बचपन में एक कहावत सुनी थी- खाओ मन भाता, पहनो जग भाता यानी खाना अपनी रुचि के अनुसार खाएं, पर कपड़े समय, स्थान और मौक़े के अनुसार पहने जाएं. वरना हम पर उंगलियां उठ सकती हैं और हम आलोचना के घेरे में आ सकते हैं. अब यह बात बिल्कुल सही है, यदि हम इसे सही अर्थों में लें. और यदि इस बात पर सबके पसंदीदा भारतीय परिधान साड़ी को परखा जाए तो वह हर अवसर पर पहनी जा सकती है. यही बात साड़ी को सदाबहार परिधान बना देती है. आइए, इसके बारे में और जानें.
यदि आप फ़ैशन उत्साही हैं या फिर नहीं भी हैं तो यह बात तो सामान्यत: सभी समझते हैं कि शादी, ब्याह जैसे उत्सव में रंग बिरंगे भारी परिधान और मातमी माहौल में हल्के रंग के सादे कपड़े पहनना उचित व्यवहार है. मंदिर, शिक्षण संस्थान या दफ़्ततरों में भड़कीले फ़ैशनेबल कपड़े देखने वालों की आंखों में चुभ सकते हैं.
इस कसौटी पर परखते हुए यदि साड़ी की बात करें तो हम देखते हैं कि महानगरीय जनजीवन में साड़ी का प्रचलन पिछले दो दशकों में घटा है. कामकाजी युवतियां और महिलाएं छह ग़ज़ की साड़ी लपेटने से ज़्यादा सुखकर जीन्स-शर्ट को मानती हैं, जो अपनी जगह सही भी है. उनकी तक़रीर है कि एक तो साड़ी भागदौड़ की ज़िंदगी में उनकी रफ़्तार पर लगाम डालती है, दूसरे साड़ी पहनना समय लेने वाला और तुलनात्मक रूप से मुश्क़िल काम है. हालांकि दूसरा सच यह भी है कि इतिहास की महिलाएं, जो बेहद सक्रिय रही हैं, उन्होंने साड़ी में युद्ध जैसे अवसरों का भी बख़ूबी सामना किया है. वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लक्ष्मीबाई लांघवाली साड़ी पहनकर घुड़सवारी करती थीं. युद्ध के मैदान में भी उन्होंने यही परिधान पहना था. यहां हम मामला आपकी चॉइस पर छोड़ सकते हैं, लेकिन साड़ी के हर अवसर पर पहने जा सकने की बात अपनी जगह बिल्कुल सही है.
चलन में तो थी ही, पर अब हो रही ज़ोरदार वापसी
ख़ुशी की बात है कि साड़ी हमेशा चलन में रही है, भले ही कुछ समय तक थोड़ा पीछे चली गई हो, लेकिन अब फिर से इसने अपनी ज़ोरदार वापसी की है. कुछ समय पहले बॉलिवुड अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वे हॉलीवुड एक्ट्रेस को मात्र तीन सेफ़्टी-पिनों की मदद से बहुत ही कम समय मे साड़ी पहनना सिखा रही हैं. आजकल हमारे देश में आनेवाले कितने ही विदेशी यात्रियों द्वारा यह लिबास अपनाया जा रहा है, क्योंकि ये परिधान आकर्षक और ख़ूबसूरत है. यदि आप इसे सही तरीक़े से पहनना सीख लें, अभ्यास करें तो साड़ी को पांच मिनट से भी कम समय में पहना जा सकता है. भारत आईं विदेशी मेहमान भी औपचारिक समारोहों में सहर्ष साड़ी पहनकर भारतीयता का एहसास कराती दिखती हैं. इसे विदेशों में भी ख़ूब पसंद किया जा रहा है.
पारंपरिक परिधान के रूप में आज भी पहली पसंद है साड़ी
बॉलीवुड एक्ट्रेस शिल्पा शेट्टी और विद्या बालन ने अपनी शादी पर लाल रंग की साड़ी पहनी थी. क्रिकेटर ज़हीर खान से विवाह करने वाली सागरिका घाटगे ने भी अपनी शादी की ख़ास पोशाक के रूप में साड़ी को ही चुना. उनसे पहले ऐश्वर्या राय ने अपनी शादी पर गोल्डन रंग की साड़ी पहनी थी. मान्यता दत्त ने भी अपनी शादी पर ऑफ़-वाइट रंग की साड़ी पहनी थी. दीपिका पादुकोन और अनुष्का शर्मा तो अक्सर साड़ियों में नज़र आती हैं.
