एक ख़ूबसूरत लड़की के पीछे लट्टू हो रहे एक शादीशुदा पुरुष की अजीबोग़रीब मनोस्थिति की मज़ेदार कहानी है ‘आठवां आश्चर्य’.
लड़की खूबसूरत थी. इतनी कि अगर किसी छोटे शहर में होती तो किसी मंत्री-पुत्र ने उसे उठवाने की कोशिश ज़रूर की होती. या उसके नाम पर दो-चार बार चाकू चलते. अगर नहीं, तो कम-से-कम सौ-पचास कविताएं तो लिखी ही जातीं. हजार पांच सौ प्रेम-पत्र मिलते. अगर बहुत बड़े शहर में होती तो फिल्मों और सीरियलों में काम के ऑफर मिल गए होते. विज्ञापन एजेन्सियों के गुरु घण्टालों ने डोरे डाले होते. साहित्य, कला, संस्कृति प्रेमियों से बच जाती तो रंगमंच और नृत्य वालों ने तो छोड़ा ही न होता. मतलब यह कि लड़की खूबसूरत थी, यात्रा में थी और साथ उसका पति था या हो सकता है होने वाला पति हो या ये भी हो सकता है कि कभी न हो पाने वाला पति हो. लड़की को देखकर सुरूर चढ़ता था. ऐसा जैसे एक छोटा पेग लगा लिया हो. लड़के को देखकर लगता था किसी ने छोटे पेग में नीबू निचोड़ दिया हो.
लड़की की उम्र करीब बीस-इक्कीस रही होगी. उसके साथ लड़का अट्ठाइस-तीस के करीब का था. दोनों ने रंग उड़ी नीली जीन्स जैकेट, एक रंग और डिजाइन के जूते पहने थे. दोनों ने घड़ियां भी मैच करती हुई लगाई थीं. दोनों का जोड़ा बड़ा फब रहा था. हो सकता है मैं केवल मर्दों के नजरिए से कह रहा हूं, लेकिन लड़की लड़के के मुकाबले गजब की चीज थी. उसके सीधे रेशमी लम्बे बाल कन्धों पर पड़े थे और जेवर के नाम पर नाक में बस हीरे के कील थी जिसकी चमक कल्पना के हिन्द महासागर में उतर जाने के लिए काफी थी. चेहरे पर बेफिक्री और मस्ती थी. जीन्स और जैकेट में उसका शरीर फुलझड़ियां छोड़ता-सा लग रहा था.
लड़की और लड़का हम लोगों को ट्रेन पर ही दिखाई दिये थे. दिल्ली से वे भी हमारी तरह ताज एक्सप्रेस में बैठे थे और जैसा कि अनुमान लगाने को भी जरूरत नहीं है, आगरा देखने जा रहे थे. मैं ट्रेन में भी लड़की को घूर रहा था. मुझे एक-दो बार पत्नी ने टोका भी था. पत्नी जब भी मुझे लड़कियों को घूरते पाती है, टोक देती है. ये टोकना आंखों के भाव वे सब कुछ कह देते हैं शायद जुबान भी न कह पाती.
सामने की सीट पर तो नहीं, लेकिन लड़की ट्रेन के डिब्बे में ऐसी जगह बैठी थी कि उसे सीधा देख सकता था. मेरे पास पत्नी बैठी थी. पत्नी की गोद में मुन्ना सो रहा था और पत्नी के बराबर सात साल की मुनिया, यानी हमारी बेटी बैठी थी. सपरिवार आगरा घूमने का ख्याल पत्नी के दिमाग में आया था. कारण यह था कि मुनिया को आगरे का पाठ अच्छी तरह समझाने के लिए आगरा दिखाना जरूरी है. मेरे लिए सब बराबर था. अगर पत्नी के बजाय मेरठ कह देती तो दूसरी ट्रेन पर बैठ जाता है. बीकानेर कह देती तो तीसरी ट्रेन पर बैठ जाता. और इटावा कह देती तो चौथी…मतलब यह कि मैं ‘ऑफीशियल ड्यूटी’ पर था. चाहे जिस ‘नेचर’ का काम होता, मेरे लिए सब बराबर यानी सब ‘ऑफीशियल’ होता.
