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परछाइयां: भावना शेखर की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 11, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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परछाइयां: भावना शेखर की कहानी
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अपनी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह को कितने उल्लास से जीना चाहते थे रीना और रंजन. पर नियति, उसने तो अलग भूमिका लिख रखी थी. बावजूद इसके रीना ने इस दिन को परछाइयों के बीच कैसे ख़ुशनुमा बनाया यह जानने के लिए और ज़िंदगी जीने की कला पहचानने के लिए यह कहानी पढ़ी जानी चाहिए.

उसकी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह थी. दस साल पहले ही पति घोषणा कर चुके थे कि सिल्वर जुबली पर उसकी सारी शिक़ायतें दूर देंगे और स्विट्ज़रलैंड का पैकेज लेकर उसे ख़ूब घुमाएंगे. पर वो एक महीने पहले ही प्रण कर चुकी थी कि उसे दिल्ली जाना है और वो भी ट्रेन से.
“….और हां, मुझे सेकंड क्लास में सफ़र करना है.”
” आर यू क्रेज़ी ?” रंजन के इसी स्वर की उसने उम्मीद की थी. बेटा भी उससे सहमत नहीं था, सो इस बात पर उसकी एक न चली. आख़िर एसी कोच में टिकट बुक कराई गई.

पूरे सफ़र में वो अतीत को जी रही थी. जब वो दोनों ग़रीब थे पर कितने क़रीब थे. दुनिया से लड़कर रंजन से शादी की और पच्चीस साल पहले सेकंड क्लास की एक ही रिज़र्व सीट पर पति के साथ सफ़र करके वो ससुराल आई थी. तिस पर गाडी लेट होने के कारण चौदह घंटे की यात्रा बीस घंटे में बदल गई थी.
“आह! उस साइड बर्थ का संकरा आकार उन्हें कितना क़रीब ले आया था. रात में एक ही कम्बल में जहांभर की रूमानियत दहकने लगी थी.”
अब तो जिस्म के साथ साथ मन की ज़मीन भी ग्लेशियर बन गई है.

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दिल्ली में भी उसकी ज़िद के चलते किसी शानदार होटल की बजाय गोमती गेस्ट हाउस में बुकिंग थी. जहां शादी की पहली रात जेएनयू का छात्र होने की वजह से रंजन को कमरा मिल गया था. यह उसकी अनूठी सिल्वर जुबली सेलिब्रेशन का दूसरा पड़ाव था.

तैयार होकर ऑटो लिया, बंगाली मार्केट गई, स्पंजी रसगुल्ले और स्नैक्स पैक कराए और चल दी नेहरू पार्क की ओर, जहां रंजन का पहला जन्मदिन उसने इसी तरह मनाया था. आज भी उस दिन की तरह रसगुल्लों का रस उनके कपड़ों पर चू गया था, पर वो परेशान होने की बजाय मुस्करा भर दी.

पार्क पहुंचने पर भीतरी पेड़ों के झुरमुट में उसने देखा एक दूसरे को रसगुल्ला खिलाते रीना और रंजन घुटने मोड़कर घास पर बैठे थे और ऑटो मोड पर डाला गया याशिका कैमरा ब्लैक ऐंड वाइट फ़ोटो खींच रहा है. प्यार के पंछियों की कुहुक को क्लिक करते कैमरे की रील ख़त्म हो चुकी थी. उन नाज़ुक रंगीन लम्हों का वो ब्लैक ऐंड वाइट ऐल्बम आज भी रंजन की चिट्ठियों के पुलिंदे के साथ उसने सहेज कर रखा है. काफ़ी समय तक नेहरू पार्क में बिखरी यादों को समेटती रही. जाते-जाते हाथ में पकड़ा खाने का पैकेट गार्ड को पकड़ा कर फुर्र हो गई.

अब ऑटो दौड़ रहा था यूनिवर्सिटी की दिशा में. अचानक कंधे पर रंजन का हाथ आ टिका, उसने गर्दन झुकाकर गाल रंजन के हाथ से सटा दिया और आंखें मूंद लीं. पूरी देह पिघल पिघल उठी… एक लंबे अंतराल के बाद तृष्णा का ज्वार उठा और दिल के तहख़ाने से जा टकराया. बेसुधी में ही लम्बा रास्ता कटा.

आख़िर रिज के गेट पर पहुंचकर ऑटो चालक ने ब्रेक लगाया. किराया चुकता कर वो भीतर दाख़िल हुई. पर सबकुछ बदला बदला सा था. न वो मचान जहां रंजन ने हाथ पकड़कर उसे सीढ़ी पर चढ़ाया था. न वो तालाब जहां उसके सिंदूरी अरमानों से मेल खाते दर्ज़नों कमल खिला करते थे. न वो कच्ची पगडंडियां जिन पर उनके दो जोड़ी पांव हर रोज़ अपने निशान छोड़ जाते थे… जिन पर चलते उसके जिस्म को पहली बार रंजन ने जकड़ लिया था और वो पिघली मोमबत्ती-सी भक से बुझ गई थी.
पर वैसी ही ठहरी-ठहरी शाम थी, वैसा ही धुन्धलका, वैसी ही शरारत भरी चुप्पी और वैसी ही चुहल करती ख़ामोशी. उसे सब भला-भला सा लग रहा था. एक गोल पत्थर पर वो टिक गई. यहीं कहीं रंजन की ज़िद पर बन्दरों की फ़ौज के साथ उसन डरते-डरते तस्वीर खिंचवाई थी. आज कोई बन्दर तो नहीं दिखा, बहरहाल झाड़ियों से आती सरसराहट कितने ही जवां क़िस्से बुन रही थी.
रिज में पसरी धूसर यादों को टूटे फूल की पंखुड़ियों-सा उसने एक-एक कर चुना और झुककर यहां-वहां बिखरी कुछ मुरझाई पत्तियों को उठाकर टिशू पेपर में एहतियात से लपेटकर, रिज से विदा ली. गेस्ट हाउस से सामान उठाया और स्टेशन पहुंचकर गाडी में सवार हुई.
अगली सुबह घर में क़दम रखा तो बदन टूट-सा रहा था. पर मन… मन चन्दन-सा महक रहा था… सोने-सा निखरा-निखरा… दिप-दिप करता उल्लास घरभर में उजास भर गया.

नहा-धोकर रंजन की फ़ेवरेट साड़ी पहनी, परफ़्यूम छिड़का, माथे पर सुर्ख़ बिंदी लगाकर कमरे में रंजन के पास आई , उसकी आंखों में आंखें डालकर बोली,”जान, हैप्पी जुबली!”
रंजन तस्वीर में वैसे ही मुस्कुरा रहा था, जैसे दस साल पहले तक मुस्कराया करता था.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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