यूं तो ग्लैमर जगत में ब्लाउज़लेस साड़ी स्टाइल का फैशन चल पड़ा है, जिसका अनुकरण आम जीवन मे सम्भव नहीं. पर स्लीवलेस या हॉल्टर नेक स्टाइल वाले या फिर मिसमैच ब्लाउज़ पहनकर साड़ी को ग्लैमरस भी बनाया जा सकता है. अत: आज के दौर को साड़ी का फ़्यूशन दौर कहा जा सकता है.
फ़िज़ूलख़र्ची से बचा रही है
अपने फ़ैशन आइकन्स की देखादेखी हमारी युवा पीढ़ी का साड़ी की ओर रुझान बढ़ रहा है. इसका एक बड़ा फ़ायदा शादी के भारी-भरकम ख़र्च में कटौती होना भी है. महंगाई के इस ज़माने में जहां लोग शादी के लिए हज़ारों-लाखों का लहंगा ख़रीदते हैं. एक बार सिर्फ़ कुछ घंटे पहनने के बाद शादी का ये लहंगा तिजोरी में पड़े गहनों की तरह वॉर्ड्रोब में बंद हो जाता है. साड़ी को शादी का जोड़ा बनाने से इस फ़िज़ूलख़र्ची की यह परम्परा टूट रही है. चूंकि वेडिंग साड़ी को शादी के बाद भी बार-बार पहना जा सकता है.
हर तरह के बॉडी शेप पर उतनी ही आकर्षक लगती है
साड़ी की वापसी की एक और वजह यह है कि यह हर तरह के ऐब को छिपा देती है और ख़ूबसूरती को बढ़ा देती है. लम्बी, नाटी, मोटी, दुबली हर काया के माफ़िक डिज़ाइन, रंग और फ़ैब्रिक वाली प्रचुर साड़ियां बाज़ार में उपलब्ध हैं. लाखों बुनकर, कलाकार और डिज़ाइनर साड़ियों की असंख्य क़िस्में तैयार करने में लगे हैं. साड़ी में प्रयोग होने वाले रंग किसी स्त्री के स्वभाव और मनोभावों का आईना होते हैं. साड़ी पहनने के अलग अलग तरीके भौगोलिक स्थिति, पारंपरिक मूल्यों और रुचियों पर निर्भर करते हैं. युवतियां और महिलाएं अपनी लम्बाई, क़द-काठी और मौके के अनुसार साड़ी पहनने की शैली चुन सकती हैं, जैसे-फ्री पल्लू साड़ी, पिनअप साड़ी, उल्टा पल्लू, सीधा पल्लू, लहंगा शैली, मराठी या कोंकणी शैली और बंगाली शैली.
समृद्ध है साड़ी का इतिहास
साड़ी के इतिहास को खंगालें तो हम पाते हैं कि संस्कृत साहित्य में साड़ी को ‘शाटिका’ और बौद्ध साहित्य में ‘सत्तिका’ कहा गया है. यजुर्वेद में सबसे पहले साड़ी परिधान का उल्लेख मिलता है. ऋग्वेद की संहिता के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी को इसे पहनने का विधान है और विधान के इसी क्रम से यह जीवन का एक अभिन्न अंग बनती चली गई. बाणभट्ट द्वारा रचित “कादंबरी” और प्राचीन तमिल कविता “सिलप्पाधिकरम” में भी साड़ी पहने महिलाओं का वर्णन किया गया है.
महाभारत में द्रौपदी के चीर हरण का प्रसंग जगज़ाहिर है. जब दु:शासन ने भरे दरबार मे सार्वजनिक रूप से द्रौपदी की साड़ी खींचने का प्रयास किया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने साड़ी की लंबाई बढ़ाकर उसकी रक्षा की. इस कथा के माध्यम से यह स्थापित हो गया कि साड़ी केवल पहनावा ही नहीं है, बल्कि स्त्री की अस्मिता का प्रतीक भी है.
भारतीय संस्कृति में देवियों की तस्वीरों, मूर्तियों से लेकर भारत माता की काल्पनिक छवि में साड़ी ही सर्वमान्य परिधान है. कविताओं, गीतों में धरतीमाता या भारतमाता की प्रतिष्ठा का संकेत सदा उसके आंचल (साड़ी) से ही दिया जाता है.
समय के साथ साड़ी में भी लाया गया है बदलाव
आज बाज़ार में बनी बनाई चुन्नटों या प्लीट्स वाली रेडीमेड साड़ियां उपलब्ध हैं, जो हमारी नाज़ुक पीढ़ी को हर दुविधा से निकालेंगी. ख़रीदो और किसी अन्य परिधान की तरह सहजता पहन लो. न गोल-गोल घूमने की फ़िक्र, न पाटली बनाने का झंझट. इस बात से यही तो पता चलता है कि साड़ी है तो नारी है, नारी है तो साड़ी है. और अटूट है दोनों का रिश्ता सदियों से सदियों तक.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट