सिर्फ़ हां सुनना चाहती थीं, शायद इन बारह दिनों में समझ गई थीं कि किसी को उनकी ज़रूरत नहीं, सबको बोझ लगने लगी, जब तक दादाजी थे उनको किसी की परवाह नहीं थी, ना ही किसी की हिम्मत की अम्मा को कुछ कह सके, पर दादाजी के जाते ही सब अपनी-अपने व्यक्तिगत समस्याओं के चलते उनकी ज़िम्मेदारी से किनारा करने लगे थे, सबके अपने-अपने घर दादा जी के घर से लगे हुए ख़ाली प्लाटों में आसमान छूते हुए बने हुए थे, पर एक कोना अपनी मां के लिए ख़ाली नहीं दिख रहा था. मिस यू बाबूजी के स्टेटस डालती बुआ भी अम्मा के अकेलेपन का दर्द बांट नहीं पाईं. मैंने दो टिकट वापसी के लिए बुक कराई, मम्मी को जैसे ही पता चला मुझसे लड़ने लगी. वहां नौकरी करेगी या अम्मा जी को संभालेगी? मैंने कहा कि मम्मी आप उनको रख लो. अम्मा जी को मैं क्यों रखूं? भाभी जी और देवरानी जी की भी तो सास है. धन तो मिलेगा नहीं, ऊपर से तीमारदारी हाथ आएगी. मम्मी की ये बात सुनकर शर्म आने लगी मुझे ख़ुद पर. बहस करना बेकार लगा, मेरे जाने वाला दिन आ गया. अपनी पैकिंग, दादी की पैकिंग कर सबसे विदा लेने लगी. वादा तो दादाजी से भी किया था कि इस बार साथ में दोनों को लेकर जाऊंगी, पर भगवान ने कुछ और ही सोच रखा था, अब चलो अम्मा मेरे साथ मेरा इतना कहते ही बोली रुक, धीरे-धीरे वह अंदर गई और बाबूजी की तस्वीर लेकर आई, बोली देख तू मुझे और तेरे बाबूजी दोनों को साथ लेकर जाना चाहती थी ना, देख हम दोनों तेरे साथ चल रहे हैं. आज महसूस हो रहा था कि लोग दिखावे की दुनिया में जो हमारे साथ नहीं, उनके तो वो कभी थे ही नहीं, और जो हमारे साथ हैं उनको देख भी नहीं पा रहे हैं. अपनों को छोड़कर कितने आगे बढ़ गए हैं. जाने कौन-सी अंधी दौड़ में भाग रहे हैं, ना ख़ुद को ख़ुश रख रहे हैं, ना ही अपनों का दुःख समझ पा रहे हैं.
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