क्या है एक ज़िंदादिल नानी की वह कहानी, जो उसे अक्सर परेशान करती है? पढ़ें, डॉ संगीता झा की कहानी ‘इचकू पिचकू और मामू’.
आज सुबह से मैं टीवी के सामने बैठी हुई बड़े गर्व से भारत की बेटियां प्रोग्राम देख रही थी. साथ बैठी थीं मेरी दोनों नातिनें और मेरा बेटा निहाल. पीछे मेरे अतीत को झझकोरती मेरी वो तीन अजन्मी बेटियां जो बार-बार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहीं थीं,‘‘क्या दोष था हमारा मां जो आपने कोख में ही मार दिया. बोलो मां? बोलो…’’
दोनों नातिनें कोरस में चिल्लाईं,“व्हाट हैपेन्ड? नानी आप भी ना! सडनली ऑफ़ हो जाती हैं.’’
शायद ये मेरी अजन्मी बेटियां ही थीं, जो अपना बदला लेने आई थीं. क्या कहती उन्हें कि उन्हें सरोजिनी नायडू, कल्पना चावला और ना जाने कितनी महान महिलाओं की कहानी सुनाने वाली उनकी नानी ख़ुद कितनी कमज़ोर बन गई थी. इन दोनों की नानी ना केवल दोस्त, बल्कि उनकी स्टोरी टेलर, उनकी हीरोइन थी. जो कुछ भी नया फ़ैशन देखतीं, अपनी नानी यानी मुझ पर ट्राई करतीं. कभी ऊंचा जूड़ा, तो कभी बालों का साइड पार्टीशन तो कभी खुले बाल और मुझे सख़्त हिदायत की मुझे सारे दिन ऐसे ही रहना है. दोनों छुटकी इसी रूप में मुझे छत पर भी लेकर जातीं. कभी मैं सायरा बानो तो कभी शर्मिला टैगोर और नहीं तो बैजंती माला. कॉलोनी वाले इस सुपर नानी का माजरा देख मज़ा लेते. कुछ तो मेरी बेटी मनु से इसका ज़िक्र भी करते. एक पड़ोसन मिसेस मेहरा, जिनके पति मेरे दामाद के साथ ही पोस्टेड हैं, ने मनु से कहा,“आई होप यू विल नॉट माइंड, आई थिंक योर मॉम नीड सम हेल्प. तुम समझ रही हो ना, आलोक के मामा शहर के सबसे बड़े साइकियाट्रिस्ट हैं. बोलो तो अपॉइंटमेंट ले दूं.”
एक तो बेटी दामाद के साथ रहने और दूसरे अपने निहाल की वजह से मैं सबके गॉसिपिंग का केंद्र थी. मनु ऑफ़िस से आते ही मुझ पर चिल्लाई,“इट वॉज़ नॉट एक्सपेक्टेड फ्रॉम यू मां. इचकू पिचकू तो छोटे हैं, आप को क्या ज़रूरत थी छत पर सायरा बन कर जाने की?” पूरा वाक़या तो मनु जानती ही नहीं थी कि इचकू पिचकू दोनों तो सचमुच की दो देवियां थीं, जो अपनी नानी और निहाल मामू को ख़ुश करने के लिए कुछ भी कर सकती थीं. वो तो मिसेस मेहरा ने शायद हमारा पूरा डान्स नहीं देखा, जिसमें निहाल की मांग में बीच की पार्टिंग कर बिल्कुल पड़ोसन का सुनील दत्त बना दिया और इचकू बनी किशोर कुमार और पिचकू दूसरा दोस्त. मुझे तो नचाया भी गया. मुझे भी बहुत मज़ा आता था, बरसों की गांठें भी खुल रही थीं और निहाल की ज़िंदगी में भी बहार आ गई थी.
मेरा विवाह वर्ष उन्नीस सौ अस्सी में एक सामंतवादी परिवार में सिर्फ़ मेरे रंग रूप की वजह से हुआ था. पति विदेश से पढ़ कर आए थे और एक बड़े बिज़नेस एम्पायर के इकलौते वारिस थे. घर में एक सास थी जो कठपुतलियों का खेल खिलाया करती, जिसमें सबसे नई कठपुतली मैं बन गई थी. उन दिनों टीवी भी नहीं था, इससे इस तरह का परिवार मेरे कल्पना के परे था. पति के जीवन में मेरी सासू मां ने कई अप्सराओं का प्रवेश कराया था, वो शायद बड़े लोगों के शौक़ हुआ करते थे. मैंने बचपन से एक आम, पर कुछ हट कर लड़की की तरह ‘ज़ंजीर’ वाले अमिताभ तो ‘मेरे अपने’ वाले विनोद खन्ना जैसे पति के सपने संजोए थे. कॉलेज के फ़ंक्शन में मैं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया करती थी. सासू मां एक ऐसे ही फ़ंक्शन में चीफ़ गेस्ट थीं, उन्हें बस एक कठपुतली मिल गई. घर वाले गदगद मानो वाइटहाउस से रिश्ता आया हो. सोचा ना समझा नसीबोंवाली का ख़िताब दे ब्याह दिया.
जैसा कर, वैसा भर ये फ़िलासफ़ी सभी मानते हैं, इसलिए सासू मां और पतिदेव को घर में लड़की नहीं चाहिए थी. दूसरे की बेटियों को कठपुतली बनाने वालों को एहसास भी ना था कि समय और ज़माना ज़रूर बदला लेगा. उनके किए की सजा भगवान ज़रूर दे के रहेगा. पहली बार जब प्रेग्नेंट थी तो सारा घर मेरी तीमारदारी में जुट गया. मैंगो स्टील, कीवी जो फलों का नाम भी नहीं सुना था, विदेशों से मंगा कर खिलाए जा रहे थे. मैंने ख़ुद को कठपुतली ना समझ पता नहीं कैसे महारानी समझ लिया. रोज़ कुंवर जी के आने के गीत गाए जाते, मेरे आराम का ध्यान रखा जाता. मेरे जापे (प्रसूति)के लिए गोरखपुर से एक ट्रेंड दाई मंगाई गई कि अगर घर में कोई तक़लीफ़ हो तो, मैडम तैय्यार. शहर की नामी प्रसूति विशेषज्ञ की निगरानी मे मेरी डिलिवरी होनी थी. पहला बच्चा था, मेरे मन में ज़रा सा भी ख़याल ना था कि अगर लड़की हुईं तो! पति देव की तो मैं बांदी थी, हम कभी दोस्त बने ही नहीं. पेट पर जब भी लात पड़ी लगा साथ में आवाज़ भी आती है मां. कई बार सोचा राघव यानी पति परमेश्वर को भी अपना बेडौल पेट छूआकर वो लात महसूस कराऊं, लेकिन वो अगर पास तो आते तो ना. दाई मेरी मां बन गई और मैं उसकी नन्नु बहुरिया. नन्नु का मतलब छोटी था.
बड़े ज़ोर-शोर से मुझे अस्पताल में भरती कराया सासू मां साथ में एक चांदी का चकला और सोने का बेलन और ढेर सारे चांदी के सिक्के ले कर चलीं. दाई मां ने मुझे बताया,“दुलहिन जब कुंवर जी आएंगे, तो बाई साहेब चांदी के चकले से सोने का बेलन बजा कुंवर जी का स्वागत करेंगी और सिक्के हवा में उछालेंगी.”
मैंने पूछा,“अगर बेटी हो गई तो?”
दाई मां ने डांटा,“शुभ शुभ बोलो बहुरिया’’
पहली बार मन में घंटी बजी कि बेटी का होना क्या अशुभ होता है? एक डर-सा लगा और महारानी बनने का भ्रम छूमन्तर हो गया. जैसे ही बच्चे के रोने की आवाज़ आयी, सारे लेबररूम में,“बेटी हुई है, बेटी हुई है’’ आवाज़ गूंजने लगी. मां बेटा बिना बच्ची को देखे फ़रार हो गए. रह गए मैं, बेटी और दाई मां बिमला… उन्होंने बिटिया को देख कहा,“है तो बहुत सुंदर तुम्हारा और दादी का मिसरन बहुरिया पर है मनतोड़बा, तोड़ दिया ना बाप दादी का मन.” उस मनतोड़बा शब्द से ही मैं मनु को मनु कह पुकारने लगी.
बिमला दाई नहीं होती तो शायद ना मैं बचती ना मनु. दाई मेरी मां थी और मनु की नानी दादी सब कुछ. मनु इतनी प्यारी थी पर ना बाप ना दादी ने उसे जी भर कर देखा था. सात महीने की थी और दाई बाहर बगीचे में उसकी मालिश कर रही थी. पति देव पास से गुज़र रहे थे पता नहीं कैसे मनु ने आवाज़ लगाई ‘पापा’ शायद दाई ने सिखाया हो. राघव रुक गए और पहली बार ऑफ़िस नहीं गए. सारा दिन मनु से खेलते रहे और मेरे पास भी आकर बैठे. कठपुतली की मालकिन को अपने सबसे अज़ीज़ कठपुतले की हरकत नागवार गुज़री. नागिन से फुंकारती पूरी हवेली में घूमती रही. बेटियां सचमुच बाप को बदल देती हैं, कहावत चरितार्थ होती लगी. लेकिन ये सिर्फ़ एक दिन का खेल था. मनु दाई मां के साथ सारे घर का चक्कर लगाती. एक दिन तो हद हो गई. सासू मां ने अपने बेटे को आवाज़ लगाई,“राघव आज घर जल्दी आना.” इसके ठीक बाद मनु ने अपनी तोतली भाषा में ईको किया,“लाघव आद घल दलदि आना.”
राघव ने मनु को गोद में ले बेतहाशा चूमते हुए उसी तरह तुतलाते हुए कहा,“पापा आद घल पल ही हे, नई दायेगा.”
उसके बाद से मनु और राघव के बीच एक अच्छी बॉडिंग बन गई. मैंने भी राघव के दिल का एक अच्छा कोना देखा और थोड़ी राहत मिली. लेकिन जिन्हें दूसरों की ज़िंदगियों से खेलने की आदत होती है वो कहां रुकते हैं. मनु डेढ़ साल की ही हुई कि दूसरे बच्चे की मांग शुरू हो गई. वो भी बेटा, मैं फिर परेशान, मनु मेरे और राघव के बीच का ब्रिज थी. मुझसे बात कर राघव को ये भी पता चला कि मैं सिर्फ़ मोम की कठपुतली नहीं बल्कि इंटेलिजेंट बातें भी करना जानती थी. यूं ही केवल सूरत की वजह से कॉलेज यूनियन में नहीं थी, बल्कि एक अच्छी सीरत की मालकिन भी थी. लेकिन राघव भी अपनी मां के भी उतने ही दीवाने थे, जितना मां ने बनाया था. घर पर यज्ञ हुआ और पुत्र की कामना करते हुए कई पूजा कराई गई. सारा शहर कठपुतली बन इस परिवार के इशारों पर नाचता था.
अब पूरे परिवार में एक बेटा लाने की ज़िद थी. उन्हीं दिनों मां के गर्भ से एमिनोटिक फ़्लूइड (गर्भ कोश के अंदर का तरल पदार्थ) को सिरिंज की सहायता से खींच कर पता किया जा सकता था कि अंदर बेटा या बेटी पल रही है. ये सब एक आधुनिक मशीन अल्ट्रा साउंड के नीचे गर्भवती महिला को लिटा कर किया जाता था. मेरा बड़ा ध्यान दिया जाने लगा, खाने-पीने से लेकर घूमने-फिरने का और तो और मनु भी भाई लाने की ज़िद करने लगी. मैं कठपुतली की तरह गर्भवती भी कर दी गई और प्रतीक्षा की जाने लगी सोलह हफ़्ते पूरे होने की, ताकि जांच की जा सके. जैसे ही सिरिंज अंदर गई, मेरे कान में एक मीठी आवाज़ गूंजी,“मां बचा ले…’’
शायद चुनावों के नतीजों की भी इतनी प्रतिक्षा कोई नहीं करता, जितनी इसकी की जा रही थी कि मेरे गर्भ में क्या है? शाम को जब डॉक्टर का फ़ोन आया कि गर्भ में बेटा नही बेटी है. सास में सर झटकते हुए आदेश दिया,“डॉक्टर को फ़ोन करो और तुरंत बच्चे को गिराने का इंतज़ाम करने के लिए बोलो.”
मैं रोने लगी गिड़गिड़ाने लगी,“मेरी बच्ची, बचा लो.’’
मेरी किसी ने एक ना सुनी मुझे उसी शाम एटीवान टैब्लेट दी गई और मैं सो गई. दूसरी सुबह मुझे बड़े शान से, जैसे बक़रीद के दिन जिबह करने से पहले बेचारे बकरे को फूल माला पहनाते हैं, ठीक उसी तरह मुझे अस्पताल ले ज़ाया गया. मेरे साथ दाई बिमला भी थी. मैं रो रही थी, पर कोई मेरा मसीहा ना था. अजन्मी भी गर्भ में लगभग चार महीने बिता चुकी थी. मुझे बेहोश कर अबॉर्शन की प्रक्रिया पूरी की गई. जब मुझे होश आया तो देखा एक छोटी सी ट्रे में एक हाड़मांस का लोथड़ा पड़ा था. मैं फूट-फूट कर रोने लगी. आज लगता है और कभी-कभी मनु भी धिक्कारती है कि मेरे अंदर की औरत मां क्या मर गई थी? मैंने उन सामन्तवादियों का विरोध क्यों नहीं किया? क्यों एक नहीं, दो नहीं तीन बार उनके सामने हथियार डाल दिए.
ऐसा करने में मेरी उम्र भी बढ़ती जा रही थी और मेरा रोना और हर वक़्त की मनहूसियत मनु को भी मुझसे दूर करते जा रही थी. पता नहीं क्यों राघव के सर पर जूं भी नहीं रेंग रही थी. तीसरे अबॉर्शन में तो बड़ी मुश्क़िल से मेरी जान बची थी. इसलिए मुझे ठीक होने में तीन साल लगे. मुझे लगा अब अत्याचार थम जाएंगे और अब बस…की स्थिति आ गई है. लेकिन एक दिन फिर काशी के बड़े विद्वान घर पर आए और इस घर पर अब पुत्र योग है ऐसी भविष्यवाणी कर गए. फिर क्या था राघव फिर मेरे पास आने लगे, मैं राघव मनु साथ-साथ बाहर भी जाते थे. मनु अब सात बरस की हो गई थी. फिर मेरे पेट में अजन्मे बच्चे की किलकारी गूंजने लगी. पंडित की भविष्य वाणी थी, मैंने किसी भी टेस्ट से इनकार कर दिया. काश… करवा लेती तो निहाल इस दुनिया की ठोकरे खाने से बच जाता. घर पर सबके लिए ज्ञानी पंडित की भविष्यवाणी ब्रह्मवाक्य थी.
निहाल के पैदा होते ही सब पहले तो ख़ुश हुए पर डॉक्टर को उसकी आंखें, बड़ा सर और फिर हाथ में चार लाइनें यानी चार पाम क्रीज देख पता चल गया कि बच्चा डाउन सिंड्रोम के साथ पैदा हुआ है. तीन-तीन भ्रूण हत्याओं की सज़ा तो मिलनी थी. मैं भी बराबर की भागीदार थी, क्योंकि जुर्म सहने वाला ही जुर्म को बढ़ावा देता है. अब मैंने पहली बार ख़ुद से अपने आंसू पोछे और ख़ुद से वादा किया कि मैं कठपुतली और नहीं. निहाल ने मुझे सचमुच निहाल कर दिया. हमने यानी जिसमें राघव भी शामिल थे, मिलकर निर्णय लिया कि हम निहाल को दुनिया की बेरहमियों का शिकार नहीं बनने देंगे. निहाल बाबू मेरे बहुत प्यारे और सच्चे बेटे हैं. दुनिया की हर बुराई और छलकपट से कोसों दूर हमने एक अलग दुनिया बनाई, जिसमें मैं निहाल और इचकू पिचकू हैं. पति का छोड़ा पूरा एम्पायर है हमारे पास, सो पैसे की कोई कमी नहीं है. बेटी दामाद दोनों वरिष्ठ अधिकारी, इससे सरकारी बाधा भी नहीं है, हम जो चाहे वो कर सकते हैं. कोरोना में कितने ग़रीबों के घर खाना पहुंचाया है. कितने कोरोना पीड़ितों को दवाइयां पहुंचाई हैं. हमारी एक संस्था है ‘इचकू पिचकू और मामू’, जो डोमेस्टिक वायलेंस, भ्रूण हत्या के विरोध और लड़की बचाओ लड़की पढ़ाओ के लिए काम करती है. हमारा अपना यूट्यूब चैनल है, लोगों को ख़ुशी देना हमारा शौक़ है. बहुत सारे टिकटॉक, तो छोटे-छोटे नाटक, कभी किसी मूवी के गाने पर डान्स के वीडियो इसी से हमारा यूट्यूब भरा हुआ है.
हमारी दुनिया ख़ुशियों से भरी है और हमारा स्लोगन है
‘बीती बातों पर हाथ नहीं मलते,
जज़्बातों से ईंधन के चूल्हे नहीं जलते’
Illustration: Pinterest