कहने को तो आजकल कहा जाने लगा है कि एक बेटी मां से कहीं ज़्यादा पिता के क़रीब होती है. पर यह कहने की बात है, एक बेटी को अपने सपनों से सींच कर बड़ी करती है उसकी मां. मदर्स डे पर एक ऐसी ही बेटी अपनी अम्मा को याद करती है. मन की आलमारी में सहेज के रखी अम्मा की यादों के रेशे-रेशे पकड़कर अलग करती है.
उम्र का मौसम बदलने लगा है
बालों में सफ़ेदी ने सेंध मारी है
अब क्या करूं मैं अकेले-अकेले
पुरानी सारी यादों से ही यारी है
खोली मैंने अपने यादों की अlलमारी
सबसे ऊपर के खाने में
सचमुच बिलकुल सही माने में
टंगी हुई हैं हैंगर में तुम्हारी ही यादें
साथ है मेरे किए हुए वो सारे वादे
अम्मा ऊंचा रखूंगी नाम तुम्हारा
मेरी अम्मा को जानेगा जग सारा
अब जब बैठ गई मन की आलमारी लगाने
आ गई एक हिचकी और याद कई फ़साने
उसके नीचे के हैंगर में भी
टांग रखे थे कुछ सपने
जो भी तुमने ही दिखाए थे अम्मा, पहले लगते थे बड़े अपने
जो अब पुराने पड़ चुके हैं
सोचा या तो किसी को दे दिए जाएं
या ठीक-ठाक करके एक बार दोबारा
ट्राई करके देखे जाएं
क्या पता इस उम्र में भी फिट हो जाएं
क्योंकि तुमने ही तो कहा था
ऐज इज़ इन योर माइंड
ख़ुद तो होती रही बूढ़ी, पर थी तुम बड़ी काइंड
लेकिन फिर एक डर भी तो है
कहीं अब आउटडेटेड ना लगने लगूं उन सपनों के संग
उम्र तो बीत रही है
जवानी किससे मागूं?
लेकिन देखती हूं अल्टर और डाई करवा के!
एक रैक में हैं कुछ रिश्ते धूल चिपटे
जो तुम्हारे ही दिए हुए हैं
तहाए पड़े हैं कागज़ों में लिपटे
जब दिए थे तुमने तब लगा था
हमेशा चलेंगे, लेकिन जल्दी ही
बेरंग हो गए, कई उधड़ गए
कुछ बड़े हो गए हैं
कुछ आज भी छोटे लगते हैं!
कुछ को तो मन नहीं था रखने का
लेकिन वाक़ई, वही ख़ूब चल रहे हैं आज भी, क्योंकि तुमने जो दिए थे
पहले से ज़्यादा चमक, विश्वास और अपनापन!
मालूम है?
जब ये नए थे
तब इतने चमकदार नहीं थे
इनकी चमक वक़्त के साथ बढ़ी है!
कुछेक महंगे वादे पड़े हैं लॉकर में
कुछ तो वक़्त ज़रूरत पर बेच दिए
कुछ आज भी पहन कर इठलाती हूं, सब कुछ तुमने ही तो सिखाया है
कुछ यादें पड़ी हैं
चोर लॉकर वाली सुनहरी डिबिया में
तुम्हारे आंचल की ख़ुशबू
स्कूल की आधी छुट्टी में
टिफ़िन से निकले आलू के परांठे
भाईयों की ठिठौली
बाबूजी की फटकार
भाईयों का ढेर सारा प्यार
मेरी पहली तनख्वाह
मेरी विदा पर गिरे बाबूजी के आंसू
सबकी ख़ुशबू आज भी जस की तस!
तुम्हारा बेहोश हो जाना
तुम्हारी ही याद में सभी रिश्तों को
वापस सही से रखा
वरना क्या पता ज़रूरत पड़ने पर
सही से पहचान न पाती और
उठाने में ग़लती कर देती!
खैर मन की अलमारी बुहारते में
इतने रंग
इतने धागे
इतने सेफ़्टीपिन
इतने पैबंद निकले
कि लगता है जैसे
मन की अलमारी
इन्हीं सब के वज़न से भारी होकर
अस्त-व्यस्त सी पड़ी थी
आज सब आंसुओं में प्रवाहित कर दिए!
अब जंच रही है
मेरे मन की अलमारी…
अम्मा तुम्हारी याद के साथ
बिलकुल वैसे ही बरसों बाद
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