‘भारत में दलित, भारत के दलित’ श्रृंखला की पिछली कड़ी मेंआपने पढ़ा, दलितों के ख़िलाफ़ बढ़ रहे अत्याचारों की कड़ी कहीं न कहीं उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति से जुड़ती है. इस श्रृंखला की चौथी कड़ी में सामाजिक चिंतक, लेखक और दयाल सिंह कॉलेज, करनाल के पूर्व प्राचार्य डॉ रामजीलाल दलितों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति की पड़ताल कर रहे हैं.
दलितों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अंदाज़ा लगाने के लिए यदि हम किसी बिमारू राज्य की बात करते तो शायद यह उचित नहीं होता. भारत के संपन्न राज्यों में एक हरियाणा में दलितों की स्थिति को जानकर आपको शेष भारत की दलित आबादी कितनी संपन्न या विपन्न होगी, उसका मोटा-मोटा अंदाज़ा हो जाएगा.
बिना खेत के किसानी और मज़दूरी, बनी दलितों की मजबूरी
हरियाणा मूलतः कृषि प्रधान राज्य है परंतु हरियाणा के अनुसूचित जाति के कुल परिवारों के 74.3% के पास भूमि नहीं है. कृषि जनगणना रिपोर्ट (2015-16) के अनुसार हरियाणा की कुल जनसंख्या का 20.2 प्रतिशत होने के बावजूद लगभग एक प्रतिशत से अधिक दलितों के पास कृषि भूमि नहीं है.
परिणाम स्वरूप अनुसूचित जातियों कुल आबादी के 14.19% कृषि श्रमिक तथा 57.99% गैर कृषि श्रमिक हैं. समस्त भारत में 2% दलित महिलाएं भूस्वामी हैं, जबकि 98% दलित महिलाएं भूस्वामी नहीं हैं. केवल यही नहीं अपितु ग़ैर-दलित महिलाओं का लगभग 85% भूस्वामी नहीं है.
ऐसी परिस्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले दलित वर्ग के लोग जीवन निर्वाह करने के लिए भू-स्वामियों के पास नौकर के रूप में काम करते हैं. बच्चों की पढ़ाई, विवाह-शादी, तीज-त्यौहार, बीमारी की अवस्था तथा अन्य कार्यों के लिए वे किसानों से 2% से 3% ब्याज दर पर ऋण लेते हैं. यह ब्याज दर ऊंची होने के कारण शोषण का कारण बनती है.
ठेके की नौकरियां खा रही हैं दलित हिस्सेदारी
उच्च शिक्षण संस्थाओं में अनुसूचित जातियों की भागीदारी 1.9% है. यदि इस भेदभाव को देखा जाए तो यह अनुसूचित जातियों के विरुद्ध एक भेदभाव एवं अत्याचार के समान है. इस समय शिक्षण संस्थाओं तथा अन्य संस्थाओं में भी अस्थाई रूप से नियुक्तियां की जाती हैं और नौकरियां ठेके प्रणाली पर आधारित हैं. अस्थाई कर्मचारियों की संख्या बहुत अधिक है, निजीकरण के कारण और भी आगे बढ़ रही है. परंतु इन नौकरियों में आरक्षण न होने की वजह से अनुसूचित जातियों का जो हिस्सा संविधान द्वारा निश्चित किया गया है वह प्राप्त नहीं होता. परिणाम स्वरूप अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों के युवा के शिक्षित होने के बावजूद तथा ख़ाली स्थान होने के बावजूद नौकरियां नहीं मिलतीं. यही कारण है कि शिक्षित युवा नौकरियों से वंचित रहता है.
आरक्षण के साथ लगातार खिलवाड़ किया जा रहा है. सन् 2019-20 हरियाणा के राजकीय सहायता प्राप्त निजी कॉलेजों (प्राइवेट एडिट कॉलेज) में विज्ञापनों में ऐसा देखा गया है. इस संबंध में हरियाणा के बाल्मीकि समुदाय के एक व्यक्ति द्वारा पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट में पीआईएल भी डाली गई थी, परंतु माननीय न्यायाधीश ने जनहित याचिका पर सुनवाई से यह कह कर नकार दिया था कि इसका याचिकाकर्ता पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता. भारतीय न्यायालयों का दृष्टिकोण आरक्षण के संभवत पक्ष में नहीं है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा कि नौकरियों व पदोन्नति में आरक्षण व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है तथा आरक्षण के लिए राज्य सरकार को बाध्य नहीं किया किया सकता. 7 फ़रवरी 2020 को सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों-नागेश्वर राव तथा हेमंत गुप्ता ने कहा था कि इससे पूर्व भी सन् 2012 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने उत्तराखंड सरकार के इस निर्णय को सभी नौकरी सरकारी पोस्टों पर नियुक्तियों में आरक्षण देने करने को अवैध माना था.
हरियाणा में सरकारी नौकरियों में विभिन्न जातियों की एबीसी और डी श्रेणी में संख्या में बहुत बड़ा अंतर है. पिछड़े वर्गों की एबीसीडी श्रेणी में कुल संख्या 35247 है (14.57%)है. बीसी (बी) जातियों की एबीसीडी श्रेणी में कुल संख्या 29157-(12.05%) है. जहां तक अनुसूचित जातियों का संबंध है इनकी नौकरियों में कुल संख्या 50776 (20.9%) है. इन जातियों में चमार जाति की नौकरियों में संख्या 26333 (10.88% ) सबसे ज़्यादा है, लेकिन वाल्मीकि जाति की भागीदारी 11205 (4.36%) है. अनुसूचित जातियों में अनेक ऐसी जातियां भी हैं जिनका सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य है और उनको आरक्षण का कोई लाभ प्राप्त नहीं है. सरकार को सबसे वंचित अनुसूचित जातियों को सरकारी और ग़ैर-सरकारी नौकरियों की मुख्य धारा में शामिल करने के तरीक़े और साधन सुझाने के लिए एक समिति नियुक्त करनी चाहिए.
विधानसभा और संसद में आरक्षण का क्या है हाल?
संसद तथा राज्य विधानसभाओं में दलित वर्गों का आरक्षण का मुद्दा संविधान, संविधान सभा और इसके पश्चात संसद में अत्यधिक विवाद का विषय रहा है. डॉ. भीमराव अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल में इस संबंध में बहुत अधिक मतभेद था. हरियाणा कैडर के आईएएस अधिकारी राजशेखर वुद्रूं की पुस्तक (अंबेडकर, गांधी, पटेल: मेकिंग ऑफ़ इंडियाज़ इलेक्ट्रोरल सिस्टम) में इस विवाद का विस्तृत तौर पर वर्णन किया है.
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात पर बल दिया. इस प्रस्ताव का सरदार पटेल व उसके साथियों ने ज़बरदस्त विरोध किया. राजशेखर वुद्रूं ने लिखा कि संविधान निर्माण के समय अनुसूचित जातियों पर फ़ैसले के समय सारी फ़ाइलें भारत का गृहमंत्री होने के कारण सरदार पटेल के नियंत्रण में थीं. परिणामस्वरूप डॉ. भीमराव अंबेडकर को संसद व विधान पालिकाओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों पर संतोष करना पड़ा. परंतु अंबेडकर ने बल दिया कि जब तक छुआछूत समाप्त नहीं हो जाती, तब तक संसद व विधान पालिकाओं में आरक्षण जारी रहना चाहिए. संविधान सभा में गंभीर डिबेट के प्रारंभ हो गया. इसका विरोध संविधान सभा से सड़क तक हुआ और सरदार पटेल निरंतर इसका विरोध करते रहे. दस साल के पश्चात प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सन्1961 में पहले 10 साल की अपेक्षा आगे बढ़ाने का प्रस्ताव पास पारित करवाया. वर्तमान समय में स्वर्ण जातियों के लोग दलित आरक्षण के विरोधी हैं. यही कारण है कि भाजपा के द्वारा नेहरू और गांधी की अपेक्षा सरदार पटेल को अपना ‘अवतार’ माना जाता है. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट तौर पटेल के संबंध में कहा ‘आप ख़ुद को कांग्रेसी सोचते हैं और इसे राष्ट्रवाद इसका पर्याय मानते हैं. मुझे लगता है कि कोई व्यक्ति कांग्रेसी हुए बग़ैर भी राष्ट्रवादी हो सकता है. मैं अपने आप को किसी भी कांग्रेसी से बड़ा राष्ट्रवादी मानता हूं. हरियाणा की इन 37 अनुसूचित जातियों में चमार समुदाय की संख्या 24 ,29,137 है तथा मतदाताओं की संख्या 11% है. चमार जाति के पश्चात अन्य 36 अनुसूचित जातियों की संख्या 53 % है और मतदाताओं की संख्या का 12% है. जनसंख्या की दृष्टि से वाल्मीकि, मजहबी सिख 10,79,685 आबादी के साथ दूसरे स्थान पर व धानक समुदाय 5,81,272 आबादी के साथ तीसरे स्थान पर है. अन्य 34 अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 10,23,521 है. इन 34 जातियों में अनेक ऐसी जातियां भी हैं, जो अत्यंत वंचित, दलित और शोषित हैं.
हरियाणा की लोकसभा में 10 सीटें हैं, इनमें से 2 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं तथा राज्यसभा में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. हरियाणा विधानसभा की 90 सीटों में से 17 आरक्षित सीटें हैं. इन अति वंचित समुदायों में अधिकांश समुदायों का आज तक एक भी प्रतिनिधि लोकसभा तथा हरियाणा विधानसभा में निर्वाचित नहीं हुआ और विभिन्न राजनीतिक दलों, सरकारों के द्वारा इनमें से किसी को राज्यसभा में भी भेजने का प्रयास लगभग नहीं किया गया.
हरियाणा पंचायती राज अधिनियम 2015 के अनुसार शैक्षणिक योग्यताएं निर्धारित:
सन् 2015 में हरियाणा पंचायती राज अधिनियम में संशोधन किया गया. यद्यपि महिलाओं के लिए 33% आरक्षण जारी रहा, परंतु पंचायती राज संस्थाओं-पंचायत, ब्लॉक समिति तथा ज़िला परिषद का चुनाव लड़ने के लिए हरियाणा सरकार के द्वारा कुछ शर्तें संशोधन अधिनियम 2015 में निर्धारित की गई. इस संशोधन अधिनियम को पारित करने का उद्देश्य बताया गया कि हरियाणा में पढ़ी-लिखी पंचायत होनी चाहिए ताकि गांव का विकास समुचित तरीक़े से हो सके.
हरियाणा पंचायती राज अधिनियम 2015 के अनुसार अग्रलिखित शैक्षणिक योग्यताएं निर्धारित की गई:
1. सामान्य वर्ग तथा पिछड़ा वर्ग के पुरुषों के लिए दसवीं पास
2. सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए आठवीं पास
3. अनुसूचित जातियों के पुरुषों के लिए आठवीं पास
4. अनुसूचित जातियों की महिलाओं के लिए पांचवीं पास
ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेन एसोसिएशन (एआईडीडब्ल्यूए) के अनुसार इन शैक्षणिक योग्यताओं की शर्तों का सबसे अधिक प्रभाव दलित वर्ग पर हुआ, क्योंकि 83% दलित महिलाएं तथा 72% दलित पुरुष चुनाव नहीं लड़ पाए. सामान्य श्रेणी की 71% महिलाएं तथा 55 % पुरुष भी पंचायती राज चुनाव में प्रतिनिधि के रूप में चुनाव नहीं लड़ सकें. इसलिए इस क़ानून को ‘बुरा क़ानून’(Bad Law) के नाम से पुकारा गया. इस शैक्षणिक पैमाने के आधार पर भारतवर्ष में असंख्य एमएलए तथा एमपी पंचायती राज संस्थाओं का चुनाव नहीं लड़ सकते.
टीकाकारों का कहना है कि हरियाणा में पंचायती राज संस्थाओं का चुनाव लड़ने के लिए जो योग्यताएं निर्धारित की गई. इनके परिणाम स्वरूप लाखों स्त्री-पुरुष जो अनपढ़ हैं वे चुनाव में प्रत्याशी नहीं बन सकते. वे केवल मतदाता के रूप में भाग ले सकते हैं. अतः यह ‘सहभागी लोकतंत्र’ के विरूद्ध है. ऐसी स्थिति में निर्वाचन लड़ने से वंचित होने वाले केवल ‘दर्शक गतिविधियों’ तक सीमित हो जाते हैं.
हमारे सभी सुधी पाठकों को यह जानकारी है कि भारत के संविधान एवं जनप्रतिनिधि अधिनियम (1951) के अनुसार विधायकों, सांसदों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति के लिए संविधान में शैक्षणिक योग्यता का वर्णन नहीं है. हमारा अभिमत है कि यह क़ानून निश्चित रूप से अप्रजातांत्रिक है. परंतु भारत के सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस कानून को संवैधानिक घोषित करने के पश्चात लागू कर दिया गया.
संदर्भ:
https://www.newslaundry.com/2020/03/05/in-indias-villages-upper-castes-still-use-social-and-economic-boycotts-to-shackle-dalits
The Hindustan Times, 9 February 2020
‘सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला: नौकरी पदोन्नति में आरक्षण देने को राज्य सरकारें बाध्य नहीं,’ दैनिक ट्रिब्यून, 10 फ़रवरी 2020, पृष्ठ 1
हरीश खरे, ‘पत्रकारों के लिए है इम्तिहान की घड़ी’, दैनिक ट्रिब्यून, खुला पन्ना, 1 जनवरी 2018, पृ .7
डॉ. रामजीलाल, हरियाणा की राजनीति में महिलाओं की भूमिका, सन् 1966 से सन् 2022 तक: एक पुनर्विलोकन https://samajweekly.com/
‘भारत के दलित, भारत में दलित’ की पांचवीं और अंतिम कड़ी में डॉ रामजीलाल दलितों के सही मायने में उत्थान के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस विषय पर बिंदुवार चर्चा करेंगे.