आज पोंगल भी है और मकर संक्रांति भी. उत्तर भारत मकर संक्रांति मनाता है तो दक्षिण भारत पोंगल. दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही त्यौहारों पर खिचड़ी बनाए जाने की परंपरा है. मेरी डायरी में जयंती रंगनाथन ने पोंगल को अपनी अम्मा की यादों के साथ संजोया है.
आज उत्तर भारत में मकर संक्रांति है, दक्षिण में पोंगल है. पोंगल का मतलब पता है आपको? हम दक्षिण भारतीय, ख़ासकर तमिलभाषी किसी भी सुखद अवसर पर अपनी रसोई या घर के आंगन में दूध या खीर को हांडी में उबल कर गिरने देते हैं. पोंग (ग के साथ अ को लंबा खींचिए) का अर्थ है उबल कर गिरना. इसे खूब शुभ माना जाता है. गृह प्रवेश हो या पोंगल त्योहार, इसके मूल में हांडी में दूध या खीर उबाल कर नीचे गिराना होता है. इसका मतलब होता है घर में धन-धान्य इतना रहेगा कि कभी कम ना होगा. तो गाहे-बगाहे या अनजाने में जब गैस पर रखा दूध उबल कर गिरने लगता है, तो हम नाराज़ या दुखी होने के बजाय कहते हैं: चलो, पोंगल मना लिया!
इस पर्व को मैंने कभी केरल या तमिलनाडु में नहीं मनाया. अम्मा से हजारों बार सुना कि कैसे बचपन में केरल के पालक्काट जिले के चित्तूर गांव में वे मनाया करती थीं. आज इस पर्व से जुड़ी मेरी अम्मा विशालम की कुछ यादें साझा कर रही हूं.
चित्तूर गांव में अम्मा जहां रहती थीं, नवग्रहा स्ट्रीट, उसके मुहाने पर शोकनाशिनी नदी थी. अम्मा रोज नदी में अपनी बहनों और दोस्तों के साथ नहाने जातीं. बारिशों में अमूमन लड़कियां नदी में जाने से डरतीं, अम्मा को मजा आता. वहीं से अपने कपड़े धो कर गीले लहंगे और ब्लाउज में लहराती हुई घर आती थीं. दो भाइयों के बाद की बहन थीं अम्मा, उनके बाद तीन बहनें. अम्मा सही मायनों में डेयरडेविल थीं. जिस काम के लिए मना किया जाए, सबसे पहले वही करतीं.
गांव में पोंगल से पहले तैयारियां शुरू हो जाती. पालतू गायों और बैलों के सींग रंगे जाते. घर के आंगन की सफ़ाई होती, वहां मिट्टी का चूल्हा बनाया जाता. खेतों से आता नया चावल. बोरियां भर-भर के घर के पीछे गोदाम में रखवाई जातीं. अम्मा उस समय बारह-तेरह साल की रहीं होंगी. घर के गायों के सींग रंगने में वे सबसे आगे रहतीं. रंग भी ऐसे-वैसे नहीं, अम्मा के घर के गायों की सींग के रंग हमेशा सबसे अलग रहते. पोंगल के दिन घर के आंगन में हांडी में खीर पकाई जाती, नए चावल, मूंग दाल और गुड़ खीर, जिसे हम तिदपु पोंगल कहते हैं. सबसे पहले खीर का प्रसाद घर के जानवरों को चखाया जाता, इसके बाद घर वालों को खाने को मिलता.
अम्मा के गांव से स्कूल लगभग तीन किलोमीटर दूर था. ये दूर वाला रास्ता था. अगर खेतों के बीच से निकल कर जाओ तो बस एक किलोमीटर. लेकिन एक दिक्कत थी. खेतों वाला रास्ता नायाडीज के इलाके से हो कर जाता. वहां जाना मना था, ख़ासकर बच्चों को. माना जाता था कि वे जादू-टोना करते हैं. हर ग्रहण के दिन नायाडीज परिवार के बच्चे और औरतें छाती पीटते हुए घरों में खाना और कपड़ा मांगने आते. घर के बच्चे अपनी आंखों को बंद किए दरवाजा खोल कर उनके पात्रों में सामान रख देते और भाग कर अंदर चले जाते.
अम्मा अपनी मिचमिची आंखों से देखती. आबनूसी रंग के तो सब ही होते, पर नायाडीज औरतें दबंग दिखतीं. चेहरे और हाथ में गोदना, चमकती आंखें, चांदी के खूब गहने पहनी रहतीं. साड़ी भी घुटनों तक पहनती थीं, बिना ब्लाउज के. अम्मा को वे औरतें बहुत आकर्षक लगती थीं. जोर से चिल्लाती थीं, जिस घर से दान नहीं मिलता, खूब गालियां दे कर जातीं. पोंगल वाले दिन नायाडीज खेतों को घेर कर जमीन पर फूल और चावल के आटे से खूब बड़े पुतले बनाते. उसके बीच हांडी जलाते. अम्मा ने अपने भाइयों से सुना था, जब हांडी में से दूध उबल कर गिरने लगता है, पुतले जाग जाते हैं. उनकी आंखें हिलती-सी लगती हैं.
अम्मा से रहा नहीं गया. पोंगल वाले दिन घर में पूजा होने के बाद वो अपनी छोटी बहन का हाथ पकड़ कर खेत की तरफ़ निकल गईं. भाइयों की बात सच थी. खेत पर बड़े-बड़े पुतलों की रंगोली बनी थी. उन पर हांडियां जल रही थी. अम्मा को देख कर एक नायाडीज औरत ने उन्हें इशारे से पास बुलाया. अम्मा चली गईं. औरत की बोली अम्मा को समझ नहीं आई. नगाड़े और गानों के शोर के बीच हांडी में रखा दूध उबल कर जमीन पर गिरने लगा. एक पान के पत्ते में दूध डालकर औरत ने अम्मा को पीने को दिया. और अम्मा ने पी भी लिया.
इसके बाद अम्मा बताती थीं कि उन्हें वाक़ई लगा था कि पुतलों की आंखें चमकने लगी हैं. वो अम्मा की तरफ़ देख कर घूरने लगे हैं. अम्मा को उस औरत की हंसी कभी नहीं भूलती. फिर क्या हुआ? अपनी बहन का हाथ कसकर पकड़कर वो दौड़ती हुई घर लौट आईं. छोटी बहन ने रोते हुए घर में सबको बता दिया. अम्मा की दादी वैसे भी अम्मा की शरारतों से परेशान रहती थीं. मौक़ा देखकर उन्होंने अम्मा को बढ़िया से कूट दिया. पर अम्मा बताती थीं, वो रोई नहीं.
रात को जब उन्होंने भाइयों को बताया कि उन्होंने पुतलों की आंखें हिलती हुई देखी थीं तो दोनों मज़ाक उड़ाने लगे कि हमने तो ऐसे ही कहा था. हम तो कभी वहां गए ही नहीं.
मैंने अम्मा से पूछा था, क्या सच में रंगोली के पुतलों की आंखें हिली थीं? अम्मा ने कहा था: हां… हम जो चाहते हैं वो हो जाता है. मैंने भी शायद यही चाहा था.
अम्मा वो पोंगल कभी नहीं भूल पाईं और मैं अम्मा का वो किस्सा…