गाड़ी के आगरा पहुंचने से पहले ही हमारे डिब्बे में ‘कण्डक्टेड टुअर’ वाले आ गए थे. चूंकि उन्होंने बताया था कि सरकारी हैं इसलिए ज्यादातर लोगों ने उनसे टिकट ले लिये थे. स्टेशन के बाहर ही उनकी बस खड़ी थी और उतरते ही हमको बस का नंबर बत दिया गया कि जाओ, उस पर जाकर बैठो.
बस तक कुछ लोग जल्दी पहुंच गए थे. कुछ बाद में पहुंचे. अब इत्तफाक से स्थिति ये पैदा हो गई कि ‘वे लोग’ जब बस में आए तो उन्हें एक साथ बैठने के लिए सीट नहीं मिली दोनों कुछ परेशान हो गए. मैंने ये परेशानी भांप ली और अपनी खिड़की वाली सीट छोड़कर पत्नी के बराबर आकर बैठ गया. मेरे ऐसा करने पर लड़की ने ‘थैंक यू’ या इसी किस्म का कोई शब्द बोला था. लड़का खामोश था. मैंने दिल ही दिल में कहा था, अरे इस पर क्या ‘थैंक यू’ कर रही हो. अभी तुमने मुझे देखा कहां है. आजकल के जमाने में तुम्हें मेरे जैसे आदमी मिलेंगे कहां, ये तो तुमने मेरी एक झलक भी नहीं देखी. देखो सहारा के रेगिस्तान में ऊंटों का एक कारवां चला जा रहा है. नीचे झुलसा देने वाली रेत है और ऊपर तपता हुआ सूरज है. ऊंटों की जबानें लटक आई हैं. हब्शी गुलाम नाकों को पकड़े इस तरह चल रहे हैं जैसे शताब्दियों बीत गई हों उन्हें चलते-चलते. एक ऊंट पर हाथी दांत की महफिल है. उस पर चीनी रेशम के पर्दे पड़े हैं. वह गुलाब के इत्र से महक रही है. उसके अन्दर तुम एक झीनी-सी नकाब डाले बैठी रेगीस्तान में कुछ देख रही हो. तुम्हारा जिस्म इतना नाजुक है कि उस परछाईं भी बोझ लगती है. फर्ज करो तुम्हारा बाप अब्दुल कुद्दूस बिन हसन हीरे-जवाहरात का व्यापारी है और इस्तम्बोल से हिरात जा रहा है. अचानक कारवां रुक जाता है. कारवां में एक आदमी तुम्हारे बाप अब्दुल कुद्दूस बिन हसन की हत्या कर देता है और तुम्हारे साथ बलात्कार करना चाहता है. उसी वक्त एक अदना-सा गुलाम, यानी मैं, एक छोटी-सी तलवार लेकर उसे ललकार दूं. वह मेरी तरफ देखकर हंसता है और अपने आदमियों से कहता है कि इस सिरफिरे को मसल डालो. लेकिन जल्दी ही उसे मेरे मुकाबले के लिए आना पड़ता है. तलवारें ऐसी कौंधती हैं कि ढलते हुए सूरज की रोशनी मन्द पड़ जाती है. खलनायक की भयानक चीख और तुम मेरे पसीने से भीगे चौड़े-चकले सीने पर सिर रखकर सिसकियां लेने लगती हो. मैं कहता हूं, नहीं हसीना, मैंने तुम्हें जीतकर एहसान नहीं किया है, तुम आजाद हो, जिसको चाहो अपना सकती हो. लेकिन तुम मेरे कदमों पर…
‘‘सुनो जी, इस तरह तो घूमने का कोई फायदा नहीं है’’पत्नी ने कहा.
‘‘क्यों क्या बात है’ मैं चौंक गया.
‘‘आप क्या सोचे जा रहे हैं मुनिया को बताते जाइए ना…आप तो आगरा कई बार जा चुके हैं.’’
‘‘हां…हां सुनो बेटी…वो रेगिस्तान है…’’
‘‘रेगिस्तान’ पत्नी ने हैरत से कहा.
‘‘ओ सॉरी…मतलब शहर है…’’
पत्नी बुरा-सा मुंह बनाकर बोली,‘‘मुनिया, तुम मेरे पास आ जाओ.’’ और उन्होंने मुन्ने को मेरी गोद में दे दिया.
कण्डक्टेड टुअर शुरू हो चुका था. ऐतिहासिक इमारतों के सामने बस रुकती थी. सब उसमें से उतरते थे. गाइड अंग्रेजी में बताना शुरू करता था. कुछ पर्यटक विदेशी भी थे. गाइड का पूरा ध्यान उनकी तरफ था. वह जानबूझकर कुछ उल्टे-सीधे तथ्य बताकर उन्हें हंसाने की कोशिश भी कर रहा था.
लड़की और लड़का भी ग्रुप के साथ थे. मैंने पाया कि वे आपस में अंग्रेजी में बात कर रहे थे. इस पर बहुत आश्चर्य होने की जरूरत नहीं थी लेकिन फिर भी मुझे लगा था कि वे आपस में तो उस भाषा को बोलते होंगे जो उनके ‘देश’ की भाषा होगी, यानी गुजराती, बंगला, तमिल या कुछ और. वैसे ये दोनों किसी ऐसी जगह के लग भी नहीं रहे थे, जहां लोग सिर्फ अंग्रेजी बोलते हैं. क्योंकि वे हिन्दी बड़ी सरलता से समझ रहे थे.
‘कण्डक्टेड टुअर’ के ‘गाइड’ की बातें धीरे-धीरे बर्दाश्त से बाहर हो रही थीं. वह इतिहास नहीं जानता था, यह बात बर्दाश्त से बाहर नहीं था बल्कि यह थी कि वह इतिहास-पुरुषों का ही नहीं, हर उस चीज का मखौल उड़ा रहा था जो शानदार थी. मिसाल के तौर पर फतेहपुर सीकरी में वह अकबर बादशाह की पत्नियों का जिक्र निकाल बैठा. हरम की बातें चटखारे ले-लेकर सुनाने लगा. उसकी बातचीत से साबित हुआ कि अकबर के सामने बड़ी चुनौती हरम की औरतों को काबू में रखने की थी. ऐसी बातों पर मेरी टीका-टिप्पणी पत्नी के साथ जारी थी. मैं पत्नी को समझा रहा था कि यह षड्यंत्र है. देश को अपमानित करके पैसा कमाने का काम कितना घृणित है. यह गाइड जो अकबर की बर्बरता के किस्से सुना रहा है यह क्यों नहीं बताता कि सोलहवां शताब्दी में उस जैसा उदार और सहिष्णु राजा पूरे यूरोप में नहीं था…ये बातें सुनकर कुछ देर पत्नी खामोश रही फिर बोली,‘‘तुम अभी चुप रहो…तुम्हारी बातें घर में भी सुनी जा सकती हैं, अभी गाइड की बातें सुनने दो.’’ मुझे पत्नी पर गुस्सा आ गया और मैं चुप हो गया. अब गाइड से मेरे खामोश सवाल होने लगे. मेरे हर सवाल पर गाइड बगले झाकने लगता था क्योंकि उसके पास जवाब नहीं थे.
गाइड बता रहा था, ‘‘यहां बादशाह शतरंज खेलता था. मोहरों की जगह लड़कियां बैठती थीं और जो मोहरा पिट जाता, उसे कत्ल कर दिया जाता था.’’
‘‘सच! बूढ़ी अंग्रेज और अमरीकन औरतों की आंखें फट रह गईं. गाइड मुस्कराया. जवाब में वे भी हंसीं.
‘‘बर्बरता…’’एक फुसफसाई.
मैंने दिल में तय कर लिया कि मैं गाइड की लिखित शिकायत करुंगा. लेकिन लिखित शिकायतों पर होता क्या है. देश में कागज की कमी है और सरकार के पास इतने कार्यालय नहीं है जहां शिकायती चिट्ठियां रखी जा सकें.
गाइड से मेरे खामोश सवाल शुरू हो गए.
‘‘मिस्टर गाइड, क्या आपको मालूम है कि सोलहवीं शताब्दी में हमारे देश में लोहे का उत्पादन यूरोप से अधिक था’ गाइड की आंखों हैरत से फटी-की फटी कर गई.
‘‘यही नहीं, गाइड महोदय, आपको मालूम है कि अकबर जिस कक्ष में खाना खाता था वहां उसने ईसा और मरियम की तस्वीर लगा रखी थी जबकि वह ईसाई नहीं था. गाइड महोदय, आप कुछ बोलना चाहते हैं, बोलिए.’’ गाइड ने कहा, ‘‘इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेज हमसे श्रेष्ठ थे, उन्होंने पचास साल के अन्दर लगभग पूरे देश पर अधिकार जमा लिया था.’’
‘‘गाइड महोदय, आपने पंडित सुन्दरलाल को पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ पढ़ी है खैर, न पढ़ी होगी. लेकिन पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि आदिम और बर्बर जातियों ने सदा सभ्य और विकसित जातियों पर विजय पाई है.’’
‘‘गाइड महोदय, क्या आप जानते हैं, गुलामों के घृणित व्यापार में इंग्लैंड की महारानी की पूंजी भी लगी हुई थी…महोदय, अवसरवादिता, छल-कपट द्वारा स्वार्थसिद्धि, मनुष्य-विरोधी कार्य, छीना-झपटी को आप चाहें तो सभ्यता कहें…संसार तो नहीं कहेगा.’’
‘‘यहां बादशाह जंगली जानवरों की लड़ाई देखता था.’’
‘‘यहां बैठकर बादशाह संगीत सुनता था.’’
‘‘यहां बैठकर शराब पीता था.’’
‘‘यहां सोता था.’’
मैंने पत्नी से कहा, ‘‘ये क्यों नहीं बता रहा है कि अकबर की लायब्रेरी में चौबीस हजार किताबें थीं. उसने महाभारत और रामायण का फारसी में अनुवाद ही नहीं कराया उस पर चित्र भी बनवाए थे.’’ पत्नी ने कहा,‘‘यह सब तुम बताते क्यों नहीं हो, इन लोगों को ‘‘मैंने कहा, ‘‘मैं गाइड थोड़ी ही हूं.’’
गाइड से चिढ़ और ऊब कर मैं लड़की की ओर ही ध्यान देने लगा. वे दोनों एक-दूसरे की फोटो खींच रहे थे. लड़की ने बैग से पानी की बोतल निकाली थी और विदेशियों की तरह होंठ तर कर रही थी. लड़के ने अपनी जैकेट कंधे पर डाल ली थी. वे दोनों साथ के लोगों से न तो बात कर रहे थे और न उनके करीब ही आ रहे थे. ऐसा लगता था जैसे वे इतिहास और वर्तमान से ज्यादा एक-दूसरे में रुचि ले रहे हों. हां-वे कभी-कभी विदेशी पर्यटकों में एक-दो बातें कर लेते थे. मैं लड़की और लड़के के सामने एक-दो बार इस तरह आ गया कि उनको मुझसे कुछ बात करनी चाहिए थी, लेकिन वे चुप रहे. धीरे-धीरे वे मुझे ‘स्नॉब’ लगने लगे.
लंच टाइम में गोरे और काले बंट गए थे. गोरे या तो सिर्फ फल ले रहे थे या अपने साथ ही लंच पैकेट लाए थे. हम काले लोगों के लिए खाने की दुकानों और चीजों की कोई कमी न थी. पंजाब से लेकर केरल तक के पकवानों का ढेर लगा था. कम पैसे में ज्यादा खाना खाने का एक तरीका थाली है. हम दोनों ने एक थाली और एक प्लेट बड़ा सांभर मंगा लिया, और प्यार से चट कर गए. खाना खाकर मुनिया को पेशाब कराने के लिए मैं कोई एकांत जगह देख रहा था तो मैंने लड़की और लड़के को बैठे देखा. उन लोगों ने एक बड़े पत्थर को मेज बना डाला था. उस पर कागज के नैपकिन बिछाकर सैंडविच और कॉफी का थर्मस रखा था. एक-दो फल भी थे. आमने-सामने दो छोटे पत्थरों की कुर्सियां बनायी थीं. उन पर वे दोनों बैठे खा रहे थे. लड़की सैंडविच इस तरह कुतर रही थी कि गिलहरी को मात दे रही थी…ये कैसा खाना है जहां पानी ही नहीं है बिना पानी के खाना. वाह भई वाह…दोनों पर गुस्सा नहीं, चिढ़ आई. लगा याद हद कर दी. अरे सीधे-सादे खाना खाते, ये क्या मजाक कर रहे हैं. इनके सालों के बाप-दादा क्या इसी तरह खाना खाते होंगे! अंग्रेजों का ठीक है, जो चाहे करें, इससे मतलब क्या लेकिन यार, अपने बन्दे यानी हिन्दुस्तानी भाई इस तरह के चुतियापे में पड़ जाएं तो तकलीफ तो होती ही है…अरे भाई सादा खाना ही खाना चाहते हो तो दाल-रोटी खाओ…और सादा चाहिए तो साथ में सत्तू बांध लेते. अगर कुछ साल बाद सत्तू को कोई अमेरिकन मल्टीनेशनल कम्पनी ‘सेट्टीज फास्ट फूड’ के नाम से पैक कर दे तो यही लोग सत्तू खा-खाकर…
मुनिया को पेशाब कराके पत्नी के पास आया तो मेरे मुंह से अपने आप निकला,‘‘नईं जी नईं, अपने बन्दे नईं हैं.’’ पत्नी ने आश्चर्य से देखा और पूछा, ‘‘क्या बात है’
‘‘दोनों साले सैण्डविच खा रहे हैं.’’
पत्नी पूरी तरह न समझ पायी, पर इतना जरूर समझ गई कि मैं किसी के फटे में टांग डालने वाला अपना पसन्दीदा विचार कर रहा हूं.
‘‘मैं कहती हूं तुम्हें न घर चैन, न बाहर चैन.’’
‘‘छोड़ो-छोड़ो.’’
‘‘तुम्हें उल्टा-सीधा सोचने की क्या पड़ी रहती है’
‘‘क्या मैं उल्टा-सीधा सोचता हूं’
‘‘तो क्या यहीं पर लड़ोगे’
मैं चुप हो गया. पर लड़की-लड़के पर गुस्सा सख्त आ रहा था. सूरज में तपिश बढ़ गई थी. मैंने सोचा यार, इतनी गर्मी में दोपाहर का खाना खाकर कोई अगर पानी नहीं पीता तो…
लंच टाइम खत्म हो गया. ‘गाइड’ फिर आ गए. उन्होंने किले के अन्दर ही किसी रेस्टोरेंट में लंच किया था और फोकट में किया था, क्योंकि उन्हें जैसी प्यारी डकारें आ रही थीं वैसी पैसे देकर किये भोजन में नहीं आतीं. धीरे-धीरे लोग जमा होने लगे. सबसे पहले लोग आ गए. फिर काले आने लगे. ‘गाइड’ साहब ने बताया कि अब हम ‘ताजमहल’ देखने जा रहे हैं.
‘ताजमहल’ के सामने बस रुकी तो दस्तकारी की चीजें बेचने वाले लोग आ गए. उन्होंने बस को घेर लिया. इस बीच लड़की और लड़का नजरों से ओझल हो गए. गाइड ने पहले ही बता दिया था कि ताजमहल देखने के लिए सबसे ज्यादा वक्त दिया जाएगा. बहरहाल जब मैं, पत्नी और बच्चे ताजमहल के बाहरी दरवाजे से अन्दर घुस रहे थे तो लड़की ने होंठों को ताजा लिपस्टिक लगाई थी. बाल बनाए थे. शायद किसी तरह की क्रीम लगाने की वजह से चेहरा दमक-सा रहा था. लड़के ने भी, लगता था, हाथ-मुंह धोकर कंघा वगैरा किया है. वे दोनों ताजमहल देखकर विदेशी पर्यटकों की तरह खुश हो रहे थे. ‘गाइड’ ताजमहल की सुन्दरता और उसका महत्त्व बताने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन अफसोस कि गलत जगह पर, यानी ताजमहल के सामने कर रहे थे.
ताजमहल देखकर हम लोग बाहर निकले और बस की तरफ बढ़े तो संसार का आठवां आश्चर्य देखने को मिला. बस के पास चाट वाले ठेले पर लड़की और लड़का गोलगप्पे खा रहे हैं. मैं उन्हें पहले तो एकटक देखता रहा फिर मुस्कराया. फिर हंसी आ गई. फिर पत्नी की तरफ देखा, पत्नी उधर वहीं देख रही थी. उन्होंने मुझे अपनी तरफ देखते पाया तो बोली,‘‘इससे बड़ी सुन्दरता की कल्पना नहीं की जा सकती.’’ मैं चाट खाते जोड़े को देख रहा था, मैंने कहा, ‘‘हां, इससे बड़ी सुन्दरता की कल्पना नहीं की जा सकती.’’
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