अपने आसपास की रूटी न घटनाओं और लोगों को संवेदनशीलता की नज़र से एक कवि ही देख सकता है. बूढ़ापे की ओर बढ़ रहे अख़बार वाले की ख़बर कवि अरुण चन्द्र रॉय ने इस कविता की पंक्तियों में लिख दी है.
दो दशक से अधिक से
वह फेंक रहा है अख़बार
मेरे तीसरे मंज़िल मकान के आंगन में
सर्दी, गर्मी, बरसात में
गाहे बगाहे नागा होते हुए
वह कब जाता था अपने गांव
यह उसके बेटे के आने से पता चलता
जो नहीं फेंक पाता था तीसरी मंज़िल पर अख़बार
समय के साथ
अख़बार मोटे होते चले गए
ख़बरों का स्थान ले लिया
चमकीले विज्ञापनों ने
श्वेत श्याम अख़बार
रंगीन होते चले गए
और खड़ा रहा अख़बारवाला
अपनी जगह वहीं
देश की अर्थव्यवस्था बदली
उसे पता चला विज्ञापनों से
जबकि उसकी अर्थव्यवस्था
थोड़ी संकुचित ही हुई इस दौरान
घटते अख़बार पढ़ने वालों के साथ
पहले वह अखबारों के साथ लाया करता था
पत्रिकाएं
अब न तो पत्रिकाएं हैं न पढ़ानेवाले
मालिकान दे रहे हैं एक दूसरे को दोष
और समझ में नहीं आ रहा है अख़बारवाले को
कि कौन सही है कौन ग़लत
वह स्वयं को कटघरे में फंसा महसूस कर रहा
आज सुबह-सुबह
वह कई बार कोशिश करके भी
नहीं फेंक पाया तीसरी मंज़िल पर अख़बार
साइकिल चढ़ते हुए थोड़ा लड़खड़ाया भी
थोड़ा हांफता सा भी लगा वह
मैंने हंसकर कहा
‘चच्चा बूढ़े हो रहे हैं, अख़बार नीचे ही रख दिया कीजिए!’
मुझ अपनी हंसी, स्वयं ही चुभ गई
अख़बार खोला तो पता चला कि
बैंक में छोटी बचत बहुत घट गई है
नहीं मालूम इस घटती बचत में
अख़बारवाले चच्चा शामिल हैं या नहीं